शिवाजी महाराज का इतिहास
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भारतीय शासक और मराठा साम्राज्य के संस्थापक शिवाजी महाराज एक बहादुर, बुद्धिमान और निडर शासक थे। धार्मिक अभ्यासों में उनकी काफी रूचि थी। रामायण और महाभारत का अभ्यास वे बड़े ध्यान से करते थे।
पूरा नाम – शिवाजी शहाजी भोसले
जन्म – १९ फरवरी, १६३०/अप्रिल १६२७
जन्मस्थान – शिवनेरी दुर्ग (पुणे)
पिता – शहाजी भोसले
माता – जिजाबाई शहाजी भोसले
विवाह – सइबाई के साथ
शिवाजी का प्रारभिक जीवन – शिवाजी का जन्म १६२७ में पुणे जिले के जुन्नर शहर में शिवनेरी दुर्ग में हुआ, इनके जन्मदिवस पर विवाद है लेकिन महाराष्ट्र सरकार ने १९ फरवरी १६३० को उनका जन्म दिवस स्वीकार किया है, उनकी माता ने उनका नाम भगवान शिवाय के नाम पर शिवाजी रखा जो उनसे स्वस्थ सन्तान के लिए प्रार्थना करती रहती थी, शिवाजी के पिताजी शाहजी भोसले एक मराठा सेनापति थे जो डेक्कन सल्तनत के लिए काम करते थे। माँ जीजाबाई सिंधखेड़ व लाखूजीराव जाधव की पुत्री थी। शिवाजी के जन्म के समय डेक्कन की सत्ता तीन इस्लामिक सल्तनतों बीजापुर, अहमदनगर और गोलकोंडा में थी। शाहजी अक्सर अपनी निष्ठा निजामशाही, आदिलशाह और मुगलों के बीच बदलते रहते थे लेकिन अपनी जागीर हमेशा पुणे ही रखी और उनके साथ उनकी छोटी सेना भी रहती थी।

सल्तनतों बीजापुर, अहमदनगर और गोलकोंडा में थी। शाहजी अक्सर अपनी निष्ठा निजामशाही, आदिलशाह और मुगलों के बीच बदलते रहते थे लेकिन अपनी जागीर हमेशा पुणे ही रखी और उनके साथ उनकी छोटी सेना भी रहती थी।
शिवाजी अपनी माँ जीजाबाई से बेहद समर्पित थे जो बहुत ही धार्मिक थी। धार्मिक वातावरण ने शिवाजी पर बहुत गहरा प्रभाव डाला था जिसकी वजह से शिवसाजी महाराज ने महान हिन्दू ग्रंथों रामायण और महाभारत की कहानियां भी अपनी माता से सुनी, इन दो ग्रंथों की वजह से वो जीवनपर्यन्त हिन्दू महत्वों का बचाव करते रहे, इसी दौरान शाहजी ने दूसरा विवाह किया और उनकी दुसरी पत्नी तुकाबाई के साथ शाहजी कर्नाटक में आदिलशाह की तरफ से सैन्य अभियानों के लिए चले गये, उन्होंने शिवाजी और जीजाबाई को छोड़ कर उनका संरक्षक दादोजी कोंणदेव को बना दिया। दादोजी ने शिवाजी को बुनियादी लड़ाई, तकनीकें जैसे घुड़सवारी, तलवारबाजी और निशानेबाजी सिखाई।
शिवाजी बचपन से ही उत्साही योद्धा थे, हालांकि इस वजह से उन्हें केवल औपचारिक शिक्षा दी गयी जिसमें वो लिख-पढ़ नहीं सकते थे लेकिन फिर भी उनको सुनाई गई बातों को उन्हें अच्छी तरह याद रहता था। शिवाजी ने मावल क्षेत्र से अपने विश्वस्त साथियों और सेना को इकट्टा किया, मावल साथियों के साथ शिवाजी खुद को मजबूत करने और अपनी मातृभूमि के ज्ञान के लिए सहयाद्रि रेंज की पहाड़ियों और जंगलों में घूमते रहते थे, ताकि वो सैन्य प्रयासों के लिए तैयार हो सके।
१२ वर्ष की उम्र में शिवाजी को बंगलौर ले जाया गया, जहां उनका ज्येष्ठ भाई साम्भाजी और उनका सौतेला भाई एकोजी पहले ही औपचारिक रूप से प्रशिक्षित थे। शिवाजी का १६४० में निम्बालकर परिवार की सइबाई से विवाह कर दिया गया। १६४५ में किशोर शिवाजी ने प्रथम बार हिंदवी स्वराज्य की अवधारणा दादाजी नरस प्रभु के समक्ष प्रकट की।
शिवाजी का आदिलशाही सल्तनत के साथ संघर्ष –
१६४५ में १५ वर्ष की आयु में शिवाजी ने आदिलशाह सेना को आक्रमण की सुचना दिए बिना हमला कर तोरणा किला विजयी कर लिया। फिरंगोजी नरसला ने शिवाजी की स्वामी भक्ति स्वीकार कर ली और शिवाजी ने कोंडाना का किले पर कब्जा कर लिया, कुछ तथ्य बताते हैं कि शाहजी को १६४९ में इस शर्त पर रिहा कर दिया गया कि शिवाजी और संभाजी कोड़ना का किला छोड़ देवे लेकिन कुछ तथ्य शाहजी को १६५३ से १६५५ तक कारावास में बताते हैं। शाहजी की रिहाई के बाद वो सार्वजनिक जीवन से सेवामुक्त हो गये और शिकार के दौरान १६४५ के आस पास उनकी मृत्यु हो गयी। पिता की मौत के बाद शिवाजी ने आक्रमण करते हुए फिर से १६५६ में पड़ोसी मराठा मुखिया से जावली का साम्राज्य हथिया लिया।
१६५९ में आदिलशाह ने एक अनुभवी और दिग्गज सेनापति अफज़ल खान को शिवाजी को तबाह करने के लिए भेजा गया, ताकि वो क्षेत्रीय विद्रोह को कम कर देवे। १० नवम्बर १६५९ को वे दोनों प्रतापगढ़ किले की तलहटी पर एक झोपड़ी में मिले, इस तरह का हुक्मनामा तैयार किया गया था कि दोनों केवल एक तलवार के साथ आयेगें, शिवाजी को संदेह हुआ कि अफज़ल खान उन पर हमला करने की रणनीति बनाकर आएगा इसलिए शिवाजी ने अपने कपड़ों के नीचे कवच, दायी भुजा पर छुपा हुआ और बाए हाथ में एक कटार साथ लेकर आये। तथ्यों के अनुसार दोनों में से किसी एक ने पहले वार किया, मराठा इतिहास में अफज़ल खान को विश्वासघाती बताया है जबकि पारसी इतिहास में शिवाजी को विश्वासघाती बताया गया है। इस लडाई में अफज़ल खान की कटार को शिवाजी के कवच ने रोक दिया और शिवाजी के हथियार ने अफज़ल खान पर इतने घातक घाव कर दिए जिससे उसकी मौत हो गयी, इसके बाद शिवाजी ने अपने छिपे हुए सैनिकों को बीजापुर पर हमला करने के संकेत दिए। १० नवम्बर १६५९ को प्रतापगढ़ का युद्ध हुआ, जिसमें शिवाजी की सेना ने बीजापुर के सल्तनत की सेना को हरा दिया। चुस्त मराठा पैदल सेना और घुड़सवार बीजापुर पर लगातार हमला करने लगे, मराठा सेना ने बीजापुर सेना को पीछे धकेल दिया। बीजापुर सेना के ३००० सैनिक मारे गये और अफज़ल खान के दो पुत्रों को बंदी बना लिया गया, इस बहादुरी से शिवाजी मराठा लोकगीतों में एक वीर और महान नायक बन गये। बड़ी संख्या में जब्त किये गये हथियारों, घोड़ों और दुसरे सैन्य सामानों से मराठा सेना और ज्यादा मजबूत हो गयी, मुगल बादशाह औरंगजेब ने शिवाजी को मुगल साम्राज्य के लिए बड़ा खतरा बताया।

प्रतापगढ़ में हुए नुकसान की भरपाई करने और नवोदय मराठा शक्ति को हराने के लिए इस बार बीजापुर के नये सेनापति रुस्तमजमन के नेतृत्व में शिवाजी के विरुद्ध १०००० सैनिकों को भेजा गया। मराठा सेना के ५००० घुड़सवारों की मदद से शिवाजी ने कोल्हापुर के निकट २८ दिसम्बर १६५९ को धावा बोल दिया। आक्रमण को तेज करते हुए शिवाजी ने दुश्मन की सेना को मध्य से प्रहार किया और दो घुड़सवार सेना ने दोनों तरफ से हमला कर दिया। कई घंटो तक ये युद्ध चला और अंत में बीजापुर की सेना बिना किसी नुकसान के पराजित हो गयी और सेनापति रुस्तमजमन रणभूमि छोड़ कर भाग गया। आदिलशाही सेना ने इस बार २००० घोड़े और १२ हाथी खो दिए।

१६६० में आदिलशाह ने अपने नये सेनापति सिद्दी जौहर ने मुगलों के साथ गठबंधन कर हमले की तैयारी की, उस समय शिवाजी की सेना ने पन्हाला वर्तमान कोल्हापुर में डेरा डाला हुआ था। सिद्दी जौहर की सेना किले से आपूर्ति मार्गाें को बंद करते हुए शिवाजी की सेना को घेर लिया, पन्हाला में बमबारी के दौरान सिद्दी जौहर ने अपनी युद्ध क्षमता बढ़ाने के लिए अंग्रेजों से हथगोले खरीद लिए थे और साथ ही कुछ बमबारी करने के लिए कुछ अंग्रेज तोपची भी नियुक्त किये थे, इस कथित विश्वासघात से शिवाजी नाराज हो गये क्योंकि उन्होंने राजापुर के एक अंगरेजी कारखाने से हथगोले लुटे थे।
घेराबंदी के बाद अलग-अलग लेखों में अलग-अलग बात बताई गयी है जिसमें से एक लेख में शिवाजी बचकर भाग जाते हैं और इसके बाद आदिल शाह खुद किले में हमला करने आता है और चार महीनों तक घेराबंदी के बाद किले पर कब्जा कर लेता है। दुसरे लेखों में घेराबंदी के बाद शिवाजी सिद्दी जौहर से बातचीत कर विशालगढ़ का किला उसको सौंप देते हैं। शिवाजी के समर्पण या बच निकलने पर भी विवादित लेखों के अनुसार शिवाजी रात के अँधेरे में पन्हला से निकल जाते हैं और दुश्मन सेना उनका पीछा करती है। मराठा सरदार बंदल देशमुख के बाजी प्रभु देशपांडे अपने ३०० सैनिकों के साथ स्वेच्छा से दुश्मन सेना को रोकने के लिए लड़ते है और कुछ सेना शिवाजी को सुरक्षित विशालगढ़ के किले तक पहुंचा देती है। पवन खिंड के युद्ध में छोटी मराठा सेना विशाल दुश्मन सेना को रोककर शिवाजी को बच निकलने का समय देती है। बाजी प्रभु देशपांडे इस युद्ध में घायल होने के बावजूद लड़ते रहे जब तक कि विशालगढ़ से उनको तोप की आवाज नहीं आ गयी, तोप की आवाज इस बात का संकेत था कि शिवाजी सुरक्षित किले तक पहुंच गये हैं। शिवाजी का मुगलों के साथ संघर्ष और शाइस्ता खाँ पर हमला, १६५७ तक शिवाजी ने मुगल साम्राज्य के साथ शांतिपूर्ण संबंध बनाये रखे। शिवाजी ने बीजापुर पर कब्ज़ा करने में औरंगजेब को सहायता देने का प्रस्ताव दिया और बदले में उसने बीजापुरी किले और गाँवों को उसके अधिकार में देने की बात कही। शिवाजी का मुगलों से टकराव १६५७ में शुरू हुआ जब शिवाजी के दो अधिकारियों ने अहमदनगर के करीब मुगल क्षेत्र पर आक्रमण कर दिया, इसके बाद शिवाजी ने जुनार पर आक्रमण कर दिया और ३ लाख सिक्के और २०० घोड़े लेकर चले गये। औरंगजेब ने जवाबी हमले के लिए नसीरी खान को आक्रमण के लिए भेजा, जिसने अहमदनगर में शिवाजी की सेना को हराया था, लेकिन औरंगजेब का शिवाजी के खिलाफ ये युद्ध बारिश के मौसम और शाहजहां की तबियत खराब होने की वजह से बाधित हो गया।
बीजापुर की बड़ी बेगम के आग्रह पर औरंगजेब ने उसके मामा शाइस्ता खाँ को १५०,००० सैनिकों के साथ भेजा, इस सेना ने पुणे और चाकन के किले पर कब्ज़ा कर आक्रमण कर दिया और एक महीने तक घेराबंदी की। शाइस्ता खाँ ने अपनी विशाल सेना का उपयोग करते हुए मराठा प्रदेशों और शिवाजी के निवास स्थान लाल महल पर आक्रमण कर दिया। शिवाजी ने शाइस्ता खाँ पर अप्रत्याशित आक्रमण कर दिया, जिसमें शिवाजी और उनके २०० साथियों ने एक विवाह की आड़ में पुणे में घुसपैठ कर दी। महल के पहरेदारों को हराकर, दीवार पर चढ़कर शहिस्ता खान के निवास स्थान तक पहुंच गये और वहां जो भी मिला उसको मार दिया। शाइस्ता खाँ की शिवाजी से हाथापाई में उसने अपना अंगूठा गवां दिया और बच कर भाग गया, इस घुसपैठ में उसका एक पुत्र और परिवार के दुसरे सदस्य मारे गये, शाइस्ता खाँ ने पुणे से बाहर मुगल सेना के यहां शरण ली और औरंगजेब ने शर्मिंदगी के मारे सजा के रूप में उसको बंगाल भेज दिया।

शाइस्ता खाँ ने एक उज़बेक सेनापति करतलब खान को आक्रमण के लिए भेजा। ३०००० मुगल सैनिकों के साथ वो पुणे के लिए रवाना हुए और प्रदेश के पीछे से मराठों पर अप्रत्याशित हमला करने की योजना बनाई । उम्भेरखिंड के युद्ध में शिवाजी की सेना ने पैदल सेना और घुड़सवार सेना के साथ उम्भेरखिंड के घने जंगलों में घात लगाकर हमला किया, शाइस्ता खाँ के आक्रमणों का प्रतिशोध लेने और समाप्त राजकोष को भरने के लिए १६६४ में शिवाजी ने मुगलों के व्यापार केंद्र सुरत को लुट लिया। औरंगजेब ने गुस्से में आकर मिर्जा राजा जय सिंह को १५०,००० सैनिकों के साथ भेजा। जय सिंह की सेना ने कई मराठा किलों पर कब्जा कर लिया, शिवाजी ने ओर अधिक किलो को खोने के बजाय औरंगजेब से शर्तों के लिए बाध्य किया। जय सिंह और शिवाजी के बीच पुरन्दर की संधि हुयी जिसमें शीवाजी ने अपने २३ किले सौंप दिए और जुर्माने के रूप में मुगलों को ४ लाख रूपये देने पड़े, उन्होंने अपने पुत्र साम्भाजी को भी मुगल सरदार बनकर औरंगजेब के दरबार में सेवा की बात पर राजी हो गये। शिवाजी के एक सेनापति नेताजी पलकर धर्म परिवर्तन कर मुगलों में शामिल हो गये और उनकी बहादुरी पर पुरस्कार भी दिया गया।
मुगलों की सेवा करने के दस वर्ष बाद वो फिर शिवाजी के पास लौटे और शिवाजी के कहने पर फिर से हिन्दू धर्म स्वीकार किया।
१६६६ में औरंगजेब ने शिवाजी को अपने नौ साल के पुत्र संभाजी के साथ आगरा बुलाया, औरंगजेब की शिवाजी को कांधार भेजने की योजना थी ताकि वो मुगल साम्राज्य को पश्चिमोत्तर सीमांत संघटित कर सके। १२ मई १६६६ को औरंगजेब ने शिवाजी को दरबार में अपने सबदारो के पीछे खड़ा रहने को कहा। शिवाजी ने इसे अपना अपमान समझा और क्रोध में दरबार पर धावा बोल दिया। शिवाजी को तुरंत आगरा के कोतवाल ने गिरफ्तार कर लिया।
शिवाजी को आगरा में बंदी बनाना और बच कर निकल जानाशिवाजी ने कई बार बीमारी का बहाना बनाकर औरंगजेब को धोखा देकर डेक्कन जाने की प्रार्थना की, हालांकि उनके आग्रह करने पर उनकी स्वास्थ्य की दुवा करने वाले आगरा के संत, फकीरों और मन्दिरों में प्रतिदिन मिठाइयाँ और उपहार भेजने की अनुमति दी गई थी। कुछ दिनों तक ये सिलसिला चलने के बाद शिवाजी ने संभाजी को मिठाइयों की टोकरी में बिठाकर और खुद मिठाई की टोकरियां उठाने वाले मजदूर बनकर वहां से भाग गये, इसके बाद शिवाजी और उनका पुत्र साधू के वेश में निकलकर भागे, भाग निकलने के बाद शिवाजी ने खुद को और संभाजी को मुगलों से बचाने के लिए संभाजी की मौत की अफवाह फैला दी। इसके बाद संभाजी को विश्वनीय लोगों द्वारा आगरा से मथुरा ले जाया गया।
शिवाजी के बच निकलने के बाद शत्रुता कमजोर हो गयी और संधि की शर्ते १६७० के अंत तक खत्म हो गयी, इसके बाद शिवाजी ने एक मुगलों के खिलाफ एक बड़ा आक्रमण किया और चार महीनों में उन्होंने मुगलों द्वारा छीने गये प्रदेशों पर फिर कब्जा कर लिया, इस दौरान तानाजी मालुसरे ने सिंघाड़ का किला जीत लिया था। शिवाजी दुसरी बार जब सुरत को लुट कर आ रहे थे तो दौड़ खान के नेतृत्व में मुगलों ने उनको रोकने की कोशिश की गई, लेकिन उनको शिवाजी ने युद्ध में परास्त कर दिया। अक्टूबर १६७० में शिवाजी ने अंग्रेजों को परेशान करने के लिए अपनी सेना बॉम्बे भेजी, अंग्रेजों ने युद्ध सामग्री बेचने से मना कर दिया तो उनकी सेना से बॉम्बे के कड़हारों के दल को अवरुद्ध कर दिया।

नेसारी की जंग और शिवाजी का राज्याभिषेक– १६७४ में मराठा सेना के सेनापति प्रतापराव गुर्जर को आदिलशाही सेनापति बहलोल खान की सेना पर आक्रमण के लिए बोला। प्रतापराव की सेना पराजित हो गयी और उसे बंदी बना लिया गया, इसके बावजूद शिवाजी ने बहलोल खान को प्रतापराव के रिहा करने की धमकी दी वरना वो हमला बोल देंगे। शिवाजी ने प्रतापराव को पत्र लिखकर बहलोल खान की बात मानने से इंकार कर दिया, अगले कुछ दिनों में शिवाजी को पता चला कि बहलोल खान की १५००० लोगों की सेना कोल्हापुर के निकट नेसरी में रुकी है। प्रतापराव और उसके छ: सरदारों ने आत्मघाती हमला कर दिया ताकि शिवाजी की सेना को समय मिल सके। मराठों ने प्रतापराव की मौत का बदला लेते हुए बहलोल खान को हरा दिया और उनसे अपनी जागीर छीन ली। शिवाजी प्रतापराव की मौत से काफी दुखी हुए और उन्होंने अपने दुसरे पुत्र की शादी प्रतापराव की बेटी से कर दी।
शिवाजी ने अब अपने सैन्य अभियानों से काफी जमीन और धन अर्जित कर लिया था लेकिन उन्हें अभी तक कोई औपचारिक ख़िताब नहीं मिला था। एक राजा का ख़िताब ही उनको आगे आने वाली चुनौती से रोक सकता था। शिवाजी को रायगढ़ में मराठों के राजा का ख़िताब दिया गया। पंडितों ने सात नदियों के पवित्र पानी से उनका राज्याभिषेक किया। अभिषेक के बाद शिवाजी ने जीजाबाई से आशीर्वाद लिया, एक समारोह में लगभग रायगढ़ के ५००० लोग इक्ठटा हुए थे। शिवाजी को छत्रपति का खिताब भी यहीं दिया गया। राज्याभिषेक के कुछ दिनों बाद जीजाबाई की मौत हो गयी, इसे अपशकुन मानते हुए दुसरी बार राज्याभिषेक किया गया।
दक्षिणी भारत में विजय और शिवाजी के अंतिम दिन– १६७४ की शुरुवात में मराठों ने एक आक्रामक अभियान चलाकर खानदेश पर आक्रमण कर बीजापुरी पोंडा, कारवार और कोल्हापुर पर कब्जा कर लिया, इसके बाद शिवाजी ने दक्षिण भारत में विशाल सेना भेजकर आदिलशाही किलों को जीता। शिवाजी ने अपने सौतेले भाई वेंकोजी से सामंजस्य करना चाहा लेकिन असफल रहे, इसलिए रायगढ़ से लौटते वक्त उसको हरा दिया और मैसूर के अधिकतर हिस्सों पर कब्जा कर लिया।
१६८० में शिवाजी बीमार पड़ गये और ५२ वर्ष की उम्र में इस दुनिया से चले गये। शिवाजी के मौत के बाद उनकी पत्नी सोयराबाई ने उसके पुत्र राजाराम को सिंहासन पर बिठाने की योजना बनाई। संभाजी महाराज की बजाय १० साल के राजाराम को सिंहासन पर बिठाया गया, हालांकि संभाजी ने इसके बाद सेनापति को मारकर रायगढ़ किले पर अधिकार कर लिया और खुद सिंहासन पर बैठ गया। संभाजी महाराज ने राजाराम, उसकी पत्नी जानकी बाई को कारावास भेज दिया और माँ सोयराबाई को साजिश के आरोप में फांसी पर लटका दिया। संभाजी महाराज इसके बाद वीर योद्धा की तरह कई वर्षों तक मराठों के लिए लड़े। शिवाजी के मौत के बाद २७ वर्ष तक मराठों का मुगलों से युद्ध चला और अंत में मुगलों को हरा दिया, इसके बाद अंग्रेजों ने मराठा साम्राज्य को समाप्त किया। शिवाजी महाराज मराठी लोगों के लिए देवता समान हैं और हिन्दुओं में उनका बहुत महत्वपूर्ण स्थान है।
हिन्दी ही हिन्दुस्तान की राष्ट्रभाषा हो सकती है होना चाहिये अब भी है.......?

भारतीय संस्कृति की प्रासंगिकता

वर्तमान उत्तर आधुनिक दौर में जब वैश्वीकरण की आँधी चल रही है और सम्पूर्ण विश्व को एक रीति-नीति के अंतर्गत लाने का प्रयास हो रहा है तब यह जरूरी है जाता है कि हम अपनी हजारों साल पुरानी भारतीय संस्कृति की प्रासंगिकता पर नए सिरे से विचार करें। भारतीय संस्कृति अपनी प्राचीनता और कालजयता के कारण विश्व प्रसिद्ध है, यह आरंभ से ही ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ के महती आदर्श को लेकर चली है, आज वैश्वीकरण अर्थशास्त्र और प्रौद्योगिकी के सानुपातिक समायोजन द्वारा एक ऐसी विश्व-व्यवस्था कायम करने का हिमायती है कि जहाँ किस्म-किस्म की अर्थव्यवस्थाओं में स्वाभाविक संश्लेषण होगा, यह अंग्रेजी के ‘ग्लोबलाइजेशन’ शब्द का हिंदी रूपांतर है जो एक ही विश्व-व्यवस्था को कायम करने के लक्ष्य को लेकर संकल्पित है। वैश्वीकरण विश्व बाजारवाद के रथ पर आरूढ़ होकर शिक्षण प्रौद्योगिकी के सहारे वैश्विक अर्थ तंत्र को प्रतिष्ठित एवं विकसित करने के लिए हरेक देश की व्यवस्था से अनिवार्य रूप से जुड़ने के लिए कृत संकल्प है, इसे साकार करने के लिए पहले ‘गेट’ के द्वारा तथा बाद में विश्व व्यापार संगठन के सटीक माध्यम द्वारा सक्रिय अभियान चलाया गया, इसके फलस्वरूप सम्पूर्ण विश्व के अर्थ तंत्र को एक खुली व्यवस्था के तहत लाकर निश्चित विधान का दायरा प्रदान किया गया, आज वैश्वीकरण एक विराट वर्चस्वी संरचना के रूप में हमारे सामने है तथा विश्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष, कारपोरेट जगत, बहुराष्ट्रीय निगम तथा तकनीकी आविष्कृतियाँ उसके आधार-स्तंभ के रूप में कार्यरत हैं।
ऐसे तीव्र बदलाव वाले समय में भारतीय संस्कृति की प्रासंगिकता पर खुला विमर्श होना चाहिए जिससे उसके सर्वोत्तम पक्षों को विश्व मनुष्यता के समक्ष प्रस्तुत किया जा सके।
आज जब समूचा विश्व मूल्यहीनता और भयावह अनास्था का शिकार हो रहा है तब भारतीय संस्कृति की प्रासंगिकता और भी बढ़ जाती है, वस्तुतः भारतीय संस्कृति एक विशेष भौगोलिक और ऐतिहासिक परंपरा के भीतर मनुष्य के सर्वोत्तम अंश को प्रकाशित करने के प्रयास की अभिव्यक्ति है, उसकी प्रमुख विशेषता, चिंतन की स्वतंत्रता, बाहरी ग्रहण करने योग्य तत्वों को पचा कर हजम कर जाने की क्षमता और समय के अनुवूâल इसी में परिवर्तन कर देने की योग्यता है, अनेक धर्मों, विचारधाराओं, जीवन प्रणालियों और भौगोलिक विविधता के रहते हुए उसमें विद्यमान एकता असंदिग्ध और रमणीय है।
भारतीय संस्कृति चराचर जगत के प्रति अभेदता एवं एकता का भाव लेकर चली है। सर्वप्रथम वेदों और उपनिषदों में यह विचार आया कि एक ही प्राणवान सत्ता सभी स्थानों पर व्याप्त है, वह ऊर्जा के विभिन्न रूपों में सारे संसार में महसूस की जा सकती है-ईशावास्यम इदम् सर्वम यात्किंच जगत्यम जगत। धूल के इस कण को जिसे हम पृथ्वी कहते हैं, उसी में नहीं बल्कि उस जैसी अरबों पृथ्वियों, आकाश गंगाओं तथा समूचे ब्रह्माण्ड में ईश्वरीय शक्ति के संधान की दृष्टि ही भारतीय संस्कृति की मूल चेतना है, हमारे ऋषियों द्वारा प्रतिपादित यह सिद्धान्त, एक ही उâर्जा और एक ही शक्ति समूची सृष्टि में हजारों साल पुराना है जबकि पश्चिम में आइन्स्टीन जैसे वैज्ञानिक की समझ में यह बात एक शताब्दी पूर्व आई है।
इस सूत्र को व्यावहारिक अर्थ देने वाली एक संकल्पना और है जो भारतीय संसद के मुख्य द्वार पर भी अंकित है- ‘‘अयं निज: परोवेति गणना लघुचेतसां। उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकं।।’’
अर्थात् यह मेरा है, और वह तेरा, संकुचित ह्रदय वाले ही सोच सकते हैं जिसका चित विशाल है, उसके लिए तो सारा विश्व एक परिवार के समान है, यही बात गोस्वामी तुलसीदास ‘रामचरितमानस’ में दूसरे ढंग से कहते हैं-‘मैं अरु मोर तोर यह माया, जिहि बस कीन्हें जीव निकाया।’
इससे बचने का वे मार्ग भी सुझाते हैं- ‘सीय-राममय सब जग जानी। करउं प्रणाम जोरि जुग पाणी।’
प्रसाद जी ने कामायनी में दिखलाया है कि जब मनु श्रद्धा की सहायता से आनंद की प्राप्ति करते हैं तब तब वे विराट विश्वचेतना से पुलकित होकर कह उठते हैं-‘‘हम अन्य न और कुटुम्बी, हम न केवल एक हमी हैं।
तुम सब मेरे अवयव हो जिसमें कुछ कमी नहीं है।’’
कहना न होगा कि इस विराट दृष्टिकोण ने भारतीय संस्कृति को अविरोधी रूप में विकसित किया। हमारे ऋषियों ने ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ तथा अविरोधी धर्म एवं संस्कृति की जो संकल्पना विकसित की, वह सम्पूर्ण विश्व में अपना दृष्टान्त आप ही है। गीता में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण के मुखारविंद से निकले दो सूत्र भारतीय संस्कृति को उस ऊंचाई पर ले जाते हैं जिसके आगे राह नहीं, कहा जा सकता है, सारे जगत में भारतीय संस्कृति ही यह प्रतिपादित कराती है कि किसी भी धर्म के माध्यम से ईश्वर प्राप्ति संभव है। ऋग्वेद में एक मन्त्र है कि
‘एकम सत विप्र: बहुधा वदन्ति ‘अर्थात् सत्य एक है, विद्वान उसे भिन्न नामों से पुकराते हैं। हिंदी के कवि मलिक मुहम्मद जायसी ने भी लिखा हैविधना के मारण हैं तेते। सरग नखत तन रोवां तेते।’
भारतीय समाज को एक सूत्र में पिरोने तथा संगठित रखने में इस चिंतानात्मकता का विशेष योगदान रहा है। महाभारतकार वेदव्यास ने भारतीय संस्कृति की एक सूत्रता प्रमाणित करते हुए बहुलात्मक समाज वाले सामासिक संश्लिष्टता से युक्त भारत का सपना देखा, उन्होंने समग्र भारतीय समाज को कुल का स्वरूप दिया, जिसके अंतर्गत सात-सात कुल नदियों का समावेश किया गया, इसमें अनंत की एकता प्रमाणित करने के लिए अनजान क्षितिज को सहारा देने वाले बन्धुसागर को विशेष स्थान दिया गया। देशव्यापी सात पुरियों की अवधारणा से यह कुल परिपुष्ट हुआ, इस कुल का जो स्वभावसिद्ध आचार नियत हुआ वह देश भक्ति और लोकशक्ति के अंतरालंबन पर आधारित था, फलत: इस कुल के लिए कोई भी पराया नहीं था, सब अपने थे, समूचा विश्व एक अद्वितीय नीड़ के रूप में देखा गया। समूची पृथ्वी सबकी माता मानी गयी, केवल मनुष्य की ही नहीं, चर और अचर की भी, इस संकल्पना ने समूचे देश को पुष्पहार की भाँति एक सूत्र में पिरो दिया।
भारतीय संस्कृति को एक सूत्र में पिरोने में शिव का सबसे बड़ा योगदान रहा है। शिव ने सती के शव को लेकर जो तांडव किया उसी के फलस्वरूप इस देश का चप्पा-चप्पा एक सूत्र में ग्रंथित हो गया, वह शव खंड-खंड होकर सारे देश में गिरा और चौरासी शक्तिपीठों की स्थापना का कारण बना, ये पीठ अथवा साधना केंद्र अरुणाचल से लेकर सिंध तक तथा कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक फैले हुए हैं। भारत वर्ष की आध्यात्मिक एवं धार्मिक एकता बनाए रखने में इनका विशेष योगदान रहा है। विश्व के किसी भी साहित्य अथवा संस्कृति में अपनी पत्नी को प्यार करने वाला ऐसा नायक अत्यंत दुर्लभ है, जो कि शिव के चरित्र का प्रकर्ष है।
संस्कृति जीवनचर्या के मूल्यों और मानों का नाम है, इस देश में देवालय, तीर्थस्थान, आध्यात्मिक मान्यताएँ, कलात्मक स्थल एवं दर्शनीय वस्तुएँ सर्वत्र मिल जाती हैं। आदि शंकराचार्य द्वारा देश के चार बड़े तीर्थस्थानों की उसके चारों कोनों में स्थापना होने से भी भारतीय संस्कृति की मूलभूत एकता को बल मिला, यहाँ कथित कुल लोगों की जीवनचर्या के भीतर सात ऐसी पुरियों के नाम मुक्तिदायनी के रूप में आते हैं जो देश के बहुत बड़े भूभाग में छिटकी हुई हैं-
‘‘अयोध्या मथुरा माया काशी कांची अवंतिका।
पुरी द्वारावती चैव सप्तैता मोक्ष दायिका।।’’
इसी तरह एकता मंत्र की चर्चा भी लोगों की दिनचर्या के भीतर हुई है जिसमें व्यक्ति अपने कल्याण के लिए देश की समस्त प्रसिद्ध नदियों और समुद्र का स्मरण करता है-
‘‘गंगा सिन्धु सरस्वती च यमुना गोदावरी नर्मदा
कावेरी सरयू महेंद्रतनया चर्मणवती वेदिका
क्षिप्रा वेत्रवती महासुर नदी ख्याता जाया गण्डकी
पूर्णा: पूर्णजलै: समुद्रसहिता: कुर्वन्तु में मंगलम।।’’
इसी तरह देश भर के पर्वतों का भी सम्मानपूर्वक स्मरण किया गया है जो देशवासियों के पारस्परिक रागात्मक बोध का परिचायक है-
‘‘महेन्द्रो मलय: सह्यो देवतात्मा हिमालय:
ध्येयो रैवतको विंध्यो गिरीश्वारावालिस्तथा।।’’
हमारे यहाँ धार्मिक और साहित्यिक ग्रन्थ भी राष्ट्रीय भावना से ओत-प्रोत हैं, उनका प्रतिपाद्य भी एकता, समरसता और सामंजस्य है, उनका प्राचुर्य और वैविध्य तो अपूर्व है ही, उनकी मौलिक एकता और भी रमणीय है। भारतीय साहित्य का विकासक्रम लगभग एक सा ही है। संस्कृत भाषा के साहित्यिक और धार्मिक ग्रंथों का प्रभाव देशव्यापी रहा है और भारतीय संस्कृति को सबसे ज्यादा खुराक वहीं से प्राप्त हुई है, इस देश में राजनीतिक परिस्थितियों की तुलना में सांस्कृतिक परिस्थितियों एवं अंतर्वृत्तियों में अपेक्षाकृत ज्यादा समानता पाई जाती है, यदि हम पिछली अनेकानेक शताब्दियों पर दृष्टिपात करें तो पाते हैं कि इस देश में अनेक धार्मिक और सांस्कृतिक आन्दोलन ऐसे हुए हैं जिनका प्रभाव भारतव्यापी था। बौद्ध धर्म के युग में उसकी कई शाखाओं और शैव शाक्त धर्मों के संयोग से नाथ संप्रदाय उठ खड़ा हुआ, जो ईसा के द्वितीय सहदाााब्दी के आरम्भ में उत्तर तिब्बत, दक्षिण में पूर्व घाट के प्रदेशों, पश्चिम में महाराष्ट्र और पूर्व में प्राय: सर्वत्र फैला हुआ था, इनमें नाथ, सिद्ध और शैव सभी थे जो योगी होते हुए भी जीवन के विचार और भावपक्ष की उपेक्षा नहीं करते थे, इनके उतराधिकारी संत सम्प्रदायों और सूफियों के मत का प्रसार भी देश के भिन्न-भिन्न लोगों में हुआ। संत सम्प्रदाय पर वेदांत दर्शन का प्रभाव था और वे निर्गुण भक्ति की साधना तथा प्रचार पर बल देते थे। भक्ति के आविर्भाव के सम्बन्ध में यह दोहा प्रसिद्ध है-
‘‘भगति द्राविड उळपजी लाए रामानंद।
परगट किया कबीर ने सप्त द्वीप नवखंड।।’’
यहाँ सप्त द्वीप नवखंड शब्द भक्ति के भारतव्यापी प्रभाव का ही द्योतक है।
भक्तिकाल के प्रायः सभी कवियों ने भारतीय समाज को एकजुट रखने के लिए सामान्य भक्ति मार्ग का सिंह द्वार सबके लिए खोल दिया, इन कवियों में विशेषकर तुलसीदास ने रामकथा का लोकभाषा में प्रणयन करके व्यक्ति, समाज, संस्कृति, राजनीति, धर्म-दर्शन और साहित्य के परस्पर विपरीत धु्रवों के बीच अंतरावलंबन, सह अस्तित्व, सहयोग और सौमनस्य का भाव भर कर बिखर रहे भारतीय समाज को भावनात्मक धरातल पर समन्वित कर दिया। वर्तमान सन्दर्भ में जिसे हम तनाव और संघर्ष का निराकरण कहते हैं तुलसी का समन्वयवाद उसका साकार विग्रह है, इसके द्वारा वे भारतीय संस्कृति तथा सामाजिक व्यवस्था में हिंसा, आतंक और संघर्ष के बजाय अनुकूलन, लचीलापन और एकीकरण बनाये रखने में कामयाब होते हैं, उनकी समन्वय भावना भारतीय संस्कृति का तत्त्व बन जाती हैं गोस्वामी तुलसीदास ने रामलीला मंडलियों का बाकायदा गठन एवं मंचन करवाकर भारतीय सांस्कृतिक एकता के लिए मंच उपलब्ध करवाया। भारतीय संस्कृति में भावात्मक एकता का गुण पैदा करने में मुल्ला दाउद, जायसी, रहीम, रसखान जैसे मुस्लिम कवियों की विशेष भूमिका रही, जिसके चलते भारतेंदु हरिश्चंद्र जैसे जन-कवि को लिखना पड़ा कि-‘इन मुसलमान हरिजनन पर कोटिक हिन्दू वारिये।’ भक्त कवियों द्वारा जब राम कृष्ण की लीलाओं का गान समूचे देश में बड़े वेग से व्याप्त हो गया तब राम और कृष्ण की अनेक मधुर पद्धतियों का देश भर में प्रसार हुआ और समस्त भारतवर्ष सगुण ईश्वर के लीलागान से गुंजरित हो उठा, इसके बाद ईरानी संस्कृति के प्रभाव के कारण सांस्कृतिक शिथिलता का दौर चला, आगे चलकर पाश्चात्य संस्कृति एवं भारतीय संस्कृति के बीच के द्वन्द्व ने देशव्यापी सांस्कृतिक नवजागरण को उपस्थित किया, नतीजतन भारतीय संस्कृति अपनी एकरूपता और समन्वय में पुन: उठ खड़ी हुई।
सन् १८५७ की क्रांति के उपरांत भारतीय समाज में जो पुनर्जागरण उपस्थित हुआ उसके कारण भारतीय समाज में असाधारण बौद्धिक क्षमता से सम्पन्न अनेक समाज-सुधारक आते हैं जो भारतीय संस्कृति का परिष्कार करते हैं। साथ ही भारतीय समाज-व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन करने के बजाय उसमें रासायनिक परिवर्तन उपस्थित करते हुए उसे स्वस्थ एवं संगठित बनाने का उपक्रम करते हैं। महर्षि दयानंद सरस्वती, स्वामी विवेकानंद तथा महर्षि अरविन्द भारतीय संस्कृति का नया पाठ तैयार करते हुए उसे विश्वव्यापी प्रतिष्ठा और वैश्विक विमर्श का हिस्सा बनाते हैं। महर्षि अरविन्द ‘भारतीय संस्कृति के आधार’ जैसा ग्रन्थ लिखकर उसकी सैद्धांतिकी निर्मित करते हैं।
लोकमान्य तिलक सार्वजनिक गणेशोत्सव की प्रतिष्ठा द्वारा भारतीय संस्कृति में निहित सांगठनिक क्षमता को उजागर करते हैं, इससे स्वाधीनता संग्राम के कठिन संघर्ष के दिनों में भारतीयों के समक्ष ‘संघे शक्ति: कलियुगे’ को चरितार्थ करने का सुअवसर उपलब्ध हुआ, इसी क्रम में गाँधी जी और डॉ. अम्बेडकर भारतीय संस्कृति एवं समाज में व्याप्त जड़ता दूर करते हुए नूतन लक्ष्य के प्रति सन्नद्ध करते हैं। हिंदी के विश्वस्तरीय आलोचक आचार्य रामचंद्र शुक्ल यदि कर्म सौन्दर्य की प्रतिष्ठा करते हुए उसे भारतीय संस्कृति के केन्द्र में लाते हैं तो महाकवि जयशंकर प्रसाद ‘कर्म का भोग, भोग का कर्म, यही जड़ का चेतन आनंद’ कहकर कर्म-फल का पुनर्विश्लेषण करते हैं।
भारतीय संस्कृति नाना जातियों, नाना धर्मों, नाना विश्वासों तथा अनेक प्रकार की उपासना पद्धतियों का संश्लेषण है, यह जिन अभिलक्षणों के आधार पर वैविध्य में एकत्व बनाए हुए है उसमें मानवजाति की एकता में विश्वास सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। भारतीय संस्कृति मानवजाति की एकता को लेकर संकल्पित है जो किसी अन्य संस्कृति में शायद ही मिले, हमारी संस्कृति काल, महाकाल तथा इतिहास विधाता की अवधारणा में विश्वास रखती है, साथ ही यह प्रतिपादित करती है कि काल जितना न्यायी है उतना ही क्रुर भी, वह अपने साथ उन्हीं को ले चलना पसंद करता है जिनमें उसके कंधे पर सवार होने की शक्ति होती है। भारतीय संस्कृति ‘चयन’ और ‘वरण’ के प्रति अतिशय सतर्क है, वह हजारों वर्षों की अपनी जय यात्रा में अनेक अनुपयोगी चीजों का त्याग कर चुकी है, उसमें बहुत सारे बाहरी तत्त्वों ने अपना स्थान सुरक्षित भी कर लिया है। भाषा, भवन, भेष और भोजन चारों ही आधारों पर इसकी पड़ताल की जा सकती है।
भारतीय संस्कृति ‘परहित सरिस धर्म नहिं भाई। पर पीड़ा सम नहिं अधमाई।।’
जैसे आदर्श का पुरस्करण करती है। वह ‘नहिं मानुषात् परा धर्म:’ अर्थात् मनुष्यता से बढ़कर कोई धर्म नहीं है, के उद्घोष द्वारा अपनी व्यापक दृष्टि तथा उच्चतर मूल्यों के प्रति प्रतिबद्धता को रेखांकित करती है, वह मानवीय धर्म की प्रतिष्ठा करते हुए सर्वधर्म समभाव ओर सर्वजन हिताय की संकल्पना प्रस्तुत करती है, वह मानव के देवत्व और आत्मोन्नयन में विश्वास व्यक्त करती है। मैथिलीशरण गुप्त ‘साकेत’ में मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम से जो सवाल ‘राम तुम मानव हो देवता नहीं हो क्या?’ के रूप में करते हैं उसका उत्तर वे स्वयं राम से दिलवाते हैं-
‘‘सन्देश यहाष्ट नहीं मैं स्वर्ग का लाया।
इस भूतल को ही स्वर्ग बनाने आया।’’
इस देश की संस्कृति आत्मिक उत्कर्ष में विश्वास रखते हुए अतिशय भौतिकवादिता तथा स्वार्थन्धता का निषेध करती है, आज जब विश्व बाजारवाद की आयोजक-नियोजक शक्तियाँ उपभोक्तावाद, स्वार्थपरकता और लाभवृत्ति को विश्व स्तर पर प्रसारित कर रही हैं तब ‘‘कामायनी’’ में अग्रांकित पंक्तियाँ अतिशत प्रसांगिक एवं दिशादर्शक बन पड़ी हैं- ‘‘अपने भर सब कुछ केसे व्यक्ति विकास करेगा, यह एकांत स्वार्थ भीषण है अपना नाश करेगा।
औरों को हंसते देखो मनु हँसो और सुख पाओ, अपने सुख को विस्तृत कर लो, सबको सुखी बनाओ।।
भारतीय संस्कृति अपनी विराट दृष्टि और सर्वसमावेशकता के साथ-साथ प्रवृत्ति एवं निवृत्ति के मध्य संतुलन साधती है, वह निर्मल भाव से गृहस्थ जीवन जीने के आदर्श की प्रतिष्ठा करती है, इस सन्दर्भ में गोस्वामी तुलसीदास का निम्न दोहा विशेष रूप से चिंतनीय बन पड़ा है- घर राखे घर जात है, घर छोड़े घर जाय।
तुलसी घर-वन बीच ही, राम प्रेमपुर छाय।।
यदि आज २१वीं सदी में भारत महाशक्ति बनने की ओर अग्रसर है तथा धर्म के नाम पर जो राष्ट्र बने वे बंट गए अथवा विसंगतियों का शिकार होकर भटक गए तो इसके पीछे हमारे ऋषियों, मनीषियों की तपश्चर्या तथा भारतीय संस्कृति में विद्यमान आत्मविश्लेषण, बौद्धिक खुलापन तथा सर्वमंगलाशा जैसी अंतर्वृतियाँ हैं, यदि हमारा समाज जातिप्रथा की जकड़न से निजात पा लेता है, चाणक्य जैसे महामनीषी का नेतृत्व पा जाता है, भ्रष्टाचार को मर्यादित करने में सफल हो जाता है तथा शक्ति के बिखरे पड़े विद्युत्कणों एवं परमाणुओं को एकत्र कर लेता है तो वह भारत को विश्वगुरु की स्वाभाविक प्रतिष्ठा दिलवा सकता है। हम डॉ. अम्बेडकर द्वारा प्रतिपादित ‘संगठन’ का अर्थ आंतरिक समता को चरितार्थ करके ही मनुष्य के भीतर निहित उदार रमणीय भाव को विश्वमंगल में रूपांतरित कर सकते हैं, तभी हमारी संस्कृति एवं धर्म मठों, मंदिरों, कर्मकांडों, संग्रहालयों, धर्मध्वजों तथा पोथियों की मर्यादा अक्षुण्ण रखते हुए समता एवं बन्धुत्व को अभ्यास एवं आचरण का अविच्छिन अंग बना देगा, जिस तरह भारत को जोड़ने का कार्य सहदाााब्दियों से प्रयाग, नासिक, उज्जयिनी तथा हरिद्वार के कुम्भ कर रहे हैं उसी तरह भारतीय संस्कृति अपनी विश्वपरक संदृष्टि तथा लोकोन्मुख गतिशीलता द्वारा निरन्तर अपने को परिमार्जित करते हुए सर्वग्राह्य वरणीय बनाए रख सकती है, जब हम वर्तमान सन्दर्भ में भारतीय संस्कृति के समक्ष विद्यमान चुनौतियों पर गहनता पूर्वक विचार करते हैं तो पाते हैं कि उसे पश्चिम की उपभोक्तावादी वैश्विक संस्कृति से अपनी अस्मिता को बचाना होगा, उसे धर्मशास्त्रीय तथा तत्व मीमांसीय उलझनों से मनुष्य को मुक्त करके विज्ञान द्वारा प्राप्त अनिश्चितताओं तथा बेचैनियों का निदान ढूँढ़ना होगा, उसे अहिंसा जैसे मूल्य को विश्व स्तर पर प्रतिष्ठित करते हुए यह बताना होगा कि विज्ञान की निस्पृह वस्तुनिष्ठता, मूल्यनिरपेक्षता एवं अवैयक्तिकता के अंतरतम में भयानक हिंसा निहित है, यह हिंसा प्रकृति के प्रौद्योगिकीयदोहन, आर्थिक उपनिवेशीकरण तथा अत्याधुनिक वैज्ञानिक शस्त्रास्त्रों द्वारा होने वाले युद्ध के रूप में देखी जा सकती है। प्रसाद ने ‘कामायनी’ में इस दिशा में विश्व-मनुष्यता को सचेत किया था जिसे और भी प्रभावी ढंग से प्रस्तुत करने की जरूरत है। भारतीय संस्कृति अपनी विशद परम्पराओं, उच्चतर मानवीय मूल्यों, ज्ञान पद्धतियों तथा वैश्विक एवं बह्मांडीय शांति का आदर्श रखकर ही विश्व मानवता का मार्गदर्शन कर सकती है, उसे दुनिया को यह बताना होगा कि जीवन एवं जगत तथा मानवीय व्यवहार अपने वैविध्यपूर्ण स्वरूप में ही रमणीय हैं, समूची विश्वमानवता को एक रीति-नीति तथा विश्वव्यापी सांस्कृतिक माडल के अंतर्गत रूढ़िबद्ध तरीके से नहीं लाया जा सकता। भारतीय संस्कृति अपनी विश्व संदृष्टि, मानवीय चिंता, अध्यात्म निष्ठा, प्रकृति के प्रति रागपरक रहस्य चेतना तथा लौकिक- अलौकिक सन्दर्भों को तार्किक परिणति प्रदान करके जीवन एवं संस्कृति के पश्चिमी दृष्टिकोण तथा औद्योगिक स्वरूप की श्रेष्ठता के प्रति संदेह पैदा कर सकती है, उस पर सवालिया निशान लगा सकती है, ऐसा करके वह अपने बौद्धिक स्तर को ऊँचा कर सकती है, अपने प्रति विश्व की समझ में वृद्धि करते हुए उनकी उन्मुखता आकर्षित कर सकती है। भारतीय संस्कृति ब्रह्म और ब्रह्माण्ड की अनंतता का ज्ञापन करते हुए भारतीय समाज को दीर्घावधि तक संगठित और एकजुट रहने का आश्वासन देती है। संक्षेप में भारतीय संस्कृति हजारों वर्षों की जय यात्रा के बाद अपनी बहुलता, बहुस्तरीयता तथा विविधता में भी आन्तरिक संलग्नता एवं एकता का भान कराती है, वह सृष्टि रूपी फूल के समाप्त हो जाने पर भी उच्चतम मानवीय मूल्यों तथा आत्मा को नाभि केन्द्र में रखने के कारण सुगंध की तरह विद्यमान रहने वाली है, जायसी ने ठीक ही कहा है कि-
‘पूळल मरै पर मरै न बासू।’
सारांश यह है कि भारत की राष्ट्रीय एकता के लिए सांस्कृतिक एकता का आधार अनिवार्य है और सांस्कृतिक एकता का सबसे दृढ़ एवं स्थायी आधार है भाषा और साहित्य। कहने की आवश्यकता नहीं है कि भारतीय साहित्य और भाषाएँ अनेक निराशावादियों की आशंकाओं को रौंदती हुई एक समकित इकाई के रूप में निरंतर विकासमान हैं। भारतवर्ष अपनी सांस्कृतिक अविच्छिन्नता एवं एकता के कारण ही प्राकृतिक राष्ट्र बना है, जिसके फलस्वरूप उसकी आंतरिक ऊँर्जा एवं महाप्राणता असंदिग्ध है, हमारी संस्कृति में ग्रहण और त्याग का विवेक है, जिससे हमारे राष्ट्रीय मूल्य एवं मान समय-समय पर परिष्कृत होते रहते हैं, हम सर्वदा से विराट के उपासक रहे हैं जिसके कारण वैश्विक चेतना और विश्व संदृष्टि से भारतीय संस्कृति अनुप्राणित है, वह ‘स्व’ से ‘पर’ और ‘सर्व’ की ओर बढ़ने वाली सुदीर्घ श्रृंखला है, वह ऐसा प्रवाह है जिसकी एक-एक बूँद में विद्यमान चुनौतियों के शिलाखंड को बहा ले जाने की क्षमता ने ही भारतीय राष्ट्रीयता को विश्वमैत्री, विश्वबंधुत्व और विश्वशांति तक विस्तीर्ण किया है। कुल मिलाकर भारतवर्ष में सांस्कृतिक एवं भाषागत जटिलता के बीच एक उच्चकोटि का रागात्मक बोध अन्त:वर्तनी धारा के रूप में विद्यमान, जो हमारी सांस्कृतिक एकता का प्रमाण है, हमारी यह एकता भी जटिल और बहुस्तरीय है लेकिन मानवमात्र के प्रति समदृष्टि तथा समूची मनुष्यता की मंगल-कामना उसका केन्द्र बिंदु है।
हमारे समकालीन वैश्विक परिवेश में जब मनुष्य का धैर्य और सहिष्णुता जैसे भाव भौतिक जीवन की आपाधापी के दबाव के चलते तिरोहित हो रहे हैं तब मनुष्यता के उच्चतम आदर्श को लेकर संकल्पित हमारे मूल्य नूतन अर्थवत्ता पा रहे हैं, आज हिंदी भारतवर्ष की सांस्कृतिक एवं भाषिक एकता का मेरुदंड सिद्ध हो रही है। देश की ७८ प्रतिशत जनता उसमें संवाद करने में सक्षम है, यह भी संभव है कि निकट भविष्य में साक्षरता का प्रतिशत बढ़ने के साथ-साथ ‘हिंदी’ में संवाद करने वालों का प्रतिशत भी बढ़े, उसके माध्यम से समूचा भारतीय समाज सांस्कृतिक स्तर पर जुड़ाव महसूस कर रहा है, साथ ही समस्त भारतीय भाषाओं में क्या लिखा जा रहा है इसकी सूचना भी समूचे भारत को ‘हिंदी’ के माध्यम से ही पहुँच रही है। संक्षेप में हमारी सांस्कृतिक एवं भाषिक एकता की जड़ें बहुत गहरी एवं विस्तृत हैं तथा राष्ट्रभाषा हिंदी उसके प्रतिबिम्ब का सबसे सशक्त माध्यम है, इस दौर में जब समूचा संसार मूल्यहीनता और अनास्था के चलते भटकाव का शिकार हो रहा है तब भारतीय संस्कृति की सनातन मूल्यवत्ता उसमें जीवन के प्रति स्वीकृति का भाव भर सकती है, उन्हें भौतिक और आत्मिक उन्नति के संतुलित मार्ग पर ले जा सकती है, फलत: उसकी प्रासंगिकता भी लगातार बढ़ती जाए।