सुर्यवंशी अग्रकुल प्रर्वतक महाराजा अग्रसेन
by Bijay Jain · Published · Updated
वर्तमान में जहाँ राजस्थान व हरियाणा राज्य हैं किसी समय इन राज्यों के बीच सरस्वती नदी बहती थी, इसी सरस्वती नदी के किनारे प्रतापनगर नामक एक राज्य था। भारतेन्दु हरिशचन्द्र के अनुसार-मांकिल ऋषि जिन्होंने वेद-मंत्र की रचनाएं की थी, की परम्पराओं में राजा धनपाल हुए। धनपाल ने प्रतापनगर राज्य बसाया था। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र द्वारा लिखित महालक्ष्मी व्रत कथा और गुरूकुल कांगडी विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ.सत्यकेतु विद्यालंकार द्वारा रचित ‘अग्रवाल जाति का प्राचीन इतिहास’ में छपा है कि राजा धनपाल की छठी पीढ़ी में महाराजा वल्लभ प्रतापनगर के शासक बने। महाराजा वल्लभ का काल महाभारत के काल के आसपास का माना जाता है।
महाराजा वल्लभ के घर अग्रसेन और शूरसेन नामक २ पुत्र हुए, युवा अवस्था में पहुंचने पर अग्रसेन प्रतापनगर की शासन व्यवस्था को देखते थे और शूरसेन सैन्य संगठन के कार्य को देखते थे, उनके राज्य में चारों और सुख-शांति थी। दोनों भाईयों में बहुत प्रेम था, अन्य राज्यों में उनके प्रेम के उदाहरण दिए जाते थे। अग्रसेन के जन्म के समय गर्ग ऋषि ने महाराजा वल्लभ से कहा था कि यह बहुत बड़ा राजा बनेगा, इनके राज्य में एक नई शासन व्यवस्था उदय होगी और हजारों-हजार वर्ष बाद भी इसका नाम अमर रहेगा।
माधवी स्वयंवर : अग्रसेन ने जब युवा अवस्था में प्रवेश किया तब नागलोक के राजा कुमुद के यहां से राजकुमारी माधवी के स्वयंवर का समाचार आया, महाराजा ने अपने दोनों पुत्रों अग्रसेन और शूरसेन को इस स्वयंवर में भाग लेने के लिए भेजा, इस स्वयंवर में भू-लोक के ही नहीं अपितु देवलोक से भी अनेक राजकुमार भाग लेने आए थे, इन्द्र भी उनमें से एक थे, राजकुमारी माधवी ने जब स्वयंवर भवन में प्रवेश किया तो उसकी रूप-राशी को देखकर इन्द्र स्तब्ध रह गए, इन्द्र ने देखा कि देवलोक की अप्सराएँ भी राजकुमारी माधवी के सामने कुछ भी नहीं है। स्वयंवर में आए राजाओं व राजकुमारों का राजकुमारी से परिचय समाप्त होने के पश्चात अग्रसेन के गले में स्वयंवर की माला डाल दी गई। नागराज कुमुद अति प्रसन्न हुए। महलों में संख ध्वनि हुई। स्वयंवर में आए राजाओं व राजकुमारों ने अपनी ओर से बधाई और शुभकामनाएँ दीं, किन्तु दूसरी ओर इन्द्र कुपित होकर स्वयंवर स्थान से उठकर चले गए, उन्हें लगा कि माधवी ने अग्रसेन का वरण कर उनका अपमान किया है। महाराजा वल्लभ को भी प्रतापनगर समाचार भेजा गया। महाराजा वल्लभ अति प्रसन्न मन से बारात लेकर नागलोक पहुँचे, इस विवाह से नाग एवं आर्य कुल का नया गठबंधन हुआ था।
देवलोक पहुँचकर इन्द्र ने मन ही मन अग्रसेन से राजकुमारी माधवी को प्राप्त करने का षड़यंत्र रचा, एक तरफ नागलोक में अग्रसेन और माधवी का विवाह हो रहा था, वहीं दूसरी ओर इन्द्र अपने अनुचरों से प्रतापनगर में वर्षा नहीं करने का आदेश दे रहे थे, इन्द्र का मानना था कि जब राज्य में वर्षा नहीं होगी तो सूखे से जनता में त्राहि-त्राहि मचेगी। महाराजा वल्लभ वर्षा का अनुष्ठान करेंगे तब उनके सामने माधवी को मुझे सौंपने की शर्त रख दूंगा।
इन्द्र से संघर्ष : प्रतापनगर में भयंकर अकाल पड़ा, वहां पर त्राहि-त्राहि मच गई, राजा वल्लभ को जब इन्द्र के षड़यंत्र का पता चला तो उन्होंने इन्द्र से संघर्ष करने का निर्णय लिया। अग्रसेन और शूरसेन ने अपने दिव्य शास्त्रों का संज्ञान कर प्रतापनगर को विपत्ति से बचाया। दिव्य अस्त्रों से वर्षा तो खूब हुई लेकिन समस्या का स्थायी समाधान नहीं था? अग्रसेन के मन में एक विचार पैदा हुआ कि मेरे कारण राज्य संकट में आ गया है, अत: मेरा यह धर्म बनता है कि मैं समस्या का स्थायी समाधान करूँ। अग्रसेन ने भगवान शंकर की आराधना करने के लिए वन में जाने का निश्चय कर लिया।
शंकर एवं महालक्ष्मी की आराधना : अग्रसेन ने अपनी भार्या माधवी से सारी बातें कहीं और यह भी कहा कि वह राज्य की सुख-शांति के लिए प्रतापनगर छोड़ेंगे। माधवी ने भी उनके साथ जाने का निश्चय सुनाया किन्तु अग्रसेन ने कहा कि मेरे कारण जो कष्ट राज्य में आया है उसे मैं ही दूर करूँगा। अग्रसेन के संकल्प की जानकारी जब राजा वल्लभ को हुई तो वह बहुत दु:खी हुए उन्होंने अग्रसेन को समझाया कि इस वृद्ध अवस्था में पिता को छोड़कर नहीं जाना चाहिए। अग्रसेन अपने संकल्प के धनी थे, उन्होंने पिता से अनुरोध किया कि छोटा भाई सूरसेन यहां है, वह आपके साथ राज्य के कार्य को देखेगा, माधवी माता-पिता की सेवा में यहीं रहेगी।
भगवान शंकर का नाम लेकर अग्रसेन ने प्रतापनगर से प्रस्थान किया। काशी पहँुचकर वहां पर उन्होंने भगवान शंकर की तपस्या की और उनका आह्वान किया। अग्रसेन की कठिन तपस्या को देखकर भगवान शंकर ने दर्शन दिए। भगवान शंकर ने अग्रसेन से कहा कि तुम्हें अपने राज्य की सुख-समृद्धि के लिए महालक्ष्मी को प्रसन्न करना होगा। महालक्ष्मी समृद्धि की देवी हैं, उनकी समृद्धि के समक्ष इन्द्र भी कुछ नहीं हैं, यह कहकर भगवान शंकर अन्तरध्यान हो गए।
अग्रसेन ने महालक्ष्मी को प्रसन्न करने के लिए तपस्या करने का निश्चय किया। महालक्ष्मी को प्रसन्न करने के लिए एक विशाल यज्ञ किया गया, जिसमें उन्होंने ब्राह्मणों को दान दिया और उसके पश्चात् वन में जाकर महालक्ष्मी जी की तपस्या आरम्भ की। महालक्ष्मी प्रसन्न न हो इसके लिए इन्द्र ने अग्रसेन की तपस्या में अन्ोक बाधाएँ उत्पन्न की किन्तु अग्रसेन तपस्या में लीन रहे। अनेक कठिनाईयां सहते हुए तपस्या जारी रखी। अग्रसेन की अटूट भक्ति को देखते हुए महालक्ष्मी प्रकट हुईं, उन्होंने अग्रसेन से कहा कि कुमार यह अवस्था तपस्या करने की नहीं है, इस उम्र में तो आपको त्याग के स्थान पर भोग करना चाहिए।
अग्रसेन माता महालक्ष्मी की अनुपम छवि देखकर अपलक निहारते रहे, उस अदभूत आभा के सामने अग्रसेन कुछ कहने की स्थिति में नहीं थे। महालक्ष्मी ने पुन: कहा, ‘हे राजकुमार! तुम्हारी कठिन साधना पूर्ण हुई, संकट के दिन बीत गए, वरदान मांगो’
अग्रसेन बोले ‘हे मातेश्वरी आप सारे संसार का कल्याण करने वाली हैं, आप परमशक्ति हैं, आपसे क्या छुपा हुआ है, आप शक्ति की प्रतीक हैं एवं भक्ति की दाता हैं, मैं आपको बार-बार नमन करता हूँ’
महालक्ष्मी बोली, ‘हे अग्रसेन! तुम यह कठिन तपस्या का मार्ग त्यागकर ग्रहस्थ धर्म में पुन: प्रवेश करो, इसी में तुम्हारा कल्याण है। मैं तुम्हें वरदान देती हूँ कि तुम्हारे सभी मनोरथ सिद्ध होंगे, तुम्हारे द्वारा सबका मंगल होगा।’
इस पर अग्रसेन बोले, ‘हे मातेश्वरी! मेरी समस्या यह है कि इन्द्र ने मेरे राज्य में वर्षा बंद कर अकाल की काली छाया से सबको दुखी कर रखा है’
महालक्ष्मी ने कहा, ‘इन्द्र को अमरत्व प्राप्त है, साथ ही साथ वह ईर्ष्यालु भी है। आर्य और नागवंश की संधि और राजकुमारी माधवी के सौन्दर्य ने उसको दु:खी कर दिया है, तुम्हें कूटनीति अपनानी होगी, कोलापुर के राजा ने अपनी पुत्री के लिए स्वयंवर रचा है, कोलापुर के राजा भी नागवंशी हैं, यदि तुम उनकी पुत्री का वरण कर लेते हो तो नागराज कुमुद के साथ-साथ कोलापुर नरेश की महीरथ शक्तियाँ भी तुम्हें प्राप्त हो जाएंगी, इन शक्तियों के समक्ष इन्द्र को तुम्हारे सामने आने के लिए अनेक बार सोचना पड़ेगा? तुम निडर होकर अपने नए राज्य की स्थापना करो, तुम्हारे राज्य में कोई भी दु:खी नहीं होगा, ‘यह कहकर महालक्ष्मी अन्तरध्यान हो गईं, अग्रसेन बार-बार उस पावन भूमि को प्रणाम करने लगे, जहाँ पर माता महालक्ष्मी के चरण-कमल पड़े थे, उसी समय महर्षि नारद प्रकट हुए। नारद को देख अग्रसेन ने प्रणाम किया। महालक्ष्मी द्वारा दिए वरदान से नारद को अवगत कराया और बोले, ‘हे महर्षि! माता महालक्ष्मी के आदेश को पालन करने में मेरा मार्ग दर्शन करें और कोलापुर की यात्रा के लिए मुझे भी अपने साथ ले चलें नारद ने अग्रसेन को साथ लेकर कोलापुर के लिए प्रस्थान किया।
सुन्दरावती स्वयंवर: अग्रसेन महर्षि नारद के साथ कोलापुर पहुँचे। कोलापुर में नागराज महीरथ का शासन था, उन्होंने देखा कोलापुर, इन्द्र की अल्कापुरी को भी मात दे रहा था। सम्पूर्ण कोलापुर नगरी राजकुमारी सुन्दरावती के स्वयंवर में आनेवाले अतिथियों के सम्मान में जुटी हुई थी। नागकुमारी की चर्चा जगह-जगह हो रही थी। नागरिक बातों ही बातों में उस व्यक्ति को भाग्यशाली बता रहे थे जिसको राजकुमारी सुंदरावती वरण करने वाली थी।
कोलापुर नगर के मध्य पहुंचने पर महर्षि नारद ने अग्रसेन से कहा कि अब आप अकेले ही रंगशाला में जाएँ। महर्षि को प्रणाम कर अग्रसेन स्वयंवर वाले स्थान पर पहुँचे, अग्रसेन ने वहाँ पर देखा कि भिन्न-भिन्न देशों के राजकुमार स्वयंवर में आए हुए हैं। वेष वदलकर अनेक गंधर्व व देवता भी राजकुमारी को वरण करने के लिए लालायित होकर इस स्वयंवर में भाग ले रहे थे। शूरसेन भी वहां विराजमान थे। अग्रसेन को देखते ही शूरसेन अपने आसन से खड़े हो गए, उन्होंने अपने अग्रज को प्रणाम कर बैठने के लिए स्थान दिया। अग्रसेन ने शूरसेन से महालक्ष्मी द्वारा दिए गए आशीर्वाद की चर्चा की और शूरसेन को इस बात के लिए आश्वस्त किया कि सुन्दरावती के साथ विवाह करने से माधवी के साथ कोई अन्याय नहीं होगा, मेरे लिए माधवी और सुन्दरावती दोनों ही बराबर रहेंगी। शूरसेन ने अपने अग्रज को कहा कि वे अब स्वयंवर में भाग नहीं लेंगे,
इसी बीच नागकन्या सुन्दरावती ने रंगशाला में प्रवेश किया। कोलापुर राज्य के महामंत्री ने वहां उपस्थित सभी स्वयंवर प्रतियोगियों का परिचय कराया। नागकन्या सुन्दरावती ने जब अग्रसेन को देखा तो ऐसा लगा कि वह ही उसके स्वामी हैं, जिनको वह हर जन्म में वरण करती आई है। मन ही मन नागकन्या ने भगवान शंकर को प्रणाम किया और अग्रसेन के आसन की ओर बढ़ चली। अग्रसेन के समक्ष जाकर सुन्दरावती ने अपनी वरमाला उनके गले में डाल दी। वरमाला डालते ही महल में नगाड़े बजने लगे, शंख की ध्वनि हुई। शूरसेन ने बड़े भाई अग्रसेन को प्रणाम कर बधाई दी।
नागराज महीरथ ने तुरन्त ही देश वाहक को प्रतापनगर भेजा और महाराज वल्लभ से बारात लेकर आने का अनुरोध किया। अग्रसेन और सुन्दरावती के विधिवत विवाह के पश्चात विदाई के समय नागराज कुमुद और नागराज महीरथ ने महाराजा वल्लभ से कहा, ‘एक ही परिवार में दो-दो नाग कन्याओं का वरण कर आपने नागवंश के प्रति जो स्नेह दिखाया है, उसके लिए हम आपके हमेशा आभारी रहेंगे, हम दोनों आपके साथ संकट की इस घड़ी में कंधा मिलाकर चलने का वचन देते हैं, यह दो परिवारों का मिलन नहीं अपितु दो संस्कृतियों का मिलन है’
महाराजा वल्लभ ने दोनों नाग राजाओं के प्रति आभार व्यक्त करते हुए कहा, ‘अग्रसेन के पैदा होने के समय ही यह बात सामने आ गई थी कि मेरा पुत्र संसार में अपनी छाप छोड़ेगा, आप लोगों से मिलन, इसी शृंखला की कड़ी है’ महाराजा वल्लभ की बातें सुनकर दोनों नाग राजाओं ने उनके प्रति आभार व्यक्त करते हुए पुन: प्रणाम किया, इसके पश्चात महाराजा वल्लभ ने सभी के साथ प्रतापनगर के लिए प्रस्थान किया।
अग्रसेन इन्द्र मैत्री : दो-दो नागवंशों से संबंध स्थापित करने के बाद महाराजा वल्लभ के राज्य में अपार सुख-समृद्धि व्याप्त हो गई। शासन व्यवस्था से प्रजा भी संतुष्ट थी, वहां महाराजा वल्लभ और उनकी पत्नी महारानी अपने दोनों पुत्रों की सेवा से हमेशा प्रसन्न रहते थे। प्रतापनगर की सुख-समृद्धि देखकर इन्द्र के मन में पैदा हुई ईर्ष्या की भावना और भी बलवान हो रही थी लेकिन इन्द्र का वश नहीं चल रहा था, इन्द्र को ईर्ष्या की अग्नि में जलते देख उसकी पत्नी शची ने कहा कि आपको अग्रसेन से मैत्री सम्बन्ध स्थापित करना चाहिए, आप माधवी को अपनी बहन बनाएं और अग्रसेन को मित्र, इससे जहां आपके मन की विरह व्यथा भी समाप्त होगी और प्रतापनगर और देवलोक के बीच प्रतिदिन होनेवाले विवाद भी समाप्त हो जायेंगे।
इन्द्र को अपनी रानी शची का सुझाव अच्छा लगा, उन्होंने महर्षि नारद को बुलाया और अग्रसेन से संधि करने की बात कही। महर्षि नारद ने कहा, ‘देव आपका सुझाव बहुत अच्छा है, आज जब सुर-असुर के संघर्ष से ही देवलोक त्रस्त है ऐसे में प्रतापनगर से संधि करना देवलोक के हित में ही होगा’
इन्द्र का संदेश लेकर महर्षि नारद प्रतापनगर पहुँचे। महर्षि नारद को अपने बीच पाकर राजा वल्लभ अति प्रसन्न हुए, उन्होंने उनको उचित सम्मान के साथ आसन पर बैठाया और अभिनन्दन किया। महर्षि नारद ने महाराजा वल्लभ से कहा, ‘मैं आपके लिए शुभ समाचार लेकर आया हूँ’ महर्षि नारद ने इन्द्र का संधि प्रस्ताव महाराजा वल्लभ के सामने रखा और कहा कि इन्द्र माधवी से क्षमा मांगने के लिए तैयार है। नारद का प्रस्ताव सुनकर महाराजा वल्लभ का मुख कमल की तरह खिल उठा, उन्होंने प्रस्ताव पर अपनी सहमति जताते हुए, इन्द्र को प्रतापनगर आने का निमंत्रण दिया, महाराजा वल्लभ का निमंत्रण लेकर नारद ने देवलोक के लिए प्रस्थान किया।
इन्द्र के आगमन पर प्रतापनगर को बहुत ही सुन्दर ढंग से सजाया गया। सुगंधित फूलों से सारा प्रतापनगर महक रहा था, विभिन्न रंगों के झरने बह रहे थे। स्वयं अग्रसेन ने नगर के बाहर मुख्य द्वार पर इन्द्र की अगवानी की, उन्हें बहुत ही सम्मान के साथ राजमहल में लाया गया।
महाराजा वल्लभ ने अपने साथ इन्द्र के लिए एक नया आसन लगवाया था, इन्द्र को अपने बराबर बैठाकर महाराजा वल्लभ ने यह संदेश दिया कि उनके मन में इन्द्र के प्रति कोई भी दुर्भाव नहीं है, इन्द्र ने अपनी भूलों के प्रति खेद प्रकट करते हुए माधवी से क्षमा मांगी और कहा कि आज जो संधि हमलोगों के बीच में हुई है वह संधि आपके वंशजों को हमेशा एक विशेष स्थान दिलाती रहेगी, (आज भी अग्रवाल समाज में जब विवाह होता है तो वर के द्वारा छत्र व चंवर का प्रयोग उसी परम्परा का प्रतीक है)
अग्रसेन और इन्द्र आपस में गले मिले, माधवी ने इन्द्र की आरती उतारी। आरती उतार कर उनका तिलक किया, इन्द्र ने उन्हें अखंड सौभाग्यवती रहने और पुत्रवती होने का वर दिया। इन्द्र ने माधवी को आशीर्वाद दिया कि उसके मन में अग्रसेन के प्रति हमेशा अनुराग बना रहे, इसके साथ ही इन्द्र ने वहां से विदा ली, महाराजा वल्लभ, अपने दोनों पुत्रों के साथ महल से बाहर आये और इन्द्र को विदाई दी।
शूरसेन विवाह : इन्द्र और अग्रसेन की मैत्री के समाचार से प्रतापनगर के अधिपत्य का प्रभाव बढ़ा। मंदाकिनी के किनारे बसे यक्ष राजा को इन्द्र-अग्रसेन मैत्री का संवाद प्राप्त हुआ, उसने महाराजा वल्लभ से अपनी पुत्री सुपात्रा का सूरसेन से विवाह की चर्चा की, युवराज अग्रसेन ने कहा कि प्रतापनगर और नागलोक की संधि से हम शक्तिशाली हुए हैं, यदि यक्षराज की पुत्री का शूरसेन से विवाह होता है तो हिमालय पर्वत के इलाके में बसे सभी राज्य प्रतापनगर का लोहा मानने लग जायेंगे। महाराजा वल्लभ ने यशराज के प्रस्ताव को तुरन्त ही स्वीकार कर लिया, कुछ ही समय पश्चात शूरसेन का विवाह यक्ष कन्या सुपात्रा के साथ हो गया, इस तरह से महाराजा वल्लभ ने विभिन्न संस्कृतियों के साथ संबंध स्थापित कर एक नए इतिहास की रचना की।
महाराजा वल्लभ वृद्ध होते जा रहे थे, अत: उन्होंने निश्चय किया कि वह प्रतापनगर का राज्य अग्रसेन का सौंपकर वन की ओर प्रस्थान करेंगे, उन्होंने अग्रसेन और शूरसेन को बुलाकर अपना निश्चय बताया, इस पर अग्रसेन ने कहा, ‘मैं पहले पूरे आर्यवर्त का भ्रमण करूँगा, उसके पश्चात् ही राज्य का भार सम्भालने के लिए सोचुँगा’ अग्रसेन ने अपने पिता से अनुरोध किया कि ‘जब तक मैं बाहर रहूँ शूरसेन ही राज्य की देखभाल करेगा’ महाराजा वल्लभ और उनकी पत्नी ने अनिच्छा से अग्रसेन, माधवी और सुन्दरावती को भारत दर्शन के लिए विदा किया।
अग्रसेन ने अपनी दोनों पत्नियों के साथ दक्षिण के सभी तीर्थ स्थानों की यात्रा की, इस यात्रा के दौरान उन्हें अनेक प्रकार के अनुभव हुए। यात्रा के मध्य ही उन्हें महाराजा वल्लभ के अस्वस्थ होने का समाचार मिला, पिता के कुशल-मंगल रहने की प्रार्थना करने के साथ-साथ अग्रसेन ने अपनी यात्रा अधूरी छोड़कर प्रतापनगर के लिए प्रस्थान किया।
महाराजा वल्लभ व्ाâा निधन : पिता के कुशलमंगल होने की भगवान से प्रार्थना करते हुए अग्रसेन जल्द प्रताप नगर पहुँचने को उत्सुक थे, वह कम से कम पड़ाव डालते हुए प्रतापनगर पहुँचे। अग्रसेन एवं दोनों रानियों को देखकर महाराजा वल्लभ और महारानी अति प्रसन्न हुए। महाराजा वल्लभ का बहुत अच्छे वैद्य से उपचार चल रहा था किन्तु होनी को कौन टाल सकता है। महाराजा वल्लभ का अंतिम समय आ गया था, उन्होंने अपने सभी परिजनों को बुलाकर उनसे विदा मांगी और अपना नश्वर देह त्याग दिया।
गया में पिण्डदान : अग्रसेन ने शासन के सभी कार्य शूरसेन को सौंपकर महाराजा वल्लभ की प्रथम पुण्य तिथि पर गया में श्राद्ध करने का निश्चय किया, एक बार पुन: माता वल्लभी के साथ, अग्रसेन और दोनों रानियों ने प्रतापनगर से विदा ली, रास्ते में अनेक तीर्थों के दर्शन करते हुए वे सेवकों के साथ गया पहुँचे। गया पहूँच कर अग्रसेन ने सरयू नदी के किनारे अपना पड़ाव डाला और गौड़ पुरोहित को बुलाकर अपने पिता का पिण्डदान किया, पूरे श्राद्ध पक्ष में उन्होंने अपने सभी पितरों को आह्वान कर पिण्ड दान किया, अग्रसेन अति प्रसन्न थे कि उन्होंने अपने सभी पितरों को पिण्ड दान कर बार-बार जन्म लेने वाली योनि से मुक्त करा दिया।
लोहागढ़ यात्रा : गया से प्रारम्भ करते समय माता वल्लभी ने अग्रसेन को लोहागढ़ में जाकर महाराजा वल्लभ को पिण्डदान देने का सुझाव देते हुए कहा कि लोहागढ़ में पिण्डदान के बिना महाराजा वल्लभ को योनिचक्र से मुक्ति नहीं मिलेगी, अग्रसेन ने लोहागढ की ओर प्रस्थान किया, लोहागढ़ में जाकर उन्होंने एक माह का प्रवास किया, वहां पर उन्होंने सभी कर्मकाण्ड पूरे कर अपने पिता का पिण्डदान किया।
एक माह की लम्बी साधना से महाराजा वल्लभ ने उन्हें दर्शन दिए और कहा! हे पुत्र तुम्हारी साधना व लोहागढ़ में पिण्डदान से मुझे बार-बार जन्म लेने वाली योनि से मुक्ति मिली है और मुझे स्वर्ग में स्थान प्राप्त हो गया है, मेरा आशीर्वाद हर समय तुम्हारे साथ है, तुम यहां से आगे बढ़ो और सरस्वती व यमुना नदी के बीच एक वीर भूमि तुम्हें मिलेगी, उसी वीर भूमि पर एक नए राज्य का निर्माण करो’ माता वल्लभी, अग्रसेन, दोनों रानियां माधवी व सुन्दरावती ने महाराजा वल्लभ को प्रणाम किया तथा लोहागढ़ से उस वीर धरा को खोजने चले, जिसकी महाराजा वल्लभ ने चर्चा की थी।
अग्रोहा निर्माण : लोहागढ़ सीमा से निकलकर अग्रसेन ने पंचनद (वर्तमान में पंजाब) राज्य में प्रवेश किया, पंचनद में एक स्थान पर उन्होंने एक सिंहनी को शावक (हाल ही में जन्मा शेर बालक) को साथ खेलते देखा। अग्रसेन अपने गजराज पर बैठे उस शावक को देख रहे थे अचानक ही शावक उछला और गजराज के मस्तक पर आ बैठा। शावक को अचानक अपनी ओर उछल कर आते देख महावत भी नीचे गिर पड़ा। अग्रसेन ने शावक को उछलते हुए, महावत को गिरते हुए देखकर उन्हें अपने पिता की वह बात याद आ गई जिसमें उन्होंने वीर धरा पर एक नया राज्य बसाने की बात कही थी, वे वहीं गजराज से उतर पड़े, अपने साथ चल रहे ज्योतिषियों और पंडितों से उस स्थान के बारे में चर्चा की, सभी ने एकमत से कहा कि यह भूमि न केवल वीरभूमि है बल्कि चारों और हरी-भरी होने से कृषि उपज भी बहुत अच्छी होगी। अग्रसेन ने अपने सहयोगियों के साथ आसपास के क्षेत्रों का भी भ्रमण किया और उन्होंने देखा कि हर स्तर पर इस भूमि पर एक सुव्यवस्थित राज्य की स्थापना हो सकती है।
प्रताप नगर से शूरसेन को बुलाया गया। पुरोहित व ऋषियों को बुलाकर सबसे पहले यज्ञ किया। यज्ञ के पश्चात भवन निर्माण का कार्य प्रारम्भ हुआ। भवन निर्माण के कार्य प्रारम्भ के साथ ही उस वीर प्रसूता भूमि पर अग्रसेन ने अपना ध्वज फहराया। ध्वज फहराने के साथ ही अग्रसेन महाराजा बन गए, उन्होंने अपने भाई शूरसेन को तिलक कर प्रतापनगर प्रस्थान का आदेश दिया और कहा, ‘आज से प्रतापनगर के तुम ही स्वामी हो, वहां के शासक के रूप में राज्य करो। राज्य व्यवस्था ऐसी सुदृढ़ और सुव्यवस्थित बनाओ जिससे राज्य की रक्षा के साथ-साथ प्रजा भी सुख-शांति से रह सके’ महाराजा अग्रसेन का आशीर्वाद पाकर शूरसेन ने प्रतापनगर के लिए प्रस्थान किया।
महाराजा अग्रसेन अपनी नई राजधानी को बसाने में पूरा ध्यान दे रहे थे। हर आगंतुक उनके लिए एक सम्मानित व्यक्ति था, लोकोक्ति एवं भाटों के गीतों के अनुसार उस समय महाराजा अग्रसेन ने १८ बस्तियां बसाई थीं। ऋषि-मुनियों और ज्योतिषियों की सलाह पर नए राज्य का नाम आग्रेयगण (जिसे आज अग्रोहा के नाम से जाना जाता है) रखा गया और राजधानी का नाम अग्रोदक रखा गया। महाराजा अग्रसेन ने सभी प्रजाजनों को सुखी और सम्पन्न बनाने के लिए शासन से सभी तरह की सुख-सुविधाएँ उपलब्ध करवाई। प्रजाजन भी महाराजा अग्रसेन के प्रति पूरी तरह से समर्पित थे। राज्य में ‘जिओ और जीने दो’ की कहावत पूरी तरह से चरितार्थ हो रही थी। महाराजा अग्रसेन की शासन व्यवस्था से पड़ोस के दूसरे राज्य भी अपने यहां पर अग्रोदक के समान नई व्यवस्था लागू कर रहे थे, अपने नए राज्य में अग्रसेन बहुत ही प्रसन्न थे।
विश्वमित्र का आगमन : महाराजा अग्रसेन राजदरबार में बैठे हुए थे, मंत्रीगण आपस में चर्चा कर रहे थे। महाराजा अग्रसेन शासन का काम-काज तो बराबर देखते ही थे, लेकिन रह-रह कर उन्हें परशुराम का श्राप याद आ जाता। श्राप के कारण वह चिंतित से रहने लगे थे एक दिन दरबान ने आकर ऋषि विश्वमित्र के आगमन की सूचना दी। ऋषि के आगमन की सूचना पाकर महाराजा अग्रसेन नंगे पांव उनकी अगवानी के लिए बाहर आए। उनको स-सम्मान लाकर राजदरबार के उच्च आसन पर बैठाया और उनकी चरण वंदना की। ऋषि विश्वमित्र ने देखा कि महाराजा अग्रसेन के मन में जितना उत्साह है उतना उनके चेहरे पर तेज नहीं है?
ऋषि विश्वमित्र ने महाराजा अग्रसेन से पूछा कि ‘नरेश आपके मुख-मण्डल पर जो तेज होना चाहिए वह क्यों नहीं है’ महाराजा अग्रसेन ने परशुराम से सामना होने व उनके द्वारा दिए गए श्राप की सारी घटना बताई, ऋषि विश्वमित्र ने कहा कि आर्य शत्रु को आप अपने बुद्धि बल से हराओ न कि शक्ति से, आपको पुन: कुलदेवी महालक्ष्मी की तपस्या करनी होगी और उनसे इस श्राप से मुक्त होने का वरदान मांगना होगा, यही आपकी समस्या का उचित समाधान है, आप यमुना के किनारे दोनों नासुताओं के साथ विष्णुप्रिया का ध्यान करें और उनसे संतान प्राप्ति का वरदान लें।
महालक्ष्मी की आराधना : अग्रसेन ने विश्वमित्र का मार्ग-दर्शन के लिए आभार व्यक्त किया। यमुना के किनारे एक स्वच्छ जगह देखकर महाराजा अग्रसेन ने अपने लिए कुटिया बनवाई, वहां पर सभी ऋषि-मुनियों को निमंत्रित कर एक विशाल यज्ञ किया। यज्ञ सम्पन्न होने के पश्चात महाराजा अग्रसेन और दोनों रानियों ने निराहार रहने का संकल्प कर महालक्ष्मी के ध्यान में बैठ गए।
महाराजा अग्रसेन और दोनों रानियों की कठिन तपस्या को देखकर महालक्ष्मी प्रकट हुईं। महालक्ष्मी ने अग्रसेन से वरदान मांगने को कहा। महाराजा अग्रसेन और दोनों रानियों ने विष्णुप्रिया को प्रणाम कर संतान का आशीर्वाद मांगा। महालक्ष्मी बोली, ‘मैं आप लोगों की तपस्या से बहुत प्रसन्न हूँ और अपना आशीर्वाद देती हूँ कि आपको जो संतान प्राप्त होगी वह युगो-युगो तक आपको अमर कर देगी, जब तक आपकी संतान मेरी पूजा करती रहेगी, तब तक आपके परिवार पर मेरी कृपा दृष्टि बनी रहेगी।’
महालक्ष्मी का वरदान पाते ही श्राप की काली छाया समाप्त हो गई। महाराजा अग्रसेन, महारानी माधवी और सुन्दरावती तीनों ने आहार ग्रहण किया और अग्रोहा की ओर प्रस्थान करने का निश्चय किया।
बनवास गमन: अश्वमेघ यज्ञ के १०८ वर्ष पश्चात महाराजा अग्रसेन ने विभु को शासन व्यवस्था सौंपकर दोनों महारानियों के साथ वन की ओर प्रस्थान कर लिया, अनेकों वर्ष वन में सन्यासी बन कर रहे और उनके पुण्य कार्यों के परिणाम स्वरूप आदिपिता ब्रह्मा ने महाराजा अग्रसेन व दोनों महारानियों को स्वर्ग में स्थायी स्थान प्रदान कर ‘अग्रोहा’ पर उपकार किया।