भारत नामकरण के मूलभूत आधार
by Bijay Jain · Published · Updated
ज्ञान-विज्ञान की विविध विधाओं में प्राचीनकाल से अग्रणी रहने वाले हमारे राष्ट्र भारत का नाम ‘भारत' रखा गया तो क्यों
क्या अकारण, अनायास या आधारहीन है यह नामकरण
भारत नामकरण के मूलभूत आधार – Bharat Namakaran ke Mulabhut Aadhaar:
विचारणीय यह है कि जिस धरती पर जातक को उसकी भावी कायिक, मानसिक क्षमताओं का लाग्निक आकलन करके नामकूृत किए जाने की परम्परा हो, जिस समाज में नामकरण-उत्सव एक पावन सांस्कृतिक पर्व के रूप में मनाए जाने की प्रथा हो, जिस समाज में व्युत्पत्ति शास्त्र सदृश तर्कसंगत शास्त्र विद्यमान हो, उस समाज में देश का नाम ‘भारत’ अनायास या आधारहीन, अतार्किक या सर्वथा असंगत स्वरूप में मान्य किया गया होगा, यह कदापि स्वीकार्य नहीं, अतएव देखना होगा कि क्यों और कैसे नामकूत हुआ हमारा राष्ट्रदेश ‘भारत’
तत्क्रम में भारत, जिसे बिना गहराई में उतरे कुछेक लोग ‘इण्डिया’, ‘हिन्दोस्तान’ भी कह बैठते हैं के नामकरण-आधार की तलाश में हमें भारत के राष्ट्रीय चरित्र, राष्ट्रीय वैशिष्ट्य और तद््गत ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्यों को सुसंगत एवं तर्कसंगत स्वरूप में तलाशना होगा। एतदर्थ कुछेक दहाई, कुछेक सैकड़ा नहीं, अपितु ‘भारत के उद्भव-काल’ तक का इतिहास खँगालना होगा, तभी हमें यथार्थपरक सत्य हस्तामलक हो सकता है। यथा उन दिनों जब हर तरफ अँधेरा ही अँधेरा था, जब प्राकृतिक पारिवेशिक प्रतिकूलताओं के फलस्वरूप पृथ्वी के धरातल पर सूर्य का प्रकाश अलभ्य था, उन्हीं दिनों मानव प्रकाश के लिए प्राकृतिक स्रोत ‘अग्नि’ पर ही निर्भर रहा होगा। हमारे आस-पास के प्राकृतिक तत्त्वों में प्रकाश-प्रदाता दो स्रोत हैं- अग्नि व सूर्य। इन्हीं दो प्राकृतिक प्रकाश-स्रोतों की सहायता से मानव अपने आसपास के पर्यावरण का ज्ञान प्राप्त कर सकता था। अतएव सूर्य-प्रकाश के अभाव में अग्नि का प्रथम अभिनन्दन, प्रथम वन्दन अति स्वाभाविक था। ऋक में अग्नि की भरपूर वन्दना है। ऋक का आरम्भ ही अग्नि की वन्दना से है
अतएव भारतवर्ष के नामकरण में अग्नि को स्थान नहीं दिया गया; अपितु अग्नि का तेज और तज्जनित सात्त्विक ऊर्जस्विल प्रकाश सूर्य में पूर्णतया समेकित पाकर ऐसे प्रकाश को सूर्य द्वारा प्रदान करने के आधार पर भारत देश के नामकरण (भा + रत) में सूर्य को न केवल सम्मिलित किया गया, वरन सम्पूर्ण भारत प्रधानतया सूर्योपासक हो गया।
तथ्यतया ऋक में सूर्य की पूजा और सूर्य की ढेरमढेर प्रशस्तियाँ विद्यमान हैं। सूर्य को प्रकाशदाता और ज्ञानप्रदाता भी बताया गया है। हमारे सौरमण्डल के बारे में ऋक-ऋषियों को सम्यक ज्ञान था या नहीं, यह प्रश्न शोध का विषय हो सकता है, तदापि सूर्य से भरपूर प्रभावित थे, इसीलिए यहाँ के प्रथम प्रभावशाली राजकुल को सूर्यकुलीन (सूर्यवंशी) ही कहा गया। कालान्तर में सूर्यपूजक के रूप में ख्यात हुए ऋक्युगीन आर्यजन, इस निष्कर्ष में कोई सन्देह नहीं है। सूर्य के प्रकाश से जैविक शक्ति भी प्राप्त होती है और सूर्य का प्रकाश ज्ञान-प्राप्ति में भी सहायक है। ऐसे में सूर्यपूजकों के देश को ‘भा (प्रकाश) ± रत’ अर्थात ‘प्रकाश-निरत’ कहा जाना स्वाभाविक है। सूर्य की किरणें नम-जल-थल सबमें परिव्याप्त होती है-
आपो नारा इति प्रोक्ता आपो वै नरसूनव’