माहेश्वरी समाज वंशोत्पत्ति
by Bijay Jain · Published · Updated
माहेश्वरी समाज! समय के साथ कदम से कदम मिलाने में विश्वास रखता है, इस समाज के सदस्य परिवर्तनशीलता के पक्षधर हैं, इस दृष्टि से सब नित-नवीन हैं। महाकवि कालिदास ने नवीनता की व्याख्या करते हुए लिखा है-
पदे-पदे यन्नवतामुमैति, तदैवरूपम् रमणीयताया:
कदम-कदम पर जो नवीनता को स्वीकार कर लेते हैं, वे रमणीय रहते हैं। रमणीयता समय की शोभा है और समय रमणीय को रमणीयतम बना देता है।
माहेश्वरी समाज की उत्पत्ति के संबंध में अनेक किंवदंतियां हैं। जयपुर जिले के अंतर्गत खंडेला के प्रतापी राजा खड़गलसेन के पुत्र सुजानकंवर माहेश्वरी समाज के आदि पुरूष हैं। माना जाता है कि युवावस्था में एक दिन सुजानकंवर ७२ उमरावों के साथ ‘आखेट’ पर गये। वहां उन्होंने ऋषियों को यज्ञ करते देखा, यज्ञ में बलि दी जा रही थी, हिंसा के मर्मान्तक माहौल ने सुजानकंवर को विचलित कर दिया और उसने तत्काल उमरावों से यज्ञ नष्ट करने को कहा। उमरावों ने वही किया, इस पर यज्ञकर्ता ऋषियों ने उन्हें श्राप दिया कि तुम सब जड़ हो जाओ, तत्काल सुजानकंवर सहित सभी उमराव पाषाण मूर्तियों में परिवर्तित हो गये। घटना की सूचना राजा खड़गलसेन को मिली, वे इस आघात को सहन नहीं कर सके, उन्होंने अपनी रानियों सहित पुत्र वियोग में प्राण त्याग दिये। सुजानकंवर की रानी चन्द्रावती विदुषी थी, उसने समस्त उमरावों की स्त्रियों के साथ ऋषियों के पास पहुंचकर अपने पतियों को श्राप से मुक्ति दिलाने की प्रार्थना की, इस पर ऋषियों ने भगवान महेश और भगवती पार्वती की प्रार्थना करने को कहा। रानियों की तपस्या व प्रार्थना से प्रसन्न होकर महेश और पार्वती जी ने उनके पतियों में प्राण संचित कर दिये। सचेतन होकर सुजानकंवर एवं उनके सहयोगी यज्ञस्थल के समीप स्थल कुंड में स्नान करने उतरे तो वहां उनके सारे शस्त्र गल गये, जहां यह क्रिया सम्पन्न हुई, वह स्थान ‘लोहार्गल’ कहलाता है, यह ‘लोहार्गल’ अभी भी ‘रींगस’ स्टेशन से २०-२५ मील उत्तर में पहाड़ों के मध्य स्थित है। ‘लोहार्गल’ से लौटकर नवजीवन प्राप्त राजकुमार एवं उमराव भगवान महेश्वर के नाम पर ‘माहेश्वरी’ कहलाए और ‘खंडेला’ उनकी मातृभूमि मान्य हुई। शस्त्र गल जाने के कारण सुजानकंवर एवं ७२ उमरावों ने तराजू धारण कर लिया।
कृपाण त्याग कर कलम लीन्हा
तज ढाल तराजू कुरतदीना
माहेश्वरी समाज ने सामंजस्य पैदा करने वाली अवधारणा स्वीकार की और अपने आपको प्रतिष्ठित करने के लिए समय के संकेत के अनुरूप काम किया, वह समय महाभारत काल का था। प्रसिद्ध जागा सूरजमल मुकनलाल की बही के अनुसार माहेश्वरी जाति की उत्पत्ति उसी समय यानि अब से लगभग ४५०० वर्ष पूर्व हुई, लगता है कि उस समय विशेष उल्लेख योग्य कार्य न होने से इतिहास नहीं बना। विक्रम की ८वीं-१०वीं सदी के बीच एतिहासिक घटना हुई तो उसका नेतृत्व सुजानकंवर ने किया। युग परिवर्तन जितना बड़ा सृजन का काम घर में रहकर नहीं किया जा सकता, इसलिए संभव है उन्होंने जोग लिया हो और इसी कारण बाद में वे जागा कहे जाने लगे। ‘जागा‘ जोग का अपभ्रंश और ‘योग’ की याद दिलाने वाला सांकेतिक शब्द है।
भगवान शंकराचार्य के समय माहेश्वरी जाति अस्तित्व में आई और वह समय ११०० वर्ष पूर्व का है। जागों की बहियों के अनुसार ज्येष्ठ शुक्ला नवमी को श्री महेश भगवान के आशीर्वाद से माहेश्वरी जाति की उत्पत्ति हुई।
इस मत के परिपेक्ष्य में भी जैन इतिहास गौर करने लायक है। इतिहासवेत्ता मुनि जिनविजय जी ने जानकारी देते हुए लिखा है:
‘वस्तुत: उस जमाने में ऐसे धर्म परिवर्तन ने प्रजा के पारस्परिक विद्वेष को कम किया हो पर सामाजिक उत्कर्ष को बढ़ाया। गुजरात के अनेक प्रतिष्ठित कुटुंबों में जैन और शैव दोनों धर्मों का पालन किया जाता था, किसी गृहस्थ का पितृकुल जैन था तो मातृकुल शैव और किसी का मातृकुल जैन था तो पितृकुल शैव, इस तरह गुजरात में वैश्य जाति के कुलों में प्राय: दोनों धर्मों के अनुयायी थे। शैवों और जैनों की कोई अलग-अलग समाज रचना नहीं थी। सामाजिक विधी-विधान सब ब्राह्मणों के द्वारा ही मान्य नियमानुसार संपन्न होते थे। शैव कुटुंबों की कुलदेवी एक ही थी, उनका पूजन-अर्चन दोनों कुटुंब वाले कुल, परंपरानुसार एक ही विधि से करते थे। सामाजिक दृष्टि से दोनों में अभेद ही था, सिर्फ धर्म भावना और उपास्यदेव की दृष्टी से थोड़ा भेद था। शैव और जैन दोनों मुख्य रूप से गुजरात के प्रजाधर्म थे, फिर भी सामान्य रूप से राजधर्म शैव ही माना जाता था और गुजरात के राजाओं के उपास्यदेव शिव ही थे। कई बार राज कुटुंबों में से भी कोई जैन धर्म के अनुसार संन्यास दीक्षा ग्रहण करता था, अनेक राजपुत्र जैन आचार्यों के पास शिक्षा ग्रहण करते थे। सुजानकंवर का इतिहास भी इसी बात की पुष्टि करता है। कहने की आवश्यकता नहीं कि उस समय मारवाड़, मालवा आदि सारे प्रदेश गुजरात राज्य के अंतर्गत थे, या उससे प्रभावित थे।
श्री शिवकरण जी ने बड़वा जागाजी की बहियों पर वर्षों तक शोध कर उन माहेश्वरी बंधुओं के नाम पर भी प्रकाश डाला है, जिन्होंने जैन धर्म स्वीकार किया और जैन धर्म को मानने वाली मुख्य जाति ओसवाल में मिले, जैसे कि
रतनपुर के राजा के दीवान माल्हदेवजी भामुजी के खचांजी थे। श्री बलाशाह राठी फौज को मोदीपा देते थे। श्री माल्हदेवजी के लड़कों को अंधगी की बीमारी हो गई, श्री जिनदत्त सुरिजी ने ठीक किया, तब उन्होंने जैन धर्म स्वीकार किया, उनके साथ डागा, मूंदड़ा के कई परिवारों ने जैन धर्म स्वीकार किया। भामुजी का पारख मोराजी का छोरीया कहलाये। ५२ परिवारों ने जैन धर्म स्वीकार किया।
सिन्धु देश के मुलतान नगर में श्री धींगड़मल हाथी शाह माहेश्वरी राजा का दीवान था, उनका पुत्र लुणा था, जिसको सांप ने काटा था, उसे श्री जिनदत्त सूरीजी ने वापस जीवित किया, तब उन्होंने जैन धर्म स्वीकार किया, लुणा से लुणिया कहलाये।
श्री नाबाजी लढ्ढा माहेश्वरी का ब्रह्ममान सूरीजी ने उपदेश देकर जैन धर्म स्वीकार कराया, लढ्ढा से लोढा कहलाये।
श्री खेताजी बाहेती के लाला व भीमा नाम के पुत्र थे, ये दोनों नवाब लोदी रूस्तम के खजाने का काम करते थे, इन्होंने करोड़ों रुपयों के साथ सामान भी माहेश्वरी व ब्राह्मणों को बांट दिया। किसी ने नवाब से चुगली कर दी। नवाब ने अहमदाबाद में दोनों को गिरफ्तार कर लिया, किसी तरह से जेल के पहरेदारों की नजर बचाकर वे भाग गये। तपागच्छ की जाति ने इनको लूकाया (छिपाकर रखा)। जोधपुर और फलौदी में लूककर (छिप कर) रहे, और उन्होंने जैन धर्म स्वीकार किया।
नागौर के पास मुधाड़ा नगर मूंदड़ा का बसाया हुआ है, वहां पर मुंदल देवी का मंदीर बनाया गया, उनका पुत्र गायब हो गया था। देवालजी जैन संत ने वापिस लाकर दिया, देवी ने ‘नाहर’ का रूप बना रखा था, इसलिए जैन धर्म स्वीकार किया व ‘नाहर’ कहलाये।
विक्रम संवत ११७६ में श्री वल्लभ सूरीजी मदोदर नगर में पधारे, वहां के राजा नानद परिहार के संतान नहीं थी, एक जैन आचार्य ने पुत्र वरदान दिया, पुत्र हुआ और जैन धर्म स्वीकार किया, उस समय कुछ माहेश्वरी व ब्राह्मणों ने भी जैन धर्म स्वीकार किया था।
श्री डीडाजी मोहता ने सिरोही में जैन धर्म स्वीकार किया।
सं.१०१६ में छोहरिया तातेड़ जाति लढ्ढा माहेश्वरी से बनी। सं.४४४ से बीरणी मेढा जाति मूंदड़ा माहेश्वरी से बनी। सं.१०२२ में शाह लछमणजी माहेश्वरी मूंदड़ा, जिसके सुडाणी गुरू के प्रताप से पुत्र हुआ, नाहेरी चुंगी जैन धर्म स्वीकार किया और ‘नाहर’ कहलाये।
अहिंसा के अनन्य उपासक होने का गौरव पाने के बावजूद जैन समाज असि (तलवार), मसि (कलम-दवात) कृषि को अपनाये रहा, किन्तु माहेश्वरी समाज ने असि एवं कृषि छोड़कर मात्र कलम-तराजू और वैश्य कर्म को समग्रभाव से उजागर किया, इसी कारण व्यावसायिक जगत में माहेश्वरी समाज को अहंस्थान प्राप्त है।
माहेश्वरी समाज की जाति के अग्रदूत तपोधन श्री कृष्णदास जी जाजू के शब्दों में-
‘यथार्थ बात क्या है? यह तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन राजपूताने की जितनी वैश्य जातियां हैं, वे मूल स्त्रोत में क्षत्रिय थीं, हमारे पूर्वज भी राजपूत थे फिर वैश्य हुए। संभव है उस समय बौद्ध धर्म और जैन धर्म का प्रभाव पड़ा हो, पर यह बात निश्चित है कि वैश्य कर्म स्वीकार किया और इस प्रकार यह परिवर्तन हुआ, जैसी भी घटना घटी हो, लेकिन माहेश्वरी के पूर्वजों का वैश्य कर्म स्वीकार करना बहुत हिम्मत का काम था, जहां हम छोटी-छोटी बातों में परिवर्तन करने से घबराते हैं, वहां एक वर्ण को छोड़कर दूसरे वर्ण को ग्रहण करना कितना कठिन कार्य था, यह सहज ही समझा जा सकता है? जागाजी अंबालाल मोतीराम झड़ोल निवासी की बहियां यह भी बताती हैं कि उसके बाद भी समय-समय पर बहुत सी क्षत्रिय जातियां आकर माहेश्वरी समाज में मिली हैं और इस तरह माहेश्वरी समाज ने समय को पहचान कर सबको अपने में शामिल कर लिया, तथा समय के साथ चलने में शक्ति लगायी, इसी कारण कहा जा सकता है कि एक समय माहेश्वरी समाज के साथ रहा, क्योंकि माहेश्वरी मौलिक हैं, स्वयं सृजन है।
नवजागरण की प्रथम ज्योति
वैश्य महासभा सन् १८९२ में स्थापित हुई, उत्तर भारत में वैश्य समाज को एकसूत्र में संगठित करने का प्रयास किया गया, लेकिन वैश्य महासभा का एकाकी संगठन वैश्य समाज को, जो की अनेक जाति, उपजातियों में विभाजित है, प्रगति देने के लिए नाफाफी था, अत: विविध वैश्य उपजातियों में अपने पृथक संगठन बनाने की भावना पैदा हुई।
पुराने कागजात और इतिहास सामग्री से यह सिद्ध होता है कि सामाजिक जागृति की सर्वप्रथम माहेश्वरी समाज में सन् १८९२ में ज्योति प्रकट हुई, जबकि अजमेर में स्वनामधन्य रा.ब.श्यामसुंदर लाल जी लोईवाल, दीवान किशनगढ़ राज्य से सदुद्योगों के लिए ‘माहेश्वरी महासभा’ की स्थापना हुई।
भारत में माहेश्वरी समाज ही पहला संगठन है, जिसने बालविवाह का निषेध किया एवं इसके प्रस्ताव से प्रेरित होकर समाजसेवी दिवान बहादुर श्री हरि विलास जी शारदा (अजमेर) ने इस आशय का कानून केन्द्रीय असेम्बली में प्रस्तुत किया, जो ‘शारदा एक्ट’ के नाम से विख्यात है। श्री हरि विलास जी शारदा एवं उनका परिवार का प्रारंभ से ही माहेश्वरी महासभा से संबंध रहा है।
माहेश्वरी महासभा की स्थापना
माहेश्वरी महासभा का संगठन सन् १९०० ई. में शिथिल हो गया और उसके अधिवेशनों की श्रृंखला टूट गई, लेकिन इस संस्था ने समाज में जन जागृति की जो ज्योति प्रदीप्त की, वह जगमगाती रही। जगह-जगह सभाओं और पंचायतों ने समाज सुधार का किया, जो भी स्थानीय संगठन थे, उनसे सारे देश के माहेश्वरियों को एकसुत्र में संगठित नहीं किया जा सकता था। समाज के देशव्यापी संगठन के लिए राष्ट्रीय संस्था खड़ी की जाये ऐसा माहेश्वरी सुधिजनों ने विचार किया। सेठ रामनारायणजी राठी, सेठ दामोदर दास जी राठी, तपोधन श्रीकृष्णदास जी जाजू ने अमरावती में सेठ गणेशदास जी राठी के सहयोग से वि.स.१९६४ अर्थात् सन् १९०८ में ‘माहेश्वरी महासभा’ की स्थापना की।
अमरावती अधिवेशन में कन्या विक्रय, औसर-मौसर, अश्लील गान, वेश्या नृत्य आदि कुप्रथाओं पर प्रबल प्रहार करते हुए, सामाजिक सुधारों की दिशा में आगे बढ़ने का श्री गणेश हुआ। माहेश्वरी बंधुओं ने समाज के कल्याण की ओर ध्यान देना प्रारंभ किया और जगह-जगह कुरीतियों के खिलाफ आवाज उठने लगी।
शिक्षा कोष, शिक्षा ट्रस्ट एवं शिक्षा केन्द्र का प्रारंभ
माहेश्वरी महासभा का द्वितीय अधिवेशन सन् १९१२ में ‘नागपूर’ में हुआ, इस अधिवेशन में ब्यावर निवासी देशभक्त सेठ दामोदरदासजी राठी के प्रयत्न से ‘शिक्षाकोष’ की स्थापना हुई।
सामाजिक कुरीतियों का निषेध करने के साथ-साथ शिक्षा संबंधी कार्य करने की दृष्टि से विचार करने एवं तदनुरूप संगठन करने हेतु कमेटियां भी गठित हुईं।
नागपूर महासभा के अवसर पर उपस्थित पोकरण फलौदी के पंचों ने महासभा के नियमानुसार न्यात के ठहराव करवाये। महासभा के नागपूर अधिवेशन के अध्यक्ष ने केवल उन्हें प्रोत्साहित ही नहीं किया, वरन् उनके काम को आगे बढ़ाने में हेतु उपेक्षित सहयोग देने की घोषणा भी की जिससे प्रथम शिक्षा ट्रस्ट स्थापित हुआ, इस ट्रस्ट ने भी कुछ समय तक पोकरण में शिक्षा प्रचार का काम किया, इसी अधिवेशन की प्रेरणा से मारवाड़ी शिक्षा मंडल, वर्धा की स्थापना हुई।
इस प्रकार महासभा के द्वितीय अधिवेशन में प्रथम शिक्षा कोष, प्रथम ट्रस्ट और प्रथम विद्यालय की रूपरेखा स्पष्ट हुई जिससे बालक-बालिकाओं को शिक्षण देने और उनमें धार्मिक, नैतिक और गृहकार्य संबंधी शिक्षा पाने की भावना जगाने का कार्य हुआ। जगह-जगह पंचायतें कायम हुईं, रीति-रिवाज निश्चित हुए। सामाजिक सुधार के लिए धन संग्रह करने और उसकी व्यवस्था करने की दृष्टि से कमेटियां बनीं, इसके साथ ही औसर संबंधी नियम समान रूप से लागू करने की बात ध्यान में आई और यही द्वितीय महासभा अधिवेशन की सफल फलश्रुति रही।
‘माहेश्वरी महासभा’ के नागपुर अधिवेशन के पश्चात् १९१३ में श्री भागीरथदासजी भूतड़ा आदि के प्रयत्नों से अलीगढ़ में श्री जैसलमेरी माहेश्वरी महासभा स्थापित हुई। १९१४ में इस सभा ने अपना नाम ‘माहेश्वरी सभा’ रख दिया और १९१५ में श्री माहेश्वरी महासभा। मेरठ अधिवेशन में इसके प्रतिनिधियों ने बीकानेरी, जैसलमेरी, पोकरणी, फलौदी आदि देशवासी माहेश्वरियों में विवाह संबंध खोलने की मांग की। १९१६ में संपन्न अधिवेशन में इस महासभा का कार्यालय अलीगढ़ से दिल्ली ले जाने एवं कार्यक्षेत्र को व्यापक करने का निर्णय हुआ।
रोटी-बेटी के व्यवहार में उदारता बरतने की सिफारिश
उधर पूर्वागत माहेश्वरी महासभा का तीसरा अधिवेशन १९१७ में ‘पाली’ में हुआ, जिसमें गुजरात के माहेश्वरी समाज की ओर से सीधा प्रश्न रखा गया कि सैकड़ों वर्षों से मारवाड़ से सम्पर्क न रहने के कारण जो पारस्परिक व्यवहार नहीं रहा है, उसे प्रारंभ किया जाए और पारस्परिक परिचय बढ़ाया जाये? बिना परिचय बढ़े रोटी-बेटी का संबंध वैâसे हो? ‘पाली’ अधिवेशन में पहली बार महासभा की कार्यकारिणी समिति का चुनाव हुआ तथा उसका नाम ‘माहेश्वरी मण्डल’ कर दिया गया।
‘अलीगढ़’ में गठित महासभा का अधिवेशन १९२० को ‘कोलकत्ता’ में हुआ, उसमें उपस्थिति बहुत कम रही, तब माहेश्वरी समाज में यह चर्चा उठी कि समाज में दो सभाओं की आवश्यकता क्या है, दोनों सम्मिलित हो जानी चाहिए। ‘माहेश्वरी महासभा’ ने भी इस पर ध्यान दिया। तपोधन श्री कृष्णदासजी जाजू ने श्री माहेश्वरी महासभा अध्यक्ष को विस्तृत पत्र लिखकर एकीकरण की भूमिका बनाई, जिसे ‘श्री माहेश्वरी महासभा’ ने अपने अलवर अधिवेशन में स्वीकार कर लिया गया।
राष्ट्रीय आंदोलन का सक्रिय समर्थन
‘माहेश्वरी महासभा’ का चतुर्थ अधिवेशन १९२१ को ‘अकोला’ में हुआ। वहां सर्वसम्मत प्रस्ताव द्वारा महासभाओं के सम्मिलित होने की घोषणा कर दी गई, वहीं पहली बार ‘माहेश्वरी महासभा’ के उद्देश्य एवं नियम सामने आये। ‘अकोला’ अधिवेशन में सामाजिक, राष्ट्रीय एवं सांस्कृतिक विषयों की चर्चा हुई और निम्न प्रस्ताव पारित हुए:-
महात्मा गांधी के नेतृत्व में चल रहे स्वाधीनता आंदोलन को सक्रिय समर्थन दिया जाए और असहयोग कार्यक्रमों में शामिल हुआ जाए।
स्वदेशी वस्तुएं ही उपयोग में ली जाएं।
गौरक्षण एवं गोवर्धन के कार्य की अनदेखी न की जाये।
देशी राज्यों में उत्तरदायी शासन प्रणाली प्रारंभ की जाये।
राष्ट्रभाषा हिन्दी तथा मातृभाषा मारवाड़ी का प्रचार किया जाये।
संगीत, कला के क्षेत्र में परिष्कृत रूचि को प्रोत्साहन दिया जाये।
महासभा का ५ वॉ अधिवेशन १९२२ को:
महासभा का पांचवां अधिवेशन १९२२ को ‘कलकत्ता’ में हुआ, तब आम राय से इस संस्था का नाम ‘अखिल भारतवर्षीय माहेश्वरी महासभा’ कर दिया गया।
कलकत्ता अधिवेशन व्ाâे बाद महासभा का विशेष कार्य कलकत्ता से ही होने लगा और इसके संगठन ने व्यापक तथा व्यवस्थित रूप ले लिया।
सत्याग्रह में भाग लेने वालों का प्रोत्साहन
महासभा का कार्य जैसे-जैसे बढ़ता गया और स्थान-स्थान पर इसके प्रस्तावों के परिप्रेक्ष्य में चर्चा वार्ताएं, सभा-संगोष्ठियां हुईं, वैसे-वैसे माहेश्वरी समाज में एकता और जागृति की लहर बढ़ती गई, समाज ने न केवल सामाजिक बुराईयों के खिलाफ संघर्ष प्रारंभ किया, वरन राष्ट्रीय आंदोलन में सक्रिय साथ देना शुरू कर दिया। आम आदमी के लिए भी इस समाज ने यह स्पष्ट किया कि वह जहां रहता है, वहीं रहकर रचनात्मक काम करे। वस्त्र की कमी की संभावना को देखते हुए महासभा ने एक ओर जहां विदेशी कपड़ों के बहिष्कार की अपील की, वहीं मील के कपड़े की अपर्याप्तता को मद्देनजर रखते हुए चरखा कातने और ग्रामोद्योगी वस्तुएं इस्तेमाल करने का भी आग्रह रखा, इन सारी बातों में महासभा का राष्ट्रीय स्वरूप पूरी तरह उजागर हुआ, समाज के सभी वर्गों ने उसका अभिनंदन किया और तन-मन-धन से स्वीकृत प्रस्तावों के अनुरूप कार्य करने में कृतार्थता मानी।
स्वतंत्रता संग्राम के बीच महासभा का छठा अधिवेशन १९२३ में इन्दौर में हुआ, वहां खुली अपील की गई कि माहेश्वरी बंधु सत्याग्रह आंदोलन में भाग लेने हेतु त्याग एवं वीरता की भावना के साथ आगे बढ़ें और लोकमान्य तिलक के शब्दों में ‘जन्म सिद्ध अधिकार स्वराज्य’ को प्राप्त करने में आजादी की भावना का साथ दें।
वाणिज्य उद्योग कम्पनी धंधों की ओर झुकाव
माहेश्वरी समाज खण्डेला के राजा खड़गलसेन के पुत्र सुजानकंवर एवं उनके उमरावों द्वारा कृपाण त्याग कर तराजू हाथ में लेने जैसी घटना से ऐतिहासिक मोड़ ले चुका था, उनके साथ चौहान, पंवार, कछवाहा, पड़िहार आदि क्षत्रिय जातियां अपने आप में माहेश्वरी वैश्यों में शामिल कर चुकी थी और इस तरह लगातार शामिल होने वाले समानधर्मी भाई वैश्य कर्म को नये-नये आयाम देते हुए आगे बढ़ रहे थे। परंपरा के अनुरूप कोलवार भी अपने को माहेश्वरी कहने लगे, अत: महासभा का सप्तम अधिवेशन १९२४ बम्बई में हुआ, जहाँ यह प्रश्न खड़ा हुआ कि कोलवारों को माहेश्वरी माना जाये कि नहीं? जागाजी अंबालाल मोतीराम (कस्तूरचंद शंकरलालजी) की बहियों से छ: माह तक खोजबीन करवाई गई कि कोलवार माहेश्वरी हैं या नहीं, उनके साथ रोटी-बेटी का संबंध हो या नहीं? पक्ष-विपक्ष में तरह-तरह की दलीलें आयीं। अधिवेशन का वातावारण अशांत बना। पंचायत पक्ष ने सामाजिक बहिष्कार का उपयोग कर मत स्वातंत्र को दबाने की चेष्टा की, उससे मतभेदों की तीव्रता बढ़ी। फलत: अधिवेशन बीच में ही समाप्त कर देना पड़ा, लेकिन समाप्ति से पूर्व हमारे पूर्वजों ने बड़े-बड़े कार्य किये। कोलवार प्रकरण में हमारे समाज की फिर परीक्षा हुई प्रश्न था कि कोलवार माहेश्वरी हैं या नहीं? महासभा ने तब निर्भीकता का परिचय देते हुए मान लिया कि ‘कोलवार’ माहेश्वरी हैं। महासभा भले ही सुधार मार्ग पर दौड़कर अग्रसर न हुई हो, पर आगे कदम रखकर पीछे नहीं मुड़ी।
अन्तर्जातीय संबंध खुले
अखिल भारतवर्षीय माहेश्वरी महासभा का तेरहवां अधिवेशन सूरत में १९४० को हुआ। उपस्थिति एवं प्रगतिशील विचारों की दृष्टि से यह बहुत ही सफल रहा। देश के कोने-कोने से माहेश्वरी बंधु इस अधिवेशन में सम्मिलित होने पहुंचे और समाज के अलग-अलग समुदायों के मिलन रूपी भागीरथी में अवगाहन करके वे कृतार्थ हुए, इस अधिवेशन के अध्यक्ष जी ने भारत की देशी रियासतों के निरंकुश शासन की आलोचना करते हुए कहा कि आज यहां की प्रजा अपने राजनीतिक अधिकारों के लिए संघर्ष कर रही है। देशी राज्यों की प्रजा अब जाग उठी है और वह अधिक समय तक आगे निरंकुश शासन प्रणाली बर्दाश्त करना नहीं चाहती। देशी राज्यों में जारी आंदोलन को हमारे समाज ने काफी सहयोग दिया है। हमारी महासभा ने आज तक कांग्रेस के आदर्शों और सिद्धांतों के अनुरूप कार्य किया है। वह भी मानी हुई बात है कि राष्ट्र की स्वतंत्रता एवं सम्मान की रक्षा के लिए कांग्रेस जो नीति निश्चित करेगी, माहेश्वरी महासभा और माहेश्वरी समाज अन्य समाजों की तरह उस पर श्रद्धापूर्वक अमल करेगा, हमारा यह निश्चित मत है कि जहां राष्ट्रहित की रक्षा और सम्मान का प्रश्न उपस्थित हो, वहां हमें अपने जातिहित को छोड़कर राष्ट्रहित की रक्षा करनी चाहिए।
इस अधिवेशन में राष्ट्रोन्नति के कार्य में जुटने, बेकारी दूर करने हेतु ‘अखिल भारतीय चरखा संघ’ द्वारा प्रमाणित खादी अपनाने और यथाशक्ति ग्रामोद्योग वस्तुओं का उपयोग करने से संबंधित प्रस्ताव हुए, इनमें सबसे अधिक आकर्षित करने वाला प्रस्ताव यह हुआ कि जैसलमेरी, पोकरणी, बीकानेरी, कोलवार, नागौरी, गुजराती, कच्छी, सिंधी आदि समुदायों में आपस में विवाह संबंध करने में किसी प्रकार की आपत्ति न समझी जाये, साथ ही महासभा ने माहेश्वरी भाइयों से प्रार्थना की कि वे भिन्न-भिन्न समुदायों में पारस्परिक विवाह संबंध की संकीर्णता नष्ट करने में सहयोगी बनें।
देश की संकटपूर्ण स्थिति में स्वस्थ सहयोग
‘सूरत’ अधिवेशन के बाद देश की राजनीतिक स्थिति बहुत ज्यादा उथल-पुथल वाली रही। १९४१ में महात्मा गांधी ने व्यक्तिगत सत्याग्रह आरंभ किया था, जिसमें ाfद्वतीय महायुद्ध तथा अंग्रेज सरकार विरोधी प्रचार करते हुए कार्यकर्ता बड़ी संख्या में गिरफ्तारियां दे रहे थे। ८ अगस्त १९४२ को महात्मा गांधी ने ‘भारत छोड़ो’ का नारा दिया और जनता से अनुरोध किया कि अंग्रेजी शासन की दासता का अंत करने हेतु आगे आयें। आंदोलन के समाचार बिजली की तरह सारे देश में पैâल गये। अंग्रेज सरकार ने राष्ट्र के सभी प्रमुख नेताओं को गिरफ्तार कर लिये। धूत जी की अनुपस्थिति में तपोधन जाजू जी को अध्यक्ष का स्थान ग्रहण करने की प्रार्थना की गई, किन्तु वे भी ९ सितंबर को गिरफ्तार कर कृष्ण मंदिर भेज दिये गये। जाजू जी के बाद श्री ब्रज वल्लभदास जी मूंदड़ा ने महासभा के सभापतित्व का भार वहन किया, उनकी कार्यवधि में १९४६ में चौदहवां ‘ग्वालियर’ अधिवेशन आयोजित हुआ।
अधिवेशन में सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक प्रस्ताव स्वीकृत हुए। प्रस्तावों में जो भावना व्यक्त हुई, वह इस प्रकार है:
महासभा अंग्रेज सरकार की दमन नीति की निंदा करती है।
ब्रिटीश सरकार से स्वराज्य प्राप्ति के संबंध में कांग्रेस द्वारा होने वाली समझौता वार्ता का महासभा सम्मान करती है, साथ ही यह भी चेतावनी देना चाहती है कि पाकिस्तान की मांग कदापि स्वीकृत न की जाये।
अन्न की कमी के कारण हो रहे ‘काला बाजार‘ को देखकर महासभा ने चिंता व्यक्त की और समाज के बंधुओं से अनुरोध किया कि वे काला बाजार की प्रवृत्ति से बचें तथा बदली हुई परिस्थिति में अपने राष्ट्रीय कर्तव्य का दृढ़ता से पालन करें, ताकि संकटपूर्ण खाद्य स्थिति को सुधारने में सहयोग हो सके।
महासभा ने समाज से व्यापार के आधुनिक तरीकों और साधनों को अपनाने का आग्रह किया।
बढ़ती हुई ‘वर विक्रय’ की प्रथा पर चिंता व्यक्त करते हुए इस निंदनीय कार्य को छोड़ने का, अभिभावकों से अनुरोध किया गया और समाज के अविवाहित युवकों से अपील की गयी कि वे इस प्रकार के अवांछनीय और लांछनप्रद कृत्य में सहयोग ना दें।
सिंध में वहां के शासकों के अत्याचार से पीड़ित सिंधी समाज के प्रति माहेश्वरी भाइयों ने अपनी सहानुभूति प्रकट की।
स्वर्ण जयंती के रूप में आयोजित ग्वालियर अधिवेशन में इस बात पर गहराई से विचार हुआ कि जहां पहले महासभा को कन्या विक्रय का विरोध करना पड़ रहा था, वहां अब ‘वर विक्रय’ की समस्या सामने आ गई है। प्रतिनिधियों ने इसी कारण चिंता व्यक्त की कि समाज में दहेज के कारण कन्याओं के लिए सुयोग्य वर मिलने कठिन हो गये हैं, अधिवेशन में सर्वसम्मति से यह मान्य किया गया कि समाज को ‘वर विक्रय’ का खुला विरोध करना चाहिए। महासभा ने देश के नेताओं को भी सचेत किया कि वे भारत का विभाजन न होने दें।
नवनिर्माण का संकल्प
१५ अगस्त १९४७ को ‘भारत’ आजाद हो गया। आजादी का आनंद करोड़ों देशवासियों के लिए बहुत सुखकर नहीं रहा, क्योंकि देश विभाजित हो गया और हिन्दुस्तान-पाकिस्तान के नाम पर होने वाले हिन्दू-मुस्लिम दंगों ने शांतिप्रिय नागरिकों का सुख-चैन छीन लिया। देश की सारी शक्ति साम्प्रदायिक उपद्रवों को शांत करने तथा उजड़ कर आये परिवारों को बसाने में लगी। स्वयंसेवी संस्थाएं भी अलग-अलग होने वाले कार्यक्रम छोड़कर पुर्नवास के काम में सहयोगी बनी, ऐसे हालत में महासभा के अधिवेशन टलते गये, ठीक १५ वर्ष बाद १९६१ में महासभा का पन्द्रहवां अधिवेशन ‘दिल्ली’ में हुआ, अधिवेशन में शरीक होने के लिए ‘इन्दौर’ से नवयुवकों की टोली साइकिल यात्रा कर गांव-गांव में माहेश्वरी भाइयों को आमंत्रित करती हुई दिल्ली पहुंची, जिसका बहुत अच्छा परिणाम निकला, जगह-जगह से नये चेहरे, नया उत्साह और नया संकल्प लिए अधिवेशन में भाग लेने लोग ‘दिल्ली’ पहुंचे। दो हजार से अधिक प्रतिनिधियों एवं एक हजार से अधिक दर्शकों की उपस्थिति में यह अधिवेशन ‘दिल्ली’ के रामलीला मैदान में हुआ, जिसमें नवनिर्माण का संकल्प ध्वनित हुआ।
अध्यक्षजी ने सबकी भावनाओं को अभिव्यक्ति देते हुए कहा कि प्राचीन भारत में चातुरवर्ण्य व्यवस्था थी, उसके शिथिल हो जाने से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों के स्थान पर हजारों जातियां, उपजातियां हो गयी थी। जातिवादी संकीणर्ता के चलते राष्ट्रीय एवं मानववादी आस्थाओं को आघात पहुंचा तथा आपसी मतभेद बढ़े, इसलिए नवनिर्माण का तकाजा है कि हम गुणों पर आश्रित जाति व्यवस्था को मान्य करें, जिससे देश एकसूत्र में संगठित रह सके।
आजाद भारत के नागरिकों की मानसिक दुर्बलताओं की ओर इंगित करते हुए अध्यक्षजी ने कहा कि आत्मविश्वास और स्वावलम्बन की भावना छोड़ने की वजह से हम प्रत्येक कार्य में अपने से भिन्न ईश्वर, देवी-देवता, भूत-प्रेत, ग्रह-नक्षत्र आदि अदृश्य कल्पित शक्तियों का आश्रय लेने लगे हैं जो कि ठीक नहीं है। अंधविश्वास तथा सामाजिक रूढ़ियों का परित्याग किये बिना स्वाधीन देश में हम नवनिर्माण की आधार शिला नहीं रख पायेंगे। अध्यक्षजी ने सामाजिक सुधारों के लिए महासभा द्वारा किये जा रहे प्रयत्नों की चर्चा करते हुए दहेज की कुप्रथा पर प्रकाश डाला और कहा कि युवक दहेज को जहर का प्याला समझें और जहां दहेज मांगा जाता हो, वहां कन्याएं अपना विवाह करने से इंकार कर दें।
जाजू ट्रस्ट की महत्वपूर्ण योजना का भरपूर स्वागत हुआ, इसके लिए अपेक्षित राशि तत्काल मिल गयी, कार्य के अनुरूप और राशी मिलते जाने से इस ट्रस्ट ने अनेक उल्लेखनीय कार्य किये जो कि आज भी कर रहा है, यह ट्रस्ट एक प्रकार का शुद्ध सामाजिक कोष है। दिल्ली अधिवेशन में लघु उद्योगों के प्रचार के लिए महासभा ने ‘औद्योगिक ब्यूरो की स्थापना’ का भी निश्चय किया, इस प्रकार निश्चयात्मक भूमिका में दिल्ली अधिवेशन की कार्यवाही नवनिर्माण का संकल्प क्रियान्वित करने की सफल संयोजना के साथ सम्पन्न हुई।
व्यावसायिक क्षेत्र में आगे बढ़ने का अभियान
महासभा का १६ वां अधिवेशन १९६७ को बीकानेर में हुआ, इस अवसर पर अधिवेशन स्थल पर पहली बार लघु औद्योगिक प्रदर्शनी लगायी गयी, प्रदर्शनी का उद्घाटन करते हुए राजस्थान के तत्कालीन उद्योग मंत्री ने माहेश्वरी समाज के उद्योगपतियों से अनुरोध किया कि वे राजस्थान में अपने उद्योग-धंधे स्थापित करें, सरकार उन्हें सब प्रकार की सुविधाएं प्रदान करेगी।
बीकानेर अधिवेशन में समाज के बंधुओं से अपना रहन-सहन सादा और आडम्बररहित रखने तथा अपने वैभव का प्रदर्शन न करने की अपील की, साथ ही यह भी अनुरोध किया कि वे अन्य प्रदेशों की भांति राजस्थान में भी अपने उद्योग धंधे स्थापित करें।
जातीय संगठनों में रूचि लेने वालों की कमी होती देखकर अध्यक्ष महोदय ने युवकों से आग्रह किया कि वे इन संगठनों में सक्रिय हिस्सा लें, अपने इस बात का खंडन किया कि जातीय संगठन राष्ट्रीय प्रगति के लिए उपयोगी नहीं है। राष्ट्र की बहुमुखी प्रगति को न्याय देने के लिए जरूरी है कि प्राथमिक इकाई के रूप में जातीय संगठनों को प्रभावी बनाया जाए, उनका उद्देश्य संकीर्ण हितों की रक्षा करना नहीं, वरन् राष्ट्र के हित में कार्य करना है। महासभा ने दहेज दिखावा आदि के विरोध में निम्नलिखित प्रस्ताव पारित किया:
‘समाज में विवाह संबंधों के अवसर पर किए जाने वाले ठहरावों के विभिन्न रुपों को महासभा सदा हीन दृष्टि से देखती आई है और इनमें आमूल-चूल परिवर्तन करने हेतु प्रयत्नशील है। माहेश्वरी महासभा का अधिवेशन समाज को पुन: सावधान करता है कि वह ठहराव और विवाह के समय किए जाने वाले दहेज के आदान-प्रदान तथा प्रदर्शन का तुरंत अंत करे, ताकि सभी वर्ग के लोगों को विवाह जैसा आनंदमयी प्रसंग भारस्वरूप न मालूम हो।’
बीकानेर अधिवेशन ने एक प्रस्ताव द्वारा बाल विवाह प्रतिबंधक कानून-शारदा एक्ट के प्रणेता स्व.दीवान बहादुर हरविलास जी शारदा की जन्म शताब्दी ३ जून १९६८ को मनाने का निश्चय किया, इसी प्रकार महासभा की नियमावली के संशोधित प्रारूप को स्वीकृत और क्रियान्वित करने का अधिकार भी कार्यकारी मंडल को दिया।
सर्वांगीण विकास के लिए पंचसूत्री कार्यक्रम
महासभा का सत्रहवां अधिवेशन सन् १९७२ में कलकत्ता में हुआ, इस अधिवेशन में गंभीर विचार चर्चा के पश्चाात् समाज के सर्वांगीण विकास के लिए पंचसूत्री कार्यक्रम प्रस्तुत हुआ, जिसमें निम्नलिखित विषयों का
समावेश है-
सामाजिक नियम तथा आचरण
महासभा के संगठन का विस्तार
आर्थिक मार्गदर्शन और कार्यक्रम
शैक्षणिक दिशाएं एवं कार्य
सांस्कृतिक मार्गदर्शन
कलकत्ता अधिवेशन मुख्यत: समाज को क्रियाशील बनाने की दृष्टि से बहुत ही प्रभावशाली रहा। प्रतिनिधियों ने स्थान-स्थान पर स्थानीय संस्थाएं खड़ी करने, प्रांतीय क्षेत्रीय कार्यकर्ता सम्मेलन करने, प्रशिक्षण सत्र चलाने आदि की प्रेरणा प्राप्त की। सबको यह एहसास हुआ कि धनाभाव के कारण समाज की एक भी लड़की शिक्षा से वंचित क्यों रहे? हर लड़की कम से कम मैट्रिक व लड़का ग्रेजुएशन तक की शिक्षा अवश्य प्राप्त करे। समाज के लोगों ने भी महसूस किया कि वे विविध शिल्प, कला और उद्योग का प्रशिक्षण प्राप्त कर न केवल स्वयं स्वावलंबी बनें, वरन् दूसरों को भी स्वावलंबी बनाने में सहभागी रहें। शारिरिक श्रम पर आधारित व्यवसाय, रोजगार या नौकरी को हीन दृष्टि से न देखें, इसके अलावा साहित्य, खेलकूद, अभिनय, नाटक, लेखन, वाद-विवाद प्रतियोगिता और कला आदि क्षेत्र में भी सबको आगे बढ़ाने का संबल मिला। कलकत्ता अधिवेशन में एक और महत्वपूर्ण अध्याय शुरू हुआ, जिसके अनुसार समाज के वयोवृद्ध लोगों को अभिनंदित किया गया। बड़े बुजुर्गों के प्रति आदरभाव रखने की यह परिपाटी सभी लोगों ने पसंद की।
कलकत्ता अधिवेशन ऐसे समय में हुआ, जब राजस्थान व गुजरात में सूखा के कष्टों से जनता त्रस्त थी, इसी कारण विशेष अपील कर माहेश्वरी बंधुओं से आग्रह किया गया कि वे सूखाग्रस्त क्षेत्रों की जनता की सहायता करें व मूल्यों को न बढ़ने दें। अपनी सर्वतोमुखी प्रगति व विकास के लिए स्नेहसूत्र में सबको आबद्ध करने की व्यावहारिक योजना पाकर सबने महसूस किया कि वे अपनत्व अभिवृद्धि करेंगे और समाज के समाधान के अनुरूप आचरण करेंगे, ताकि उनके व्यवहार से अन्य लोग भी प्रेरणा प्राप्त कर सकें। कहने की आवश्यकता नहीं कि इस अधिवेशन से प्रांतीय सभाओं को बल मिला और जगह-जगह बढ़-चढ़कर नवनिर्माण का कार्य किया जाने लगा।
नया मोड़
महासभा का १८ वां अधिवेशन सन् १९७३ को में नागपुर में आयोजित हुआ, सम्मेलन में भाग लेने लगभग ५००० प्रितनिधि पहुंचे। सम्मेलन स्थल पर औद्योगिक प्रदर्शनी लगायी गयी, इस प्रदर्शनी में लगभग ७०-७५ औद्योगीक प्रतिष्ठानों ने अपने विविध उत्पादनों का प्रदर्शन कर समाज के लोगों को उद्योग क्षेत्र में आगे बढ़ने की प्रेरणा दी, प्रदर्शनी का उद्घाटन करते हुए महाराष्ट्र के तत्कालीन उद्योग मंत्री ने माहेश्वरी समाज के उद्योगपतियों से अनुरोध किया कि वे महाराष्ट्र में औद्योगिक प्रतिष्ठान खड़े करें, वैसे प्रतिष्ठानों को महाराष्ट्र सरकार की ओर से हरसंभव सुविधाएं उपलब्ध कराने का भी आश्वासन दिया गया। नागपूर अधिवेशन में महासभा के अंतर्गत महिला व युवा संगठनों को व्यवस्थित रूप दिया गया और कार्यकारी मंडल के सदस्यों की संख्या दो सौ से बढ़ाकर चार सौ कर दी गई। इस प्रकार जहां सारे देश में केन्द्रीयकरण की भावना के साथ कार्य करने का अखंड प्रवाह चल रहा था, वहां नागपुर अधिवेशन महासभा को नया मोड़ देने वाला सिद्ध हुआ और इससे न केवल बुजुर्ग वरन् युवक और महिलाएं भी संपूर्ण उत्तरदायित्व के साथ समाज की प्रगति के लिए मोर्चा संभालने की भावना से कटिबद्ध हुई और आज भी कर रही हैं।