माहेश्वरी वंशोत्पत्ति
by Bijay Jain · Published · Updated
माहेश्वरी समाज! समय के साथ कदम से कदम मिलाने में विश्वास रखता है, इस समाज के सदस्य परिवर्तनशीलता के पक्षधर हैं, इस दृष्टि से सब नित-नवीन हैं, महाकवि कालिदास ने नवीनता की व्याख्या करते हुए लिखा है-
पदे-पदे यन्नवतामुमैति, तदैवरूपम् रमणीयताया: कदम-कदम पर जो नवीनता को स्वीकार कर लेते हैं, वे रमणीय रहते हैं। रमणीयता समय की शोभा है और समय रमणीय को रमणीयतम बना देता है।
माहेश्वरी समाज की उत्पत्ति के संबंध में अनेक किंवदंतियां हैं। शिवकरण दरक जी ने जागाजी की बहियों से इस दृष्टि में इतिहास लिखने का प्रयास किया है और यह सिद्ध किया है कि जयपुर जिले के अंतर्गत खंडेला के प्रतापी राजा खड़गलसेन के पुत्र सुजानकंवर माहेश्वरी समाज के आदि पुरूष हैं। माना जाता है कि युवावस्था में एक दिन सुजानकंवर ७२ उमरावों के साथ आखेट पर गये, वहां उन्होंने ऋषियों को यज्ञ करते देखा। यज्ञ में बलि दी जा रही थी। हिंसा के मर्मान्तक माहौल ने सुजानकंवर को विचलित कर दिया और उसने तत्काल उमरावों से यज्ञ नष्ट करने को कहा। उमरावों ने वही किया, इस पर यज्ञकर्ता ऋषियों ने उन्हें श्राप दिया कि तुम सब जड़ हो जाओ। तत्काल सुजानकंवर सहित सभी उमराव पाषाण मूर्तियों में परिवर्तित हो गये। घटना की सूचना राजा खड़गलसेन को मिली, वे इस आघात को सहन नहीं कर सके, उन्होंने अपनी रानियों सहित पुत्र वियोग में प्राण त्याग दिये। सुजानकंवर की रानी चन्द्रावती विदुषी थी, उसने समस्त उमरावों की स्त्रियों के साथ ऋषियों के पास पहुंचकर अपने पतियों को श्राप से मुक्ति दिलाने की प्रार्थना की, इस पर ऋषियों ने भगवान महेश और भगवती पार्वती की प्रार्थना करने को कहा। रानियों की तपस्यापूत प्रार्थना से प्रसन्न होकर महेश और पार्वती जी ने उनके पतियों में प्राण संचित कर दिये। सचेतन होकर सुजानकंवर एवं उनके सहयोगी यज्ञस्थल के समीप स्थल कुंड में स्नान करने उतरे तो वहां उनके सारे शस्त्र गल गये, जहां यह क्रिया सम्पन्न हुई, वह स्थान लोहार्गल कहलाता है, यह लोहार्गल अभी भी रींगस स्टेशन से २०-२५ मील उत्तर में पहाड़ों के मध्य स्थित है। लोहार्गल से लौटकर नवजीवन प्राप्त राजकुमार एवं उमराव भगवान महेश्वर के नाम पर ‘माहेश्वरी’ कहलाए और खंडेला उनकी मातृभूमि मान्य हुई। शस्त्र गल जाने के कारण सुजानकंवर एवं ७२ उमरावों ने तराजू धारण कर लिया, इसी पर जागाजी के बताये अनुसार दरक जी ने लिखा है-
कृपाण त्याग कर कलम लीन्हा तज ढाल तराजू कुरतदीना
माहेश्वरी समाज ने सामंजस्य पैदा करने वाली अवधारणा स्वीकार की और अपने आप को प्रतिष्ठित करने के लिए समय के संकेत के अनुरूप काम किया। वह समय महाभारत काल का था। प्रसिद्ध जागा सूरजमल मुकनलाल की बही के अनुसार माहेश्वरी जाति की उत्पत्ति उसी समय यानि अब से लगभग ४८०० वर्ष पूर्व हुई थी, लगता है कि उस समय विशेष उल्लेख योग्य कार्य न होने से इतिहास नहीं बना और फिर विक्रम की ८वीं-१०वीं सदी के बीच ऐतिहासिक घटना हुई, उसका नेतृत्व सुजानकंवर ने किया। युग परिवर्तन जितना बड़ा सृजन का काम घर में रहकर नहीं किया जा सकता, इसलिए संभव है कि उन्होंने जोग लिया हो और इसी कारण बाद में वे जागा कहे जाने लगे। ‘जागा‘ जोग का अपभ्रंश और योग की याद दिलाने वाला सांकेतिक शब्द है।
सुखसंपतराय भंडारी की धारणा है कि भगवान शंकराचार्य के समय माहेश्वरी जाति अस्तित्व में आई और वह समय ११०० वर्ष पूर्व का है। जागों की बहियों के अनुसार ज्येष्ठ शुक्ला नवमी को श्री महेश भगवान के आशीर्वाद से माहेश्वरी जाति की उत्पत्ति हुई।
इस मत के परिप्रेक्ष्य में जैन इतिहास भी गौर करने लायक है। इतिहासवेत्ता मुनि जिनविजय जी ने जानकारी देते हुए लिखा है: ‘वस्तुत: उस जमाने में ऐसे धर्म परिवर्तन ने प्रजा के पारस्परिक विद्वेष को कम किया और सामाजिक उत्कर्ष को बढ़ाया। गुजरात के अनेक प्रतिष्ठित कुटुंबों में जैन और शैव दोनों धर्मों का पालन किया जाता था। किसी गृहस्थ का पितृकुल जैन था तो मातृकुल शैव और किसी का मातृकुल जैन था तो पितृकुल शैव, इस तरह गुजरात में वैश्य जाति के कुलों में प्राय: दोनों धर्मों के अनुयायी थे। शैवों और जैनों की कोई अलग-अलग समाज रचना नहीं थी। सामाजिक विधी-विधान सब ब्राह्मणों के द्वारा ही मान्य नियमानुसार संपन्न होते थे। शैव कुटुंबों की कुलदेवी एक ही थी, उनका पूजन-अर्चन दोनों कुटुंब वाले कुल परंपरानुसार एक ही विधि से करते थे। सामाजिक दृष्टि से दोनों में अभेद ही था। सिर्फ धर्म भावना और उपास्यदेव की दृष्टी से थोड़ा भेद था। शिवपूजकों के कुछ वर्गों में मद्य मांस त्याज्य नहीं माना जाता था परंतु जैनों में यह सर्वथा त्याज्य था। कोई भी अगर जैन होता तो उसका अर्थ यही होता था कि उसने मद्य-मांस का सेवन त्याग दिया है और इसको त्याग कर उसने जीव हिंसा न करने का व्रत लिया है। शैव और जैन दोनों मुख्य रूप से गुजरात के प्रजाधर्म थे, फिर भी सामान्य रूप से राजधर्म शैव ही माना जाता था और गुजरात के राजाओं के उपास्यदेव शिव ही थे। कई बार राज कुटुंबों में से भी कोई जैन धर्म के अनुसार सन्यास दीक्षा ग्रहण करता था। अनेक राजपुत्र जैन आचार्यों व्ाâे पास शिक्षा ग्रहण करते थे। सुजानकंवर का इतिहास भी इसी बात की पुष्टि करता है। कहने की आवश्यकता नहीं कि उस समय मारवाड़, मालवा आदि सारे प्रदेश गुजरात राज्य के अंतर्गत थे या उससे प्रभावित थे।
श्री शिवकरण जी ने बड़वा जागाजी की बहियों पर वर्षों तक शोध कर उन माहेश्वरी बंधुओं के नाम पर भी प्रकाश डाला है, जिन्होंने जैन धर्म स्वीकार किया और जैन धर्म को मानने वाली मुख्य जाति ओसवाल में मिले। जैसे-
१.रतनपुर के राजा के दीवान माल्हदेवजी भामुजी के खचांजी थे। श्री बलाशाह राठी फौज को मोदीपा देते थे। श्री माल्हदेवजी के लड़कों को अंधगी की बीमारी हो गई। श्री जिनदत्त सुरिजी ने ठीक किया, तब उन्होंने जैन धर्म स्वीकार किया। उनके साथ डागा, मूंदड़ा के कई परिवारों ने जैन धर्म स्वीकार किया। भामुजी का पारख मोराजी का छोरीया कहलाये। ५२ परिवारों ने जैन धर्म स्वीकार किया।
२.सिन्धु देश के मुलतान नगर में श्री धींगड़मल हाथी शाह माहेश्वरी राजा का दीवान था, उनका पुत्र लुणा था, जिसको सांप ने काटा था। उसे श्री जिनदत सूरीजी ने वापस जीवित किया, तब उन्होंने जैन धर्म स्वीकार किया। लुणा से लुणिया कहलाये।
३.श्री नाबाजी लढ़ा माहेश्वरी का ब्रह्ममान सूरीजी ने उपदेश देकर जैन धर्म स्वीकार कराया। लढा से लोढा कहलाये।
४.श्री खेताजी बाहेती के लाला व भीमा नाम के पुत्र थे। ये दोनों नवाब लोदी रूस्तम के खजाने के लिए काम करते थे, इन्होंने करोड़ों रुपयों के साथ सामान भी माहेश्वरी व ब्राह्मणों को बांट दिया। किसी ने नवाब से चुगली कर दी। नवाब ने अहमदाबाद में दोनों को गिरफ्तार कर लिया। किसी तरह से जेल के पहरेदारों की नजर बचाकर वे भाग गये। तपागच्छ की जाति ने इनको लुकाया (छिपाकर रखा)। जोधपुर और फलौदी में लुक कर (छिप कर) रहे, तभी उन्होंने जैन धर्म स्वीकार किया।
५.नागौर के पास मुधाड़ा नगर मूंदड़ा का बसाया हुआ है। वहां पर मुंदल देवी का मंदीर बनाया गया। उनका पुत्र गायब हो गया था। देवालजी जैन संत ने वापिस लाकर दिया। देवी ने नाहर का रूप बना रखा था, इसलिए जैन धर्म स्वीकार किया व नाहर कहलाये।
६.विक्रम संवत ११७६ में श्री वल्लभ सूरीजी मदोदर नगर में पधारे। वहां के राजा नानद परिहार के संतान नहीं थी। एक जैन आचार्य ने पुत्र वरदान दिया, पुत्र हुआ और जैन धर्म स्वीकार किया। उस समय कुछ माहेश्वरी व ब्राह्मणों ने भी जैन धर्म स्वीकार किया था। ७.श्री डीडाजी मोहता ने सिरोही में जैन धर्म स्वीकार किया।
८.सं.१०१६ में छोहरिया तातेड़ जाति लढ़ा माहेश्वरी से बनी। सं.४४४ से बीरणी मेढा जाति मूंधड़ा माहेश्वरी से बनी। सं.१०२२ में शाह लछमणजी माहेश्वरी मूंदड़ा जिसके सुडाणी गुरू के प्रताप से पुत्र हुआ, नाहेरी चुंगी जैन धर्म स्वीकार किया और नाहर कहलाये। अहिंसा के अनन्य उपासक होने का गौरव पाने के बावजूद जैन समाज असि (तलवार), मसि (कलम-दवात) कृषि को अपनाये रहा, किन्तु माहेश्वरी समाज ने असि एवं कृषि छोड़कर मात्र कलम-तराजू और वैश्य कर्म को समग्रभाव से उजागर किया, इसी कारण व्यावसायिक जगत में माहेश्वरी समाज को अहंस्थान प्राप्त है। माहेश्वरी समाज की जाति के अग्रदूत तपोधन श्री कृष्णदास जी जाजू के शब्दों में-
जागाजी अंबालाल मोतीराम झड़ोल निवासी की बहियां यह भी बताती हैं कि उसके बाद भी समय-समय पर बहुत सी क्षत्रिय जातियां आकर माहेश्वरी समाज में मिली हैं और इस तरह माहेश्वरी समाज ने समय को पहचान कर सबको अपने में शामिल कर लिया तथा समय के साथ चलने में शक्ति लगायी। इसी कारण कहा जा सकता है कि ‘समय’ माहेश्वरी समाज के साथ रहा है इसलिए माहेश्वरी इतने मौलिक हैं- स्वयं सृजन हैं।