आम चुनाव २०१९

कांग्रेस ने दो राज्यों में किया था सफाया अब पार्टियों को करना होगा पुरजोर प्रयास पांच साल में काफी बदल गई है तस्वीर

मुंबई : वर्ष २०१४ के लोकसभा चुनाव में मोदी लहर में भाजपा ने १० राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में क्लीन स्वीप किया था, राजस्थान, गुजरात, दिल्ली और उत्तराखंड में सभी सीटें भाजपा व कांग्रेस की कुल सीटों में बड़ा फासला आ गया, अब भाजपा के सामने इन राज्यों में उसी कामयाबी को दोहराने की चुनौती है, हालांकि ५ साल में राजनीतिक परिस्थितियां काफी बदल चुकी है, यही नहीं, कांग्रेस सहित अन्य दलों ने भी कुछ राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों में सभी सीटें जीती थी।


बदल गए हैं समीकरण

गुजरात में २०१४ में भाजपा ने सभी २६ सीटें जीती, पीएम नरेंद्र मोदी उस समय राज्य के मुख्यमंत्री थे। गुजरात से उठी मोदी लहर ही पूरे देश में फैंली, इसके बाद भाजपा ने गुजरात विधानसभा चुनाव २०१७ में फिर से सरकार बनाई, पर उसे १६ विधानसभा सीटों का नुकसान उठाना पड़ा, पिछले कुछ वर्षों में राजनीतिक समीकरण बदले हैं, विस चुनाव परिणाम के आधार पर लोकसभा सीटों की तुलना करें तो भाजपा ८ सीटों को गंवा रही है, ऐसे में उसके लिए फिर से ‘स्पेशल २६’ का जादुई आंकड़ा बनाना चुनौती होगी इस बार।


फिर से जीतना है विश्वास

राजस्थान में २०१४ लोकसभा चुनाव में सभी २५ सीटों पर काबिज होने वाली भाजपा को २०१८ के विधानसभा चुनाव में राज्य में सत्ता से हाथ धोना पड़ा, यही नहीं भाजपा २०१३ के विधानसभा चुनाव की तुलना में आधी सीट भी नहीं जीत पाई, उसे ९० सीटों का भारी नुकसान हुआ, विस चुनाव परिणामों के आधार पर भाजपा को १३ लोकसभा सीटों का नुकसान हो रहा है, इन पर कांग्रेस की स्थिति मजबूत हुई है, ऐसे में आगामी लोकसभा चुनाव में राजस्थान भाजपा के लिए खुद को साबित करने की किसी परीक्षा से कम नहीं है।

दिल्ली में जीत का ‘सत्ता’ आसान नहीं
दिल्ली में २०१४ में भाजपा सभी सात सीटों पर काबिज हुई थी, हालांकि इससे पहले २००९ में सभी सीटें कांग्रेस के खाते में थी, २००४ में भी भाजपा की स्थिति अच्छी नहीं थी, तब कांग्रेस ने छह और भाजपा ने एक सीट जीती थी, अब दिल्ली में भाजपा व कांग्रेस के अलावा आम आदमी पार्टी (आप) भी मुकाबले में है, आप ने ६ सीटों पर प्रत्याशी भी घोषित कर दिए हैं, बता दें कि दिल्ली में विधानसभा चुनाव २०१५ में आप ने ७० में से ६७ सीटें जीत सरकार बनाई। भाजपा ३ सीट पर सिमट गई। कांग्रेस तो खाता भी नहीं खोल पाई थी, इसके आधार पर देखें तो भाजपा को लोस की सभी सीटों पर नुकसान हुआ, लिहाजा भाजपा के लिए दिल्ली में २०१४ की जीत का ‘सत्ता’ दोहराना मुश्किल ही होगा।
काँग्रेस के लिए हैट्रिक की चुनौती काँग्रेस ने २०१४ में मणिपुर की दोनों व मिजोरम की एकमात्र सीट जीती थी। २००९ में भी दोनों राज्यों में सभी सीट कांग्रेस के ही नाम थी, अब कांग्रेस के सामने क्लीन स्वीप की हैट्रिक बनाने की चुनौती रहेगी, मिजोरम में २०१८ विस चुनाव में कांग्रेस को एमएनएफ से करारी हार मिली, ऐसे में एकमात्र लोस सीट पर कांग्रेस आगे बढ रही है।

मुश्किल है वैसी कामयाबी
भाजपा के लिए २०१४ के चुनाव नतीजों को इस बार दोहराना मुश्किल है, कुछ एंटी इनकबेंसी है, विपक्षी दलों का एक साथ आना चुनौती बन सकता है। राजस्थान, मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़ विस चुनाव परिणामों का भी असर देखने को मिलेगा। सरकार कुछ मोर्चों पर विफल रही। फिर भी पीएम मोदी की ओवरऑल गुडविल है।

नीरजा चौधरी, राजनीतिक विश्लेषक

जानें किस राज्य में किस तारीख को होंगे चुनाव

लोकसभा चुनाव कार्यक्रम २०१९

चुनाव आयोग ने लोकसभा की सभी सीटों के लिए चुनाव की तारीखों का ऐलान कर दिया है। प्रथम चरण के चुनाव में ९१ लोकसभा सीटों और दूसरे चरण के चुनाव में ९७ लोकसभा सीटों पर चुनाव होंगे। तीसरे चरण में ११५ सीटों, चौथे चरण में ७१, पांचवें चरण में ५१, छठे चरण में ५९ और सातवें चरण में ५९ सीटों पर चुनाव होंगे, जानें कब-कब होंगे मतदान:
पहला चरण- ११ अप्रैल- ९१ सीटों- आंध्र प्रदेश (२५ सीटें), अरुणाचल (२ सीटें) असम (५ सीटें) बिहार (४ सीटें) छत्तीसगढ़ (१ सीटें) जम्मूकश्मीर (२ सीटें), महाराष्ट्र (१ सीट), मेघालय (१ सीट), मिजोरम (१ सीटें), ओडिशा (४ सीटें), सिक्किम (१ सीट), तेलंगाना (१७ सीटें) त्रिपुरा (१ सीट), उत्तर प्रदेश (८ सीटें), उत्तराखंड (५ सीटें), पश्चिम बंगाल (२ सीटें), अंडमान निकोबार (१ सीट), लक्षद्वीप (१ सीट)
दूसरा चरण– १८ अप्रैल- ९१ सीटें- असम ५, बिहार ५, छत्तीसगढ़ ३, जम्मू-कश्मीर-२, कर्नाटक-१४, महाराष्ट्र-१०, मणिपुर-१, ओडिशा-५, तमिलनाडु-३९, त्रिपुरा-१, उत्तर प्रदेश-८, पश्चिम बंगाल-३, पुद्दुचेरी-१
तीसरा चरण– २३ अप्रैल- ११५ सीटें- असम ४, बिहार ५, छत्तीसगढ़ ७, गुजरात २६, गोवा २, जम्मू-कश्मीर-१, कर्नाटक-१४, केरल-२०, महाराष्ट्र-१४, ओडिशा-६, उत्तर प्रदेश-१०, पश्चिम बंगाल-५, दादर नागर हवेली-१, दमन दीव-१.
चौथा चरण– २९ अप्रैल- ७१ सीटें- बिहार ५, जम्मू-कश्मीर १, झारखंड ३, मध्यप्रदेश ६, महाराष्ट्र १७, ओडिशा ६, राजस्थान १३, उत्तर प्रदेश १३, पश्चिम बंगाल ८
पांचवां चरण– ६ मई- ५१ सीटें- बिहार ५, जम्मू कश्मीर २, झारखंड ४, मध्यप्रदेश ७, राजस्थान १२, उत्तर प्रदेश १४, पश्चिम बंगाल ७
छठवां चरण– १२ मई- ५९ सीटें- बिहार ८, हरियाणा १०, झारखंड ४, मध्यप्रदेश ८, उत्तर प्रदेश १४, पश्चिम बंगाल ८, दिल्ली ७
सातवां चरण-१९ मई- ५९ सीटें- बिहार ८, झारखंड ३, मध्यप्रदेश ८, पंजाब १३, चंडीगढ़ १, पश्चिम बंगाल ९, हिमाचल ४

अब तक नौ बार राजनीतिक दलों को मिले २७२ से ज्यादा सीटें लेकिन...

पूर्ण बहुमत की सरकारों को कभी भी नहीं मिले ५०% वोट

देश में आजादी के बाद से अब तक हुए लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने सात तो भाजपा व जनता पार्टी ने १-१ बार पूर्ण बहुमत से केंद्र में सरकार बनाई, लेकिन कोई भी दल ५० फीसदी वोट हासिल नहीं कर सका, १९८४ के बाद से क्षेत्रीय राजनीतिक दलों के चलते वोट शेयर भी बंटा, लिहाजा ३० वर्ष तक गठबंधन सरकारें रहीं, २०१४ में भाजपा ने २८२ सीटें जीत कर पूर्ण बहुमत से सरकार बनाई, पर उसे भी वोट केवल ३१.४% ही मिले, इस चुनाव में कांग्रेस सिर्फ ४४ सीटों पर सिमट गई, कांग्रेस को १९.६% वोटों पर संतोष करना पड़ा।
किसी पार्टी को लहर में ही मिलता है पूर्ण बहुमत
१९८०: इंदिरा लहर
१९८४: इंदिरा गांधी की हत्या के बाद सहानुभूति लहर
२०१४: बदलाव और विकास की नारा देने वाले नरेंद्र मोदी
की लहर
विपक्षी दल को सबसे कम वोट
२०१४ – कांग्रेस – १९.६%
१९८४- भाजपा – ७.४%

कांग्रेस को १९८४ में मिले ४८.१% वोट

कांग्रेस ने १९५२, १९५७, १९६२, १९६७, १९७१, १९८० के लोकसभा चुनाव में पूर्ण बहुमत से सरकार बनाई, इस दौरान सभी चुनावों में उसे ४० फीसदी से अधिक वोट मिले, सबसे अधिक वोट ४८.१ फीसदी वर्ष १९८४ में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद सहानुभूति लहर के दौरान मिले थे।

बैंकिंग ने आसान बनाया घर व शिक्षा का सपना

सरकारी क्षेत्र के बैंक पंजाब नेशनल बैंक में महाप्रबंधक रहे हैं।
पिछले कुछ समय से भारतीय बैंकिंग प्रणाली एनपीए, धोखाधड़ी और घोटालों को लेकर इतनी चर्चा में रही कि इनके द्वारा हिंदुस्तान की तस्वीर बदलने में दिए गए महत्त्वपूर्ण योगदान को हमने अनदेखा कर दिया, जबकि राष्ट्र निर्माण के संक्रमण काल में बैंकों ने आम आदमी से लेकर बड़े उद्योगपतियों तक को वित्त उपलब्ध करवा कर हमारी अर्थव्यवस्था को प्रगति की ओर अग्रसर करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
कुछ दशक पहले आम आदमी के लिए घर का सपना देखना भी मुश्किल था। आज घर बनाना आसान हो गया है। आम आदमी का बच्चा भी शिक्षा ऋण लेकर देश ही नहीं, विदेश में पढ़ सकता है, ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है जिन्होंने हजारों-लाखों का ऋण लिया और आज करोड़ों का टर्नओवर करके लाभ अर्जित कर रहे हैं।
किसानों की हालत भले ही संतोषजनक नहीं हो, लेकिन गांव में टै्रक्टर व दूसरे आधुनिक उपकरणों का बहुल है। किसानों का एक वर्ग बैंक सुविधाओं से सम्पन्न भी हुआ है। हरित क्रांति, श्वेत क्रांति व कृषि उत्पादन में स्वावलंबन के सफर में बैंकों ने किसान के मित्र के रूप में उसकी मदद की और उसे सूदखोरों के चंगुल से छुड़ाने का भी हर संभव प्रयास किया। कृषि के आधुनिक तकनीक का प्रचार प्रसार, भंडारण तथा विपणन की उचित व्यवस्था और बिचौलियों की समाप्ति हो जाती तो शायद किसानों की कर्ज माफी की मांग नहीं उठती।
बैंकों के आलोचकों को यह सोचना होगा कि यदि बैंकों का सुगम होगा, यदि बैंकों की सुगम ऋण योजनाएं नहीं होती तो कृषि, उद्योग एवं अन्य क्षेत्रों में हमारी विकास दर क्या होती? बैंकों ने वित्तीय समावेश के माध्यम से लगभग हर भारतीय को बैंकिंग सेवा प्रदान की है।
एक ओर तो बड़े ऋण खातों में डिफॉल्ट, घोटालों व धोखाधड़ी से हुई हानि और जनआलोचना तथा दूसरी ओर जवाबदेही, स्टाफ की कमी, बढ़ते कार्यभार व वेतन बढोत्तरी न होने से बैंक कर्मियों का हौसला टूटने लगा है, वे ऋण देने में घबराने लगे हैं, यह घबराहट अर्थव्यवस्था की गति में स्पीड ब्रेकर का कार्य कर रही है। कुछ ऐसे क्रांतिकारी कदम उठाने होंगे कि बैंकों की आर्थिक स्थिति सुधरे।
आज बैंकर्स के लिए सबसे बड़ा सिरदर्द जानबूझकर ऋण नहीं चुकाने वाले बड़े उद्योगपति हैं, जिन्हें ‘विलफुल डिफॉल्टर’ कहा जाता है, इन पर लगाम कसने के लिए पांच करोड़ रूपए से ऊपर के सभी एनपीए खातों में फॉरेंसिक ऑडिट अनिवार्य होनी चाहिए, विलफुल डिफॉल्ट को यदि गैर जमानती अपराध बनाकर विलफुल डिफॉल्टर्स को जेल भेजा जाए तो भी बैंकों की खरबों रूपए की वसूली रातों रात हो सकती है, एक महत्वपूर्ण मुद्दा बैंकों से कृषि, शिक्षा और स्वरोजगार के लिए समय पर, सुगमतापूर्वक तथा पर्याप्त ऋण मिलने का है।
ईज ऑफ डुइंग बिजनेस : पायदान की छलांग लगाई तीन साल में २०१४ में १९० देशों में १२४वां स्थान, २०१६ में १३१वें स्थान पर आया, २०१७ में १००वें स्थान पर आ गया।

-वेद माथुर
बैंकिंग मामलों के जानकर

भाषा, संस्कृति पर जरूरी आक्षेप

पूरी दुनिया में जहां भी लोकतंत्र है, सत्ता की चाह रखने वालों के बीच प्रतिद्वंद्विता, आपसी खींचतान, आरोपप्रत्यारोप सामान्य बात है लेकिन यह शोध का विषय है कि क्या भारत के अतिरिक्त भी कोई ऐसा देश है जहां पक्ष-विपक्ष की कटुता इतनी जहरीली हो कि अपने राजनीतिक विरोधियों की आलोचना करते हुए अपने ही देश की अस्मिता, भाषा और संस्कृति तक को अपमानित करने वाले मौजूद हैं।
सर्वविदित है कि पूर्व राजनयिक, मंत्री और वर्तमान सांसद शशि थरूर ने पिछले दिनों ट्वीट किया, ‘हिन्दी, हिन्दू और हिन्दुत्व की विचारधारा देश (भारत) को बांट रही है, ‘थरूर विदेशों में पढ़े हुए बुद्धिजीवी कहलाते हैं, उनका बड़बोलापन कोई नई बात नहीं है। पिछली सरकार में मंत्री होते हुए किफायत को ‘कैटल क्लास’ घोषित करने वाले थरूर के अंदर का कैटल (पशु) बार-बार अपने असली रूप में आ जाता है। आखिर थरूरी मानसिकता ‘हिन्दी, हिन्दू और हिन्दुत्व’ को कोसने में सुख क्यों महसूस करती है? क्या विदेश में पढ़ने या रहने से उनकी बुद्धि इतनी मलिन हो गई कि उन्हें स्मरण नहीं रहा कि हिन्दी, हिन्दू और हिन्दुत्व ने कभी किसी व्यक्ति, समाज अथवा देश पर स्वयं को नहीं थोपा है, न किसी को अपना उपनिवेश बनाया और न ही किसी का शोषण किया, वास्तविकता तो यह है कि दुनिया भर में जब भी किसी को सताया गया तो भारत ने उसे शरण दी, उसकी भाषा और संस्कृति को अक्षुण रखने में मदद की, उसके धार्मिक विश्वास का सम्मान करते हुए उन्हें हर संभव सहायता दी।
यदि हिन्दुस्तान में ऐसी सहिष्णुता न होती तो अभारतीय विश्वासों के मानने वाले कभी इतने सशक्त और सक्षम हो ही नहीं सकते थे कि ‘अलग कौम’ के नाम पर ‘बंटवारे’ की सोच भी सकते।
क्या थरूर जैसे लोग नहीं जानते या नहीं जानना चाहते कि भारत की प्रथम मस्जिद एक हिन्दू राजा ने बनवायी थी, दुनिया में यदि वास्तविक अर्थों में सहिष्णुता है तो वह भारत में ही है जहां अल्पसंख्यक कहे जाने वाले भी करोड़ों में हैं, यहां जबरन धर्मान्तरण बहुसंख्यकों ने नहीं किया, भिन्न विश्वास को मानने वालों पर जजिया किसी हिन्दू राजा ने नहीं लगाया, मुठी भर विदेशी आक्रांताओं के वंशजों की संख्या करोड़ों होना अगर असहिष्णुता है तो सहिष्णुता आखिर क्या है? थरूर जैसे लोग जानबूझ कर अपने ही देश की संस्कृति को बदनाम करते हैं जबकि वे बखूबी जानते हैं कि हिन्दुत्व आज से नहीं, सदियों से ‘वसुधैव कुटुंबकम’ और ‘सर्वधर्म सद्भाव’ का पर्याय रहा है हालांकि निष्पक्ष इतिहासकारों ने ‘अति उदार’ व्यवहार के कारण उसकी सीमाएं लगातार सिकुड़ने की बात भी कही है, सबको जोड़ने वाली विचारधारा पर थरूरी आक्षेप और कुछ नहीं बल्कि स्वयं और स्वयं के दल के अप्रासंगिक हो जाने की बौखलाहट है, यह किसी विवेकशील देशभक्त की भाषा नहीं।
‘हिन्दी, हिन्दू और हिन्दुत्व’ का सम्मान करने वाले समझते हैं कि ‘थरूरों के पैरों तले की जमीन खिसक रही है वे स्वयं को चर्चा में लाने अथवा अपना महत्व प्रदर्शित करने के लिए देश की जनता का मनोबल तोड़ने का उपक्रम कर रहे हैं’ थरूर और उनके आका जिन्हें बेवकूफ समझ रहे हैं या बेवकूफ बनाने का प्रयास कर रहे हैं, पूरी दुनिया ने उनके उस कौशल को देखा है जब उसने क्रूरों थरूरों को भूलुंठित किया है।
ऐसा नहीं कि कांग्रेसी नेता शशि थरूर भारतीय जीवन शैली और भाषाओं से परिचित ना हों, वास्तव में वे जानबूझ कर भारत, भारतीयता और भारतीय विश्वास को कमजोर करना चाहते हैं, ऐसा करने के लिए ‘फूट डालो और राज करो’ के अपने आकाओं के पुराने दांव आजमा रहे हैं, वे जानबूझ कर भ्रम पैदा कर रहे हैं जबकि ‘हिंदी बांटने वाली नहीं, जोड़ने वाली भाषा’ है, इस देश का सामान्यजन अपनी मातृभाषा और हिंदी दोनों का सम्मान करता है, उसके लिए
ये दोनों उसकी दो आंखों के समान है, दोनों को जरूरी परंतु इन दोनों आंखों को लड़ा कर तीसरी आंख को सशक्त करने वालों की बेचैनी जगजाहिर है, यदि थरूर उसी अभियान को आगे बढ़ा रहे हैं तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
जानते हुए भी वह यह मानने को तैयार नहीं कि विश्व में प्राचीनतम एवं सर्वाधिक समृद्ध और वैज्ञानिक भाषा संस्कृत कभी हर हिंदुस्तानी की भाषा रही है। भाषायी विकास की प्रक्रिया में ‘हिंदी’ सहित लगभग सभी भारतीय भाषाओं का उद्भव हुआ, इस तरह सभी भारतीय भाषाएं सहोदर हैं, हिंदी केवल हिंदुओं की भाषा नहीं है, यह मुस्लिम, ईसाई, बौद्ध, जैन, सिख सहित सभी भारतीयों की भाषा है, सभी भाषा भाषियों ने इसे समृद्ध करने में अपना योगदान दिया है, स्वतंत्रतासंग्राम हो या अन्य कोई आंदोलन ‘हिंदी’ की भूमिका सबको जोड़कर सफलता के द्वार पर दस्तक देने की रही है। गांधी जी ने हिन्दी को भारत की राष्ट्रभाषा के रूप में स्थापित करने के लिए अनेक प्रयास किये, क्या थरूर इतने अल्पज्ञ हैं कि उन्हें गांधी जी द्वारा ‘दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा’ की स्थापना की जानकारी न हो, संभवत: सेक्युलर रोग उन्हें बौद्धिक रूप से दिवालिया बना रहा है।
स्वयं को बुद्धिजीवी घोषित करने वाले थरूर को देश के उच्चतम न्यायालय द्वारा हिन्दुत्व को जीवन शैली मानने के बारे में जानना चाहिए, उन्हें फिर से समझना चाहिए कि हिन्दुत्व ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ का उद्घोषक, प्रचारक और पालक है, उसकी स्थापना किसी पैगंबर या ईश्वरीय दूत ने नहीं की है।
सिंधु नदी के ‘उस’ पार वालों द्वारा ‘इस’ पार वालों के लिए प्रयुक्त शब्द हिंदु विशुद्ध रूप से भौगोलिक और सांस्कृतिक पहचान है, संकीर्ण मानसिकता वाले ही इसे नकार कर बदनाम करते हैं, वास्तव में इस देश का हर व्यक्ति जो स्वयं को भारत माता की संतान मानता है, भिन्न-भिन्न पूजा उपासना पद्धति को मानने के बावजूद सहोदर है, हिन्दुस्तानी है और विभाजक थरूरी आपेक्षों का निंदक है।
वैसे यह कम कष्ट की बात नहीं कि ‘स्वयं को हिन्दुत्व का पेरोकार साबित करने के लिए बेचैन थरूर के दल कांग्रेस के अध्यक्ष ने हिन्दी और हिन्दुत्व के विरुद्ध विषवमन करने वाले अपने इस नेता से असंबंद्धता की जानकारी अब तक इस देश को नहीं दी, उन्हें तत्काल सामने आकर इस विभाजक अंग्रेजीदां को अपने दल से निकाल बाहर करने की घोषणा करनी चाहिए क्योंकि मगरूर थरूर उनके लिए भी बोझ के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।

- डॉ. विनोद बब्बर

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