सहयोग करें स्व कल्याण के साथ…
by Bijay Jain · Published · Updated
-श्री जनकल्याण गौपाल गौशाला, मारोठ
मारोठ: श्री जनकल्याण गोपाल गौशाला मारोठ की में सौलह वर्ष पूर्व गौपालन का कार्य प्रारम्भ हुआ जिसमें ग्राम के समस्त वर्ग शामिल हुए, बाद में कार्यकारिणी का गठन किया गया, क्योंकि यह हमारे भारत की संस्कृति ओर भगवान श्री कृष्ण स्वयं गौवंश चराया करते थे, गाय हमारे जन्म से लेकर मृत्यु तक काम में आती है, यहाँ तक मृत्युपरांत तर्पण भी गाय की पूँछ से ही होता है, जब भारत देश आजाद हुआ था तब साठ करोड़ की आबादी में इठानवें करोड़ गौवंश था और आज एक अरब पच्चीस करोड़ की आबादी और उन्नीस १९ करोड़ गौवंश है इससे कलयुग का प्रभाव व हमारे संस्कार अपवित्र हो रहे हैं। गौरक्षा के लिए प्राण न्यौछावर करने वाले इस देश में राजा महाराज तक हुए हैं और कामधेनु जैसी गौमाता ने पुरी फौज को इच्छानुसार भोजन कराकर तृप्त कर दिया था, इच्छित आकांक्षाओं की जानकारी होने पर सन्त महात्माओं एवं भामाशाहों व सरकारों ने सदैव ही इसकी हिफाजत व पालन-पोषण के लिए भूमीदान, अर्थदान एवं श्रमदान से गौपालन को प्रगति प्रदान की है, इसमें सरकार का असहयोग और कल्ल खानों की स्वीकृति जैसा दौष भी मौजूद है, आज तीन करोड़ के आस-पास गौवंश का पालन गौशालाओं के माध्यम से हो रहा है जिसमें राजस्थान अव्वल श्रेणी में आता है यह सब सरकारी रिकार्ड के अनुसार प्राप्त है।
श्री जन कल्याण गौपाल गौशाला मारोठ में गौवंश उपचार केन्द्र पक्षी व जंगली जानवर कीड़-मकौड़े तक का उपचार केन्द्र व प्रतिरोज कबूतर एवं पक्षीदाना व कीड़ी नाल व्यवस्था यथावत निरन्तर चालू रहती है, राजस्थान में प्राय: कम वर्षा से अकाल आदि से ग्रस्त काश्तकार व्यवस्था को बोझ उठाने में असमर्थता महसूस करता है तथा अधिकांश भामाशाह व व्यवसायी प्रवासी हो गए हैं तथा गौशाला में आय के साधन बहुत ही सीमित हैं लेकिन कार्यकारिणी व संरक्षक कर्ज लेकर भी निरन्तर गौशाला का निर्माण व पालन पोषण करते आ रहे हैं, यह सब आप लोगों व भगवान की कृपा से ही संभव है, आज गौशाला के संरक्षक एवं अध्यक्ष भंवरलाल बाबेल नागौर जिला गौ कल्याण संघ के अध्यक्ष होने के कारण नावां तहसील में दो के स्थान पर ६६ व नागौर जिले में १३० के स्थान पर छह सौ पचास गौशालाएं भगवान एवं भामाशाहों के सहयोग से संचालित कराने में प्रमुख भूमिका निभा रहे हैं साथ गौवंश की समस्याओं के निराकरण हेतु केन्द्र-राज्य सरकार एवं सुप्रिम कोर्ट तक की कार्यवाहियों में सदैव संलिप्त रहते हैं, तथा कत्लखाने बंद करवाने व अन्य आंदोलनों में सदैव भागीरदारी निभाते रहते हैं, जब तक गौमाता का अनाचार से एक बूंद भी रक्त गिरेगा पृथ्वी पर भीषण वातावरण बना रहेगा व कलयुग के दोषों से मानव मुक्त नहीं होगा, गाय बचेगी तब ही देश बचेगा, जैसे वेद के बिना मति नहीं गाय के बिना गति नहीं होगी, गौमाता के समान देश में प्रेम करने वाला कोई नहीं है, इसका दूध पीने वाला कोई भी अपने से बड़ों का अपमान नहीं कर सकता, गाय केवल चारा गुजारा नहीं चाहती, अपना कोई प्यारा पुजारा चाहती है, लक्ष्मीजी की जड़ के मूल का नाम गौमाता है दान बंद हो जायेगा तो धरती का कल्याण रूक जायेगा, धन की तीन गति होती है दान, भोग और नाश अत: मुक्त हस्त से दान की प्रार्थना की जाती रही है।
मारोठ गौशाला में गौवंश की संख्या छ सौ दस है, भविष्य में बढ़ने की संभावना है। कार्यशैली का निरीक्षण कराने हेतु अनुरोध है संपर्क करें:
-भंवरलाल बाबेल, ०१५८६-२७७०३४-३५, ९६१०४३५५९८
गरीबों की सरकार है कांग्रेस
नगरपालिका द्वारा आयोजित कार्यक्रम का उद्घाटन करते हुए मंत्री आंजना
बड़ीसादड़ी: लोकसभा चुनाव के बाद प्रदेश में ग्राम सेवा सहकारी समिति का पुनर्गठन किया जाएगा और हर वर्ष में चुनाव भी करवाए जाएंगे। ग्राम सेवा सहकारी समितियों का पूर्ण गठन होगा, उक्त उद्वोधन राजस्थान सरकार के इंदिरा गांधी नहर परियोजना व सहकारिता विभाग के मंत्री उदयलाल आंजना ने नगर पालिका द्वारा आयोजित विभिन्न उद्धाटन कार्यक्रमों में कही।
नगरपालिका द्वारा आयोजित विभिन्न विकास कार्य के लोकार्पण में सहकारिता मंत्री आंजना ने नगरपालिका के मुख्य द्वार, फायर स्टेशन, सभागार, पालिकाध्यक्ष चेंबर, स्वामी बंशीधराचार्य यात्री प्रतीक्षालय व विभिन्न हुए विकास कार्य के लोकार्पण किया व मोटर गैराज के लिए भूमि पूजन किया गया।
रात्रि ८ बजे आए मंत्री आंजना-नगरपालिका द्वारा विभिन्न विकास कार्य व लोकार्पण कार्यक्रम में दोपहर ३ बजे से कांग्रेस कार्यकर्ता मंत्री उदयलाल आंजना का इंतजार कर रहे थे। रात्रि ८ बजे मंत्री आंजना नगर में प्रवेश किए तो कार्यकर्ताओं ने उनका भव्य स्वागत किया। कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने कार्यक्रम में देरी से आने का कारण पूछा तो मंत्री आंजना ने कहा कि वे राजसमंद जिले के प्रभारी मंत्री हैं वहां के जवान की अंतिम यात्रा में जाना जरूरी था, इसलिए उनको आने में देरी हो गई। पालिका अध्यक्ष दिलीप चौधरी, पूर्व विधायक प्रकाश चौधरी, पूर्व ब्लाक कांग्रेस अध्यक्ष अभय मेहता, फल सब्जी मंडी अध्यक्ष नाथूलाल भोई, नगर अध्यक्ष मुस्तफा बोहरा आदि कांग्रेस कार्यकर्ता उपस्थित थे।
कीर्ति आजाद हुए कांग्रेस में शामील
नई दिल्ली: बिहार के दरभंगा के सांसद और भाजपा के निलंबित नेता कीर्ति आजाद कांग्रेस में शामील हो गए हैं।
कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की मौजूदगी में कीर्ति आजाद ने कांग्रेस की सदस्यता ग्रहण की है।
आजाद दरअसल १४ फरवरी को कांग्रेस में शामिल होने वाले थे लेकिन पुलवामा में आतंकी हमले के बाद उन्होंने तारीख आगे बढ़ा दी थी।
कीर्ति आजाद ने ट्वीट किया कि कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी जी ने मुझे कांग्रेस की सदस्यता ग्रहण कराई है, मैंने मिथिला की परंपरा में उनको मखाना की माला, पाग, चादर से सम्मानित किया।
वरिष्ठ पत्रकार व सम्पादक बिजय कुमार जैन ‘हिंदी सेवी’ की समाजिक सेवा
मरोल सिटिजन वेलफेअर एसोसिएशन का अभियान जारी
स्वच्छ अंधेरी की पहल
दिनांक ३/०२/१९ फरवरी रविवार की सुबह मरोल वेलफेयर के सभी सदस्यों ने मिलकर एक नयी पहल शुरूआत की कि हमारा विजय नगर स्वच्छ हो, इसलिए उन्होंने दीवारों पर चित्रकारी कार्यक्रम का आयोजन करवाया, इसमें दीवारों पर चित्रकारी के माध्यम से स्वच्छता का संदेश पहुँचाना है। कार्यक्रम की संचालक श्रीमती ट्रेजा जो संस्था की चेयरमैन भी हैं, उन्होंने पूरे कार्यक्रम को सरल रूप में आयोजित किया।
कार्यक्रम की शुरूआत-बिजय कुमार जैन ‘हिंदी सेवी’ ईस्ट वेस्ट अंधेरी टाईम्स के संपादक ने अपने वक्तव्यों से किया। कार्यक्रम का आयोजन पूर्व नगरसेवक प्रमोद सावंत और वर्तमान नगरसेविका प्रियंका सावंत के करकमलों द्वारा संपन्न हुआ तथा प्रमोद सावंत ने अपने विचारों को व्यक्त करते हुए अपने वक्तव्य में स्वच्छता के महत्व को समझाते हुए प्रत्येक व्यक्ति से यह अपिल की, कि स्वच्छता अभियान में प्रत्येक व्यक्ति अपना योगदान दे तथा प्रियंका सावंत जी ने भी अभियान को आगे बढाने और स्वच्छ भारत की इच्छा व्यक्त करते हुए कहा कि प्रत्येक व्यक्ति यदि जुड़े तो हमारा मरोल स्वच्छ अवश्य होगा। संस्था के सदस्य सुरेश नायर ने भी अपने विचारों को व्यक्त करते हुए इस अभियान की पृष्टि की, सभी सदस्यों को एक साथ मिलकर कार्य करने की विशेषता बतलाई, इस प्रकार कार्यक्रम में मंत्री सतनाम सिंह को भी पूर्ण रूप से कार्यक्रम की सफलता के लिए अपना योगदान दिया।
ईवेटा
सर्वकामना सिद्धि हेतु जपें भगवान परशुराम के विशेष मंत्र
भगवान विष्णु के दशावतार में छठे अवतार भगवान परशुराम क्रोध और दानशीलता में उनका कोई सानी नहीं है। शस्त्र और शास्त्र के ज्ञाता सिर्फ और सिर्फ भगवान परशुराम ही माने जाते हैं। भगवान शिव ने उन्हें मृत्युलोक के कल्याणार्थ परशु अस्त्र प्रदा न किया जिससे वे परशुराम कहलाए, वे परम शिवभक्त थे।
उन्होंने सहदााार्जुन की इहलीला समाप्त कर दी। प्रायश्चित के लिए सभी तीर्थों में तपस्या की। गणेशजी को एकदंत करने वाले भी परशुराम थे। पृथ्वी को १७ बार क्षत्रियों से विहीन करने वाले भगवान परशुराम ही थे, उनकी दानशीलता ऐसी थी कि समस्त पृथ्वी ही ऋषि कश्यप को दान कर दी, उनके शिष्यत्व का लाभ दानवीर कर्ण ही ले पाए जिसे उन्होंने ब्रह्मास्त्र की दीक्षा दी।
भगवान परशुराम की सेवा-साधना करने वाले भक्त भूमि, धन, ज्ञान, अभीष्ट सिद्धि, दारिद्रय से मुक्ति, शत्रु नाश, संतान प्राप्ति, विवाह, वर्षा, वाक् सिद्धि इत्यादि पाते हैं, महामारी से रक्षा कर सकते हैं।
अक्षय तृतीया के दिन सर्वकामना की सिद्धि हेतु भगवान परशुराम के गायत्री मंत्र का जाप करना चाहिए।
मंत्र इस प्रकार हैं : –
१. ‘ॐ ब्रह्मक्षत्राय विद्महे क्षत्रियान्ताय धीमहि तन्नो राम: प्रचोदयात्।।’
२. ‘ॐ जामदग्न्याय विद्महे महावीराय धीमहि तन्नो परशुराम: प्रचोदयात्।।’
३. ‘ॐ रां रां ॐ रां रां परशुहस्ताय नम:।।’
जप-ध्यान कर दशांस हवन करें तथा हर प्रकार की समस्याएं दूर करें।
परशुराम के वंशज हैं हम ब्राह्मण
गुमला: ब्राह्मण परशुराम के वंशज हैं, ब्राह्मणों को अपनी सभ्यता एवं संस्कृति को बचाए रखने के लिए आगे आना होगा, जय ब्राह्मण समाज द्वारा एसएस उच्च विद्यालय में आयोजित परशुराम जयंती समारोह में मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित रांची से आए उदय शंकर ओझा ने उक्त बातें कही, कहा कि ईश्वर ने ब्राह्मणों को मां के गर्भ से ही श्रेष्ठ बनाकर भेजा है।
उन्होंने कहा कि भगवान परशुराम में जो विद्वता एवं वीरता थी उसे ब्राह्मणों को अपने में आत्मसात करना होगा। समाज में फैली दहेज प्रथा पर रोक लगानी होगी, साथ ही मेधावी गरीब बच्चे-बच्चियों का भविष्य संवारने के लिए आगे हाथ बढ़ाना होगा तभी समाज आगे बढ़ सकता है। कार्यक्रम में आचार्य यमुना पाठक, अजय नाथ पांडेय, भाजपा जिलाध्यक्ष विजय मिश्रा ने भी अपने-अपने विचार व्यक्त किए। कार्यक्रम में नगर पंचायत के चुनाव में ब्राह्मण समाज की निर्वाचित वार्ड पार्षद शैल मिश्रा, सोमनाथ बनर्जी एवं श्रीमती मधु प्रिया को शॉल ओढ़ाकर परिषद की ओर से सम्मानित किया गया। कार्यक्रम में रमाकांत त्रिपाठी, मदन मोहन पांडेय, सत्यजीत देवघरिया, कमला पांडेय, गोविंद राम दीवान, अंशु चौबे, सुभाषचंद्र राय, नित्यानंद पाठक, नारायण तिवारी, विनोद पांडेय, बलीनाथ पाठक, द्वारिका नाथ मिश्रा, नीरज मिश्र, राजेन्द्र मिश्र, प्रभाष दुबे, रमेश तिवारी, अनिरूद्ध पाठक सहित काफी संख्या में लोग उपस्थित थे।
उदयशंकर
भगवान परशुराम
परशुराम त्रेता युग (रामायण काल) के एक ब्राह्मण हैं, उन्हें विष्णु का छठा अवतार भी कहा जाता है, पौराणिक वृत्तान्तों के अनुसार उनका जन्म भृगुश्रेष्ठ महर्षि जमदग्नि द्वारा सम्पन्न पुत्रेष्टि यज्ञ से प्रसन्न देवराज इन्द्र के वरदान स्वरूप पत्नी रेणुका के गर्भ से वैशाख शुक्ल तृतीया को हुआ था, वे भगवान विष्णु के छठे अवतार थे। पितामह भृगु द्वारा सम्पन्न नामकरण संस्कार के अनन्तर राम, जमदग्नि का पुत्र होने के कारण जामदग्न्य और शिवजी द्वारा प्रदत्त परशु धारण किये रहने के कारण वे परशुराम कहलाये। आरम्भिक शिक्षा महर्षि विश्वामित्र एवं ऋचीक के आश्रम में प्राप्त होने के साथ ही महर्षि ऋचीक से सारंग नामक दिव्य वैष्णव धनुष और ब्रह्मर्षि कश्यप से विधिवत अविनाशी वैष्णव मन्त्र प्राप्त हुआ, तदनन्तर कैलाश गिरिश्रृंग पर स्थित भगवान शंकर के आश्रम में विद्या प्राप्त कर विशिष्ट दिव्यास्त्र विद्युदभि नामक परशु प्राप्त किया, शिवजी से उन्हें श्रीकृष्ण का त्रैलोक्य विजय कवच, स्तवराज स्तोत्र एवं मन्त्र कल्पतरु भी प्राप्त हुए, चक्रतीर्थ में किये कठिन तप से प्रसन्न हो भगवान विष्णु ने उन्हें त्रेता में रामावतार होने पर तेजोहरण के उपरान्त कल्पान्त पर्यन्त तपस्यारत भूलोक पर रहने का वर दिया।
वे शस्त्रविद्या के महान गुरु थे, उन्होंने भीष्म, द्रोण व कर्ण को शस्त्रविद्या प्रदान की थी, उन्होंने एकादश छन्दयुक्त ‘शिव पंचतत्वारिंशनाम स्तोत्र’ भी लिखा, इच्छित फल-प्रदाता परशुराम गायत्री है-
‘ॐ जामदग्न्याय विद्महे महावीराय धीमहि, तन्नोपरशुराम: प्रचोदयात्।’ वे पुरुषों के लिये आजीवन एक पत्नीव्रत के पक्षधर थे, उन्होंने अत्रि की पत्नी अनसूया, अगस्त्य की पत्नी लोपामुद्रा व अपने प्रिय शिष्य अकृतवण के सहयोग से विराट नारी-जागृति-अभियान का संचालन भी किया था, अवशेष कार्यों में कल्कि अवतार होने पर उनका गुरुपद ग्रहण कर उन्हें शस्त्रविद्या प्रदान करना भी बताया गया है।
पौराणिक परिचय : परशुरामजी का उल्लेख रामायण, महाभारत, भागवत पुराण और कल्कि पुराण इत्यादि अनेक ग्रन्थों में किया गया है, वे अहंकारी और धृष्ट हैहय वंशी क्षत्रियों का पृथ्वी से २१ बार संहार करने के लिए प्रसिद्ध हैं, वे धरती पर वैदिक संस्कृति का प्रचार-प्रसार करना चाहते थे, कहा जाता है कि भारत के अधिकांश ग्राम उन्हीं के द्वारा बसाये गये, जिसमें कोंकण, गोवा एवं केरल का समावेश है। पौराणिक कथा के अनुसार भगवान परशुराम ने तीर चला कर गुजरात से लेकर केरल तक समुद्र को पिछे धकेलते हुए नई भूमि का निर्माण किया और इसी कारण कोंकण, गोवा और केरल में भगवान परशुराम वंदनीय है और तीर के तेज से उत्पन्न ब्राह्मण को ब्रह्मर्षि ब्राह्मण भी कहते हैं जिसमें बिहार के योद्धा भूमिहार ब्राह्मण, महाराष्ट्र के चित्तपावन, पंजाब के मोहयाल अपनी उत्तपत्ति भगवान परशुराम से मानते हैं, वे भार्गव गोत्र की सबसे आज्ञाकारी सन्तानों में से एक थे, जो सदैव अपने गुरुजनों और माता-पिता की आज्ञा का पालन करते थे, वे सदा बड़ों का सम्मान करते थे और कभी भी उनकी अवहेलना नहीं करते थे, उनका भाव इस जीव सृष्टि को इसके प्राकृतिक सौंदर्य सहित जीवन्त बनाये रखना था, वे चाहते थे कि यह सारी सृष्टि पशु पक्षियों, वृक्षों, फल-फूल औए समूची प्रकृति के लिए जीवन्त रहे, उनका कहना था कि राजा का धर्म वैदिक जीवन का प्रसार करना है ना कि अपनी प्रजा से आज्ञापालन करवाना, वे एक ब्राह्मण के रूप में जन्में अवश्य थे लेकिन कर्म से एक क्षत्रिय थे, उन्हें भार्गव के नाम से भी जाना जाता है, यह भी ज्ञात है कि परशुराम ने अधिकांश विद्याएँ अपनी बाल्यावस्था में ही अपनी माता की शिक्षाओं से सीख ली थी (वह शिक्षा जो ८ वर्ष से कम आयु वाले बालकों को दी जाती है) वे पशु-पक्षियों तक की भाषा समझते थे और उनसे बात कर सकते थे, यहाँ तक कि कई खूँखार वनैले पशु भी उनके स्पर्श मात्र से ही उनके मित्र बन जाते थे, उन्होंने सैन्यशिक्षा केवल ब्राह्मणों को ही दी, लेकिन इसके कुछ अपवाद भी हैं जैसे भीष्म और कर्ण। उनके जाने-माने शिष्य थे – भीष्म द्रोण, कौरव-पाण्डवों के गुरु व अश्वत्थामा के पिता एवं कर्ण।
कर्ण को यह ज्ञात नहीं था कि वह जन्म से क्षत्रिय है, लेकिन उसका सामथ्र्य छुपा न रह सका, उन्होंने परशुराम को यह बात नहीं बताई की वह सूत है और भगवान परशुराम से शिक्षा प्राप्त कर ली, यदि कर्ण उन्हें अपने शुद्र होने की बात बता भी देते तो भी भगवान परशुराम कर्ण के तेज और सामथ्र्य को देख उन्हें सहर्ष शिक्षा देने को तैयार हो जाते, किन्तु जब परशुराम को इसका ज्ञान हुआ तो उन्होंने कर्ण को यह श्राप दिया कि उनका सिखाया हुआ सारा ज्ञान उसके किसी काम नहीं आएगा, जब उसे उसकी सर्वाधिक आवश्यकता होगी, इसलिए जब कुरुक्षेत्र के युद्ध में कर्ण और अर्जुन आमने-सामने होते हैं तब वह अर्जुन द्वारा मार दिया जाता है क्योंकि उस समय कर्ण को ब्रह्मास्त्र चलाने का ज्ञान ध्यान में ही नहीं रहा।
जन्म : प्राचीन काल में कन्नौज में गाधि नाम के एक राजा राज्य करते थे, उनकी सत्यवती नाम की एक अत्यन्त रूपवती कन्या थी। राजा गाधि ने सत्यवती का विवाह भृगुनन्दन ऋषीक के साथ कर दिया। सत्यवती के विवाह के पश्चात् वहाँ भृगु ऋषि ने आकर अपनी पुत्रवधू को आशीर्वाद दिया और उससे वर माँगने के लिये कहा, इस पर सत्यवती ने श्वसुर को प्रसन्न देखकर उनसे अपनी माता के लिये एक पुत्र की याचना की, सत्यवती की याचना पर भृगु ऋषि ने उसे दो चरु पात्र देते हुए कहा कि जब तुम और तुम्हारी माता ऋतु स्नान कर चुकी हो, तब तुम्हारी माँ पुत्र की इच्छा लेकर पीपल का आलिंगन करना और तुम उसी कामना को लेकर गूलर का आलिंगन करना, फिर मेरे द्वारा दिये गये इन चरुओं का सावधानी के साथ अलग-अलग सेवन कर लेना, इधर जब सत्यवती की माँ ने देखा कि भृगु ने अपने पुत्रवधू को उत्तम सन्तान होने का चरु दिया है तो उसने अपने चरु को अपनी पुत्री के चरु के साथ बदल दिया, इस प्रकार सत्यवती ने अपनी माता वाले चरु का सेवन कर लिया, योगशक्ति से भृगु को इस बात का ज्ञान हो गया और वे अपनी पुत्रवधू के पास आकर बोले कि पुत्री! तुम्हारी माता ने तुम्हारे साथ छल करके तुम्हारे चरु का सेवन कर लिया है, इसलिये अब तुम्हारी सन्तान ब्राह्मण होते हुये भी क्षत्रिय जैसा आचरण करेगी और तुम्हारी माता की सन्तान क्षत्रिय होकर भी ब्राह्मण जैसा आचरण करेगी, इस पर सत्यवती ने भृगु से विनती की, कि आप आशीर्वाद दें कि मेरा पुत्र ब्राह्मण का ही आचरण करे, भले ही मेरा पौत्र क्षत्रिय जैसा आचरण करे। भृगु ने प्रसन्न होकर उसकी विनती स्वीकार कर ली, समय आने पर सत्यवती के गर्भ से जमदग्नि का जन्म हुआ, जमदग्नि अत्यन्त तेजस्वी थे, बड़े होने पर उनका विवाह प्रसेनजित की कन्या रेणुका से हुआ, रेणुका से उनके पाँच पुत्र हुए जिनके नाम थे – रुक्मवान, सुखेण, वसु, विश्वानस और परशुराम।
माता पिता भक्त परशुराम : श्रीमद्भागवत में दृष्टान्त है कि गन्धर्वराज चित्ररथ को अप्सराओं के साथ विहार करता देख हवन हेतु गंगा तट पर जल लेने गई रेणुका आसक्त हो गयी और कुछ देर तक वहीं रुक गयी। हवन काल व्यतीत हो जाने से क्रुद्ध मुनि जमदग्नि ने अपनी पत्नी के आर्य मर्यादा विरोधी आचरण एवं मानसिक व्यभिचार करने के दण्ड स्वरूप सभी पुत्रों को माता रेणुका का वध करने की आज्ञा दी।
अन्य भाइयों द्वारा ऐसा दुस्साहस न कर पाने पर पिता के तपोबल से प्रभावित परशुराम ने उनकी आज्ञानुसार माता का शिरोच्छेद एवं उन्हें बचाने हेतु आगे आये अपने समस्त भाइयों का वध कर डाला, उनके इस कार्य से प्रसन्न जमदग्नि ने जब उनसे वर माँगने का आग्रह किया तो परशुराम ने सभी के पुनर्जीवित होने एवं उनके द्वारा वध किए जाने सम्बन्धी स्मृति नष्ट हो जाने का ही वर माँगा।
पिता जमदग्नि की हत्या और परशुराम का प्रतिशोध : कथानक है कि हैहय वंशाधिपति कात्र्तवीर्य अर्जुन (सहस्त्रार्जुन) ने घोर तप द्वारा भगवान दत्तात्रेय को प्रसन्न कर एक सहस्त्र भुजाएँ तथा युद्ध में किसी से परास्त न होने का वर पाया था। संयोगवश वन में आखेट करते वह जमदग्नि मुनि के आश्रम जा पहुँचा और देवराज इन्द्र द्वारा उन्हें प्रदत्त कपिला कामधेनु की सहायता से हुए समस्त सैन्यदल के अद्भुत आतिथ्य सत्कार पर लोभवश जमदग्नि की अवज्ञा करते हुए कामधेनु को बलपूर्वक छीनकर ले गया।
कुपित परशुराम ने फरसे के प्रहार से उसकी समस्त भुजाएँ काट डालीं व सिर को धड़ से पृथक कर दिया, तब सहस्त्रार्जुन के पुत्रों ने प्रतिशोध स्वरूप परशुराम की अनुपस्थिति में उनके ध्यानस्थ पिता जमदग्नि की हत्या कर दी। रेणुका पति की चिताग्नि में प्रविष्ट हो सती हो गयीं, इस काण्ड से कुपित परशुराम ने पूरे वेग से महिष्मती नगरी पर आक्रमण कर दिया और उस पर अपना अधिकार कर लिया, इसके बाद उन्होंने एक के बाद एक पूरे इक्कीस बार इस पृथ्वी से क्षत्रियों का विनाश किया, यही नहीं उन्होंने हैहय वंशी क्षत्रियों के रुधिर से स्थलत पंचक क्षेत्र के पाँच सरोवर भर दिये और पिता का श्राद्ध सहस्त्रार्जुन के पुत्रों के रक्त से किया, अन्त में महर्षि ऋचीक ने प्रकट होकर परशुराम को ऐसा घोर कृत्य करने से रोका, इसके पश्चात उन्होंने अश्वमेघ महायज्ञ किया और सप्तद्वीप युक्त पृथ्वी महर्षि कश्यप को दान कर दी, केवल इतना ही नहीं, उन्होंने देवराज इन्द्र के समक्ष अपने शस्त्र त्याग दिये और सागर द्वारा उच्छिष्ट भूभाग महेन्द्र पर्वत पर आश्रम बनाकर रहने लगे।
हैहयवंशी क्षत्रियों का विनाश : माना जाता है कि परशुराम ने २१ बार हैहयवंशी क्षत्रियों को समूल नष्ट किया था। क्षत्रियों का एक वर्ग है जिसे हैहयवंशी समाज कहा जाता है यह समाज आज भी है, इसी समाज में एक राजा हुए थे सहस्त्रार्जुन। परशुराम ने इसी राजा और इनके पुत्र और पौत्रों का वध किया था और उन्हें इसके लिए २१ बार युद्ध करना पड़ा था।
कौन था सहस्त्रार्जुन: सहस्त्रार्जुन एक चन्द्रवंशी राजा था, जिसके पूर्वज थे महिष्मन्त जिन्होंने नर्मदा के किनारे महिष्मती नामक नगर बसाया था, इन्हीं के कुल में आगे चलकर दुर्दुम के उपरान्त कनक के चार पुत्रों में सबसे बड़े कृतवीर्य ने महिष्मती के सिंहासन को सम्हाला। भार्गव वंशी ब्राह्मण इनके राज पुरोहित थे। भार्गव प्रमुख जमदग्नि ऋषि (परशुराम के पिता) से कृतवीर्य के मधुर सम्बन्ध थे, कृतवीर्य के पुत्र का नाम भी अर्जुन था। कृतवीर्य का पुत्र होने के कारण ही उन्हें कात्र्तवीर्यार्जुन भी कहा जाता है। कात्र्तवीर्यार्जुन ने अपनी अराधना से भगवान दत्तात्रेय को प्रसन्न किया था। भगवान दत्तात्रेय ने युद्ध के समय कात्र्तवीर्याजुन को हजार हाथों का बल प्राप्त करने का वरदान दिया था, जिसके कारण उन्हें सहस्त्रार्जुन या सहदााबाहु कहा जाने लगा, सहस्त्रार्जुन के पराक्रम से रावण भी घबराता था।
युद्ध का कारण: ऋषि वशिष्ठ से शाप का भाजन बनने के कारण सहस्त्रार्जुन की मति मारी गई थी, सहस्त्रार्जुन ने परशुराम के पिता जमदग्नि के आश्रम में एक कपिला कामधेनु गाय को देखा और उसे पाने की लालसा से वह कामधेनु को बलपूर्वक आश्रम से ले गया, जब परशुराम को यह बात पता चली तो उन्होंने पिता के सम्मान के खातिर कामधेनु वापस लाने की सोची और सहस्त्रार्जुन से उन्होंने युद्ध किया। युद्ध में सहस्त्रार्जुन की सभी भुजाएँ कट गईं और वह मारा गया, तब सहस्त्रार्जुन के पुत्रों ने प्रतिशोधवश परशुराम की अनुपस्थिति में उनके पिता जमदग्नि को मार डाला। परशुराम की माँ रेणुका पति की हत्या से विचलित होकर उनकी चिताग्नि में प्रविष्ट हो सती हो गयी, इस घोर घटना ने परशुराम को क्रोधित कर दिया और उन्होंने संकल्प लिया-मैं हैहय वंश के सभी क्षत्रियों का नाश करके ही दम लूँगा’ उसके बाद उन्होंने अहंकारी और दुष्ट प्रकृति के हैहयवंशी क्षत्रियों से २१ बार युद्ध किया। क्रोधाग्नि में जलते हुए परशुराम ने सर्वप्रथम हैहयवंशियों की महिष्मती नगरी पर अधिकार किया, तदुपरान्त कात्र्तवीर्यार्जुन का वध।
कात्र्तवीर्यार्जुन के दिवंगत होने के बाद उनके पाँच पुत्र जयध्वज, शूरसेन, शूर, वृष और कृष्ण अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ते रहे।
दन्तकथाएँ : ब्रह्मवैवर्त पुराण में कथानक मिलता है कि कैलाश स्थित भगवान शंकर के अन्त:पुर में प्रवेश करते समय गणेश जी द्वारा रोके जाने पर परशुराम ने बलपूर्वक अन्दर जाने की चेष्ठा की तब गणपति ने उन्हें स्तम्भित कर अपनी सूँड में लपेटकर समस्त लोकों का भ्रमण कराते हुए गोलोक में भगवान श्रीकृष्ण का दर्शन कराके भूतल पर पटक दिया। चेतनावस्था में आने पर कुपित परशुरामजी द्वारा किए गए फरसे के प्रहार से गणेश जी का एक दाँत टूट गया, जिससे वे एकदन्त कहलाये।
रामायण काल : उन्होंने त्रेतायुग में रामावतार के समय शिवजी का धनुष भंग होने पर आकाश-मार्ग द्वारा मिथिलापुरी पहुँच कर प्रथम तो स्वयं को विश्व-विदित क्षत्रिय कुल द्रोही’ बताते हुए ‘बहुत भाँति तिन्ह आँख दिखाये’ और क्रोधान्ध हो ‘सुनहु राम जेहि शिवधनु तोरा, सहसबाहु सम सो रिपु मोरा’ तक कह डाला, तदुपरान्त अपनी शक्ति का संशय मिटते ही वैष्णव धनुष श्रीराम को सौंप दिया और क्षमा याचना करते हुए
‘अनुचित बहुत कहेउ अज्ञाता, क्षमहु क्षमामन्दिर दोउ भ्राता'
तपस्या के निमित्त वन को लौट गये। रामचरित मानस की ये पंक्तियाँ साक्षी हैं-
‘कह जय जय जय रघुकुलकेतू, भृगुपति गये वनहिं तप हेतू'
वाल्मीकि रामायण में वर्णित कथा के अनुसार दशरथनन्दन श्रीराम ने जमदग्नि कुमार परशुराम का पूजन किया और परशुराम ने रामचन्द्र की परिक्रमा कर आश्रम की ओर प्रस्थान किया।
जाते-जाते भी उन्होंने श्रीराम से उनके भक्तों का सतत सान्निध्य एवं चरणारविन्दों के प्रति सुदृढ भक्ति की ही याचना की थी।
महाभारत काल : भीष्म द्वारा स्वीकार न किये जाने के कारण अंबा प्रतिशोध वश सहायता माँगने के लिये परशुराम के पास आयी, तब सहायता का आश्वासन देते हुए उन्होंने भीष्म को युद्ध के लिये ललकारा, उन दोनों के बीच २३ दिनों तक घमासान युद्ध चला, किन्तु अपने पिता द्वारा इच्छा मृत्यु के वरदान स्वरुप परशुराम उन्हें हरा न सके।
परशुराम अपने जीवन भर की कमाई ब्राह्मणों को दान कर रहे थे, तब द्रोणाचार्य उनके पास पहुँचे, किन्तु दुर्भाग्यवश वे तब तक सब कुछ दान कर चुके थे, तब परशुराम ने दयाभाव से द्रोणाचार्य से कोई भी अस्त्र-शस्त्र चुनने के लिये कहा, तब चतुर द्रोणाचार्य ने कहा कि मैं आपके सभी अस्त्र-शस्त्र उनके मन्त्रों सहित चाहता हूँ ताकि जब भी उनकी आवश्यकता हो, प्रयोग किया जा सके।
परशुरामजी ने कहा-‘एवमस्तु!’ अर्थात् ऐसा ही हो, इससे द्रोणाचार्य शस्त्र विद्या में निपुण हो गये।
परशुराम कर्ण के भी गुरु थे, उन्होंने कर्ण को भी विभिन्न प्रकार की अस्त्र शिक्षा दी थी और ब्रह्मास्त्र चलाना भी सिखाया था, लेकिन कर्ण एक सूत का पुत्र था, फिर भी यह जानते हुए कि परशुराम केवल ब्राह्मणों को ही अपनी विधा दान करते हैं, कर्ण ने छल करके परशुराम से विधा लेने का प्रयास किया।
परशुराम ने उसे ब्राह्मण समझ कर बहुत सी विद्यायें सिखायीं, लेकिन एक दिन जब परशुराम एक वृक्ष के नीचे कर्ण की गोदी में सर रख के सो रहे थे, तब एक भौंरा आकर कर्ण के पैर काटने लगा, अपने गुरुजी की नींद में कोई अवरोध न आये, इसलिये कर्ण भौंरे को सेहता रहा, भौंरा कर्ण के पैर को बुरी तरह काटे जा रहा था, भौंरे के काटने के कारण कर्ण का खून बहने लगा, वो खून बहता हुआ परशुराम के पैरों तक जा पहुँचा। परशुराम की नींद खुल गयी और वे इस खून को तुरन्त पहचान गये कि यह खून तो किसी क्षत्रिय का ही हो सकता है जो इतनी देर तक बगैर उफ़ किये बहता रहा, इस घटना के कारण कर्ण को अपनी अस्त्र विद्या का लाभ नहीं मिल पाया। एक अन्य कथा के अनुसार एक बार गुरु परशुराम कर्ण की एक जंघा पर सिर रखकर सो रहे थे, तभी एक बिच्छू कहीं से आया और कर्ण की जंघा पर घाव बनाने लगा, किन्तु गुरु का विश्राम भंग ना हो, इसलिये कर्ण बिच्छू के दंश को सहता रहा, अचानक परशुराम की निद्रा टूटी और ये जानकर की एक ब्राम्हण पुत्र में इतनी सहनशीलता नहीं हो सकती कि वो बिच्छू के दंश को सहन कर ले। कर्ण के मिथ्याभाषण पर उन्होंने उसे ये श्राप दे दिया कि जब उसे अपनी विद्या की सर्वाधिक आवश्यकता होगी, तब वह उसके काम नहीं आयेगी।
कौन थे परशुराम
क्षत्रियों का एक समाज है जिसे हैहयवंशी समाज कहा जाता है वह समाज आज भी कायम है, इस समाज में एक राजा हुए सहस्त्रार्जुन। परशुराम ने इस राजा और इनके पुत्र और पौत्रों का वध किया था, माना जाता है कि उन्होंने इसके लिए २१ बार युद्ध किया था।
कौन था सहस्त्रार्जुन: सहस्त्रार्जुन एक चंद्रवंशी राजा था, इन्हीं के पूर्वज थे महिष्मन्त, जिन्होंने नर्मदा के किनारे महिष्मति (आधुनिक महेश्वर) नामक नगर बसाया, इन्हीं के कुल में आगे चलकर दुर्दुम के उपरांत कनक के चार पुत्रों में सबसे बड़े कृतवीर्य ने महिष्मती के सिंहासन को संभाला। भार्गववंशी ब्राह्मण इनके राज पुरोहित थे, भार्गव प्रमुख जमदग्नि ऋषि (परशुराम के पिता) से कृतवीर्य के मधुर संबंध थे, कृतवीर्य के पुत्र अर्जुन थे, कृतवीर्य के पुत्र होने के कारण उन्हें कात्र्तवीर्यार्जुन भी कहा गया।
कात्र्तवीर्यार्जुन ने अपनी अराधना से भगवान दत्तात्रेय को प्रसन्न किया था, भगवान दत्तात्रेय ने युद्ध के समय कात्र्तवीर्याजुन को हजार हाथों का बल प्राप्त करने का वरदान दिया था, जिसके कारण उन्हें सहस्त्रार्जुन कहा जाने लगा। सहस्त्रार्जुन के पराक्रम से रावण भी घबराता था।
युद्ध का कारण : ऋषि वशिष्ठ से शाप का भाजन बनने के कारण सहस्त्रार्जुन की मति मारी गई थी। सहस्त्रार्जुन ने परशुराम के पिता जमदग्नि के आश्रम में एक कपिला कामधेनु गाय को देखा और उसे पाने की लालसा से वह कामधेनु को बलपूर्वक आश्रम से ले गया।
जब परशुराम को यह बात पता चली तो उन्होंने पिता के सम्मान के खातिर कामधेनु वापस लाने की सोची और सहस्त्रार्जुन से उन्होंने युद्ध किया, युद्ध में सहस्त्रार्जुन की भुजाएं कट गई और वह मारा गया, तब सहस्त्रार्जुन के पुत्रों ने प्रतिशोधवश परशुराम की अनुपस्थिति में उनके पिता जमदग्नि का वध कर डाला। परशुराम की मां रेणुका पति की हत्या से विचलित होकर उनकी चिताग्नि में प्रविष्ट हो सती हो गई, इस घोर घटना ने परशुराम को क्रोधित कर दिया और उन्होंने संकल्प लिया- मैं हैहयवंश के सभी क्षत्रियों का नाश कर दूंगा, तब अहंकारी और दृष्ठ हैहय-क्षत्रियों से उन्होंने २१ बार युद्ध किया था, क्षुब्ध परशुरामजी ने प्रतिशोधवश सर्वप्रथम हैहय की महिष्मती नगरी पर अधिकार कर लिया। कात्र्तवीर्जुन के दिवंगत होने के बाद उनके पांच पुत्र जयध्वज व उसके शूरसेन, शूर, वृष और कृष्ण अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ते रहे, व उसके सौ पुत्र थे जिन्हें तालजंघ कहा जाता था, क्योंकि ये काफी समय तक ताल ठोंक कर अवंति क्षेत्र में जमे रहे, लेकिन परशुराम के क्रोध के कारण स्थिति अधिक विषम होती देखकर इन तालजंघों ने वितीहोत्र, भोज, अवंति, तुण्डीकेरे तथा शर्यात नामक मूल स्थान को छोड़ना शुरू कर दिया, इनमें से अनेक संघर्ष करते हुए मारे गए तो बहुत से डर के मारे विभिन्न जातियों एवं वर्गों में विभक्त होकर अपने आपको सुरक्षित करते गए, अंत में महर्षि ऋचीक ने प्रकट होकर परशुराम को ऐसा घोर युद्ध करने से रोक दिया।
कहा जाता है कि भारत के अधिकांश भाग और ग्राम परशुराम के द्वारा बनाए गए हैं, परशुराम का कहना था कि राजा का धर्म वैदिक जीवन का प्रसार करना है, अपनी प्रजा से आज्ञा पालन करवाना नहीं, वे एक ब्राह्मण के रूप में जन्में जरूर थे, लेकिन कर्म से एक क्षत्रिय थे और उन्होंने किसी क्षत्रिय को नहीं बल्कि पिता के हत्यारे और एक अहंकारी व लालची राजा तथा उसके पुत्रों का वध किया था।
सहस्त्रार्जुन की समाधि : सहस्त्रार्जुन की समाधि एवं मंदिर इंदौर से ९० कि.मी. दूरी पर स्थित नर्मदा नदी के किनारे महेश्वर में है। समाधि पर शिवलिंग स्थापित है, यहां अखण्ड ११ नन्दा द्वीप मंदीर में प्रज्ज्वलित हैं। माना जाता है कि जायसवाल समाज भी स्वयं को हैहय चन्द्रवंशीय क्षत्रिय मानकर सहस्त्रार्जुन को अपना आराध्य मानता है।