स्वभाषा का महत्व
by Bijay Jain · Published · Updated
स्वतंत्रता सैनानियों ने अपना बलिदान इसलिए दिया था कि उनका देश अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त होकर आत्मनिर्भर और स्वावलंबी बने, उसके लिए उनका मानना था कि भारतीय भाषाएँ हर क्षेत्र में प्रतिष्ठापित हों और ‘हिंदी’ भारत की संपर्क राष्ट्रभाषा बने, क्या उनका सपना पूरा हुआ या आज भी मानसिक गुलामी से पीड़ित हैं जो राजनैतिक गुलामी से कहीं अधिक हानिकारक है, इसका कारण अंगरेजी का बढ़ता वर्चस्व, जिसकी ताकत अंग्रेजों के शासन की ताकत से कहीं अधिक शक्तिशाली है और अंग्रेजी माध्यम के स्कूली शिक्षा से यह ताकत घर-घर में बढ़ती जा रही है। स्वतंत्रता के बाद स्वार्थवश अंग्रेजी के पक्षधरों द्वारा, अंग्रेजी के प्रयोग की दी गयी छूट के कारण आज जो स्थिति पैदा हो गयी है, कथनी और करनी में अंतर के कारण स्थिति दिन प्रतिदिनि बिगड़ती जा रही है, दिखने के लिए भारतीय सत्ताधारी राजनेताओं भारतीय भाषाओं को राजभाषा का दर्जा दे दिया है, ‘हिंदी दिवस’ पर सत्ताधारी बुद्धिजीवी ‘हिंदी’ गुणगान करते नहीं थकते और उसके प्रचार के लिए करोड़ों रुपये का अनुदान देते हैं पर स्वयं प्रयोग नहीं करते, इसी कारण हिंदी ही नहीं अन्य भारतीय भाषाएं भी अंगरेजी के आगे बौनी पड़ गयी हैं, परिणाम स्वरूप आज आधी सदी के बाद भी राष्ट्र गूंगा और उसकी पहचान नहीं है, कोई भी भाषा राष्ट्र की संपर्क भाषा घोषित नहीं है, ‘हिंदी’ जब अपने ही प्रदेश में प्रतिष्ठापित नहीं हो पा रही तो उसे राष्ट्र की संपर्क भाषा बनाने का सपना भी पूरा नहीं हो सकता, प्रश्न उठता है की अंग्रेजी के वर्चस्व से कौन पीड़ित है या व्यथित है व्यक्ति या राष्ट्र या कोई नहीं, यदि नहीं तो चिंतन व्यर्थ है, इसलिए अब समय आ गया है की भारतीय भाषाओं के प्रतिष्ठापनार्थ वभिन्न पहलुओं पर विचार करें और यदि भारतीय भाषाओं का प्रतिष्ठापन राष्ट्र हित में है तो उसके लिए दृढ़ता से संगठित होकर प्रयास किया जाये।
भावनात्मक:- हमें स्वभाषा के सम्मान के लिए कार्य करना चाहिए, कोई भाषा सम्मानित तब होती है जब वह ज्ञान-विज्ञान की वाहक हो और अपमानित तब होती है जब उसका प्रयोग उस प्रयोजन के लिए नहीं किया जाए, जिसके लिए उसको निर्धारित किया गया है। अंग्रेजों के शासनकाल हमारी भाषाएँ सम्मानित थी और न हीं अपमानित होती थी पर अब अपमानित हो रही हैं, आज हमारी भाषाएँ राजभाषा बनी हुई है पर हकीकत में उनको यह दर्जा भी प्राप्त नहीं है, अत: वे अपमानित हो रही हैं, सबसे अधिक अपमानित ‘हिंदी’ है, इसका कारण स्वभाषा के स्वाभिमान का विलुप्त हो जाना, अत: स्वभाषा को सम्मान दिलाना या उन्हें अपमान से बचाने के लिए स्वभाषा के प्रति खोए स्वाभिमान को जगाना होगा।
सांस्कृतिक:- विचारणीय है कि संस्कृति क्या है और स्वभाषा और संस्कृति का क्या सम्बन्ध है, क्या यह अध्यात्मवाद एवं अपनापन है या हमारे ग्रन्थ रामायण, गीता की पूजा पाठ? एक प्रतिष्ठित पत्रकार डॉ झुनझुनवाला का कहना है कि अपने ग्रंथों का अंगरेजीकरण कर दिया जाए तो हमारी संस्कृति बरकरार रहेगी, अंगरेजी के किस स्तर के प्रयोग से संस्कृति नष्ट हो रही है, अंग्रेजों के शासन काल में जब अंग्रेजी भाषा थी तब संस्कृति का कद्र क्यों नहीं था, हमारी भारतीय भाषाओं की मूल प्रति अध्यात्मवाद एवं अपनापन है जब अंगरेजी की मूल भावना भौतिकवाद एवं औपचारिकता है। अंग्रेजों के समय में हमारी स्कूली शिक्षा स्वभाषा के माध्यम से होती थी और निजी व्यवहार जैसे विवाह इत्यादि के लिए निमंत्रण पत्र में स्वभाषा का प्रयोग होता था पर आज अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों की दिनों-दिन बढ़ोत्तरी हो रही है और निजी व्यवहार में भी उसका प्रयोग बढ़ रहा है। निजी व्यवहार को रोकने के लिए अंग्रेजी का का प्रयोग करने वाले के साथ असहयोग करना होगा, जैसे अंगरेजी में आये निमंत्रणों को स्वीकार नहीं करना और स्वभाषा के प्रति स्वाभिमान को जगाना होगा, स्वभाषा के माध्यम से स्वदेश के प्रति चिंतन जागरूक होगा, इस सम्बन्ध में निम्न विचार प्रस्तुत हैं
भ्रष्टाचार:- भ्रष्टाचार का मुख्य कारण है भौतिक सुख के लिए धनोपार्जन।
भौतिक सुख का कारण है भौतिकवाद की विचारधारा को अपनाना, जैसा हम ऊपर कह चुके हैं कि अपनी भारतीय भाषाओं की मूल प्रवृति
अध्यात्मवाद एवं अपनापन है जबकी अंगरेजी की मूल भावना भौतिकवाद एवं औपचारकिता है, अतः अंग्रेजी को जीवन के हर छेत्र में माध्यम के रूप में अपनाने से भौतिकवाद और भौतिकवाद से भ्रष्टाचार बढ़ा है, यदि यह कारण नहीं है तो अन्य कारण क्या है इस पर विचार आवश्यक हैं।
राष्ट्र एवं जनहित:- किसी भी राष्ट्र एवं उसके जनहित का अर्थ है जनजन की खुशहाली, आर्थिक सम्पन्नता, आत्मर्निभरता एवं स्वाभिमान से जीना। विश्व में विकसित राष्ट्रों में ऐसा पाया जाता है। विचारणीय है कि विकसित राष्ट्र बनने में स्वभाषा /जनभाषा की क्या भूमिका है? यह देखा जाता है कि विश्व में विकसित राष्ट्र वही है जिसकी जनभाषा, शिक्षा का माध्यम व कार्यभाषा एक हो। वैज्ञानिक तर्क पर यह सही प्रतीत होता है। किसी भी देश का विकास, मौलिक शोध एवं उस देश की धरती के संसाधनों से जुड़े प्रोद्योगिकी विकास के लिए अनुप्रयोगिक शोध पर निर्भर करता है।
वैज्ञानिक शोध दो प्रकार के होते हैं मौलिक जिसमें प्राकृतिक नियमों की मूलभूत खोज होती है और अनुप्रयोगिक जो देश विशेष के संसाधनों, पर्यावरण, जलवायु इत्यादि पर आधारित होते हैं। अनुप्रयोगिक शोध से ही देश विशेष की आवश्यकताओं के अनुकूल प्रौद्योगिकी का विकास होता है, जहाँ मौलिक शोध से देश की आर्थिक सम्पन्नता व उसकी प्रतिभा बढ़ती है, वहीं अनुप्रयोगिक शोध से आत्मनिर्भरता बढ़ती है। मौलिक शोध का ताजा उदाहरण बिल गेट्स द्वारा व्यक्तिगत कम्प्यूटर सिद्धांत का विकास है, इससे अमरीका की सम्पन्नता बढ़ी, स्वभाषा के कम्प्यूटरों का विकास अनुपयोगिक शोध का उदाहरण है।
देश विशेष की आवश्यकताओं के अनुकूल प्रौद्योगिकी के विकास ही जन-जन के लिए उपयोगी व्यवसाय विकसित हो सकते हैं। उदाहरण के लिए घरेलू उद्योग धंधे यथा कुम्हार का मिट्टी का कुल्लड़, कृषि का विकास। कुल्लड़ का कचरा प्रदूषण पैदा नहीं करता क्योंकि टूटने पर मिट्टी-मिट्टी में मिल जाती है, हमारे देश में किसान गोबर के खाद का प्रयोग करते थे, जो धरती की उर्वरा शक्ति को नष्ट नहीं करता, रासायनिक खाद के प्रयोग से हम अपनी धरती की उर्वरा शक्ति को खो रहे हैं, यदि इस क्षेत्र में शोध किया जाता तो कुम्हार के कुल्लड़ को मजबूत किया जाता। कचरा आदि रसायन रहित खाद का प्रयोग बढ़ाया जाता, तो गाँवगाँव में व्यवसाय विकसित होते और शहर की और दौड़ कम होती, इसी प्रकार परमाणु ऊर्जा के क्षेत्र में धरती से जुड़े शोध का उदाहरण है थोरियम आधारित परमाणु बिजली घर का विकास, क्योंकि हमारे देश में थोरियम का अथाह भंडार है, यूरेनियम का नहीं, अतः थोरियम के परमाणु बिजली घरों के विकास हमें आत्मनिर्भर नहीं बनाएँगे जबकि यूरेनियम के परमाणु बिजली घर हमें पश्चिम के विशेष क्रम अमरीका पर निर्भर रखेंगे। मौलिक और अनुप्रयोगिक दोनों प्रकार के शोध देश की प्रतिभाओं द्वारा होते हैं, दोनों शोध के लिए पहली आवश्यकता है मौलिक/ रचनात्मक चिंतन व् लेखन एवं ज्ञान का आत्मसात करना, दूसरी आवश्यकता है भाषा पर अधिकार व तीसरी है अपने देश की आवश्यकताओं को समझना, प्रश्न उठता है कि क्या अंग्रेजी माध्यम से पढ़ने वाली प्रतिभाएँ इस दिशा में कार्य कर सकेंगी?
मौलिक चिंतन एवं लेखन: विचारणीय है कि क्या स्कूली विशेषकर प्राथमिक शिक्षा का माध्यम मातृभाषा या जनभाषा से अलग भाषा होने पर मौलिक चिंतन समाप्त हो जाता है क्योंकि उस भाषा को सीखने के लिए रटना पड़ता है और बौद्धिक विकास के प्रारंभिक वर्ष दूसरी भाषा के सीखने में व्यतीत हो जाते हैं, जबकि स्वभाषा और जनभाषा से सहजता से ज्ञान अर्जित करने के कारण मानसिक विकास होता है, दुसरे विचारों की उड़ान सपनों में होती है और सपने स्वभाषा में ही देखते हैं। मौलिक चिंतन के लिए सपनों की भाषा एवं शिक्षण भाषा का एक होना आवश्यक है।
ज्ञान का आत्मसात स्वभाषा /जनभाषा से ही संम्भव है क्योंकि जन्म से ही हमारे रग-रग में बस जाती है।
दुसरी भाषा से हम ज्ञान तो प्राप्त कर सकते हैं पर ज्ञान का सृजन नहीं कर सकते।
मौलिक लेखन के लिए विचारों को लिपिबद्ध करने के लिए आवश्यक इच्छा तब ही होगी जब मौलिक लेखन स्वभाषा या जन भाषा में हो।
भाषा पर अधिकार:- व्यक्ति चाहे जितना भी चिंतन कर ले यदि उसका भाषा पर अधिकार नहीं है तो वह सत्साहित्य को न तो ग्राह्य कर सकता है और न स्वयं को अभिव्यक्त कर सकता है। अपने शोध को समझाने के लिए भाषा पर अधिकार की आवश्यकता होती है। विचारणीय है कि क्या शिक्षा का माध्यम और बोलचाल की भाषा अलग होने से व्यक्ति प्रभावी होगा या हम आधे अधूरे रहेंगे। सत्य तो यह है कि न तो हम उन लोगों में प्रभावी होंगे जिनकी हमारी स्कूली शिक्षा का माध्यम है और ना ही अपने लोगों में।
देश की आवश्यकताओं को समझना:- अनुप्रयोगिक शोध के लिए आवश्यक है उस देश की मूलभूत आवश्यकताओं को समझना, उसके संसाधनों, उसकी जलवायु एवं उसके परिवेश से परिचित होना। भारत का
परिवेश गाँवों से है, अतः गाँवों से जुड़ना आवश्यक है। विचारणीय है कि अँग्रेजी माध्यम से पढ़ने वाले लोग हमारे गाँवों की स्थिति दर्शाने वाले समाचार पत्रों एवं स्वभाषा में लिखे साहित्य को न पढ़ने के कारण हमारे गाँवों के परिवेश से न जुड़ कर विदेशी परिवेश से जुड़ रहे हैं।
- डॉ. विजय कुमार भार्गव
अपनी आंखों को दें पोषण की ताकत
कम्पूटर और टीवी के बढ़ते चलन ने ड्राई आई की समस्या बढ़ा दी है, एक अनुमान के अनुसार विश्व की लगभग ३३ प्रतिशत जनसंख्या ड्राई आई से पीड़ित है, आंखों की ऐसी बीमारियों से बचाव के लिए जरूरी है कि पोषक तत्वों का सेवन किया जाए।
अनुसंधानों में यह बात सामने आई है कि पोषण भी हमारी आंखों को स्वस्थ रखने में अहम भूमिका निभाता है, ऐसा भोजन, जो विटामिन ए.सी और ई. बीटा कैरोटिन, जिंक और ओमेगा-३ फैटी ऐसिड से भरपूर होता है, आखों को स्वस्थ रखने लिए जरूरी है।
गाजर– आंखों की रोशनी बनाए रखने में गाजर बहुत सहायक है।
कैसे खाएं– एक नए अध्ययन के अनुसार पकी हुई गाजर में कच्ची गाजर से ज्यादा विटामिन ए. ल्युटिन और विटामिन के होते हैं, गाजर को पकाने से बीटा कैरोटिन और फिनॉलिक एसिड की मात्रा भी बढ़ जाती है, इसे आलू, मटर, गोभी और मशरूम के साथ पकाया जा सकता है, वैसे आप गाजर का जूस पी सकते हैं, सलाद में डाल सकते हैं या कच्चा खा सकते हैं। गाजर का सूप भी बहुत पौष्टिक होता है।
लाभ– गाजर में बीटा कैरोटिन होता है, हमारा शरीर बीटा कैरोटिन को इस्तेमाल करके ही विटामिन ए का निर्माण करता है, विटामिन ए की कमी से कॉर्नियां धुंधला पड़ जाता है और यही दृष्टिहीनता का सबसे प्रमुख कारण है, गाजर में ल्युटिन एंटीऑक्सीडेंट भी भरपूर होता है, जो रेटिना की सुरक्षा करता है और एएमडी का खतरा कम करता है। कम्प्यूटर पर काम करते हैं और आपकी नजर कमजोर व धुंधली हो गई है तो छह महीने तक नियमित रूप से पालक खाएं, आपकी दृष्टि में काफी सुधार आ जाएगा।
कैसे खाएं– पालक में थोड़ा-सा तेल डालकर धीमी आंच पर पकाएं, तेज आंच पर उसके पोषक तत्व नष्ट हो जाते हैं। पालक काटने से पहले ही धोएं अलग से पानी में न डालें, २-३ मिनट से ज्यादा न पकाएं।
डेयरी प्रोडक्ट्स– जो लोग नियमित रूप से ३०० मिलीलीटर दूध या इतनी ही मात्रा में दही या अन्य डेयरी प्रोडक्ट्स लेते हैं, उनमें बढ़ती उम्र के साथ आंखों की बीमारियों का खतरा कम हो जाता है।
कैसे खाए– अगर ठंडा दूध पीने से परेशानी होती है तो गर्म दूध पीएं। गर्म दूध को शरीर आसानी से हजम कर सकता है, क्योंकि गर्म करने से उसमें मौजूद लैक्टोज टूट जाता है, जिससे पेट नहीं फूलता, जिन लोगों को दूध पसंद नहीं है या जो लोग लैक्टोज के प्रति इन्टॉलरेंट हैं, वो दही, पनीर या छाछ का सेवन करें।
लाभ– डेयरी उत्पादों में विटामिन ए भरपूर मात्रा में होता है जो आंखों की सेहत के लिए बहुत जरूरी है।
संतरा– संतरे विटामिन सी से भरपूर होते हैं, जो आंखों को स्वस्थ रखने में बहुत अहम भूमिका निभाते हैं।
हर कामयाब व्यक्ति के पीछे औरत का हाथ...?
एक होटल कंपनी के मालिक ने, अपने ग्राहकों के सामने एक शर्त रखी कि मगरमच्छों से भरे तालाब में जो आदमी मगरमच्छों से बचकर बाहर निकल जाएगा, उसको ५ करोड़ रुपए इनाम के तौर पर दिया जाएगा और अगर उस आदमी को मगरमच्छ ने खा लिया तो उसके परिवार को दो करोड़ रूपया दिया जाएगा ! यह सुनकर सभी लोग भयभीत हो गए ! किसी में इतनी हिम्मत नहीं थी कि वह तालाब में कूद सके !
तभी एक जोरदार आवाज आती है………..
लोगों ने शोर मचाना शुरू कर दिया, यह क्या, किसी आदमी ने तालाब में छलांग लगा दी थी ! लोगों की सांसे थम गई और सभी लोग उस आदमी की तरफ देखने लगे !
वह आदमी पूरी तरह से तालाब में जद्दोजहद कर रहा था !
बिजली की फुर्ती से, वह पानी को चीर कर आगे बढ़ रहा था !
सभी लोग उसको बहुत ध्यान से देख रहे थे !
अब यह आदमी मगरमच्छ का निवाला बनेगा !
वह देखो मगरमच्छ उस आदमी के पीछे!
मगर उस आदमी ने हिम्मत नहीं हारी वह पूरी तरह जद्दोजहद कर रहा था बाहर निकलने की !
तभी वह आदमी पानी को चीरता हुआ,
दूसरे किनारे से बाहर निकल जाता है !
उस आदमी को पूरी तरह सांस भी नहीं आ रही थी !
सभी लोग भाग कर उसकी तरफ गए !
लोगों ने ताली बजाना शुरू कर दिया !
जब उस आदमी को थोड़ा होश आया और उसे पता चल गया कि वह करोड़पति बन गया है, उसके मुंह से पहली आवाज निकली, ‘‘पहले यह बताओ मुझे धक्का किसने दिया था?” तभी तलाब के पास खड़ी भीड़ में, एक औरत ने हाथ खड़ा किया ! वह औरत, उस आदमी की बीवी थी ! उसने कहा, ‘‘तुम काम के तो हो नहीं, अगर बच गए तो ५ करोड़, मर जाते तो दो करोड़ दोनों तरफ, फायदा तो मुझे ही होना था !”
तब से यह कहावत बन गई, ”एक कामयाब व्यक्ति के पीछे, एक औरत का हाथ होता है”
भ्रष्टाचार मुक्त भारत कैसे बने, बतायें
ईमेल करें mailgaylordgroup@gmail.com
भ्रष्ट आचरण वाले जनप्रतिनिधियों के बीच भ्रष्टाचार मुक्त भारत कैसे बन सकता है, इस प्रश्न का जवाब क्या वर्तमान भाजपा सरकार के पास है जो कांग्रेस मुक्त भारत का सपना मन में सजोए बैठी है जो विदेशों से कालाधन वापिस लाने की बात कर रही है, इस तरह की जुमलेबाजी से आज जनता परेशान हो चुकी है, देश की आवाम समस्याओं से निदान चाहती है, महंगाई पर नियंत्रण चाहती है, टैक्स के बढ़ते दर से निजात चाहती है।
देश के युवा वर्ग को कर्ज नहीं रोजगार के लिए उपयुक्त संसाधन चाहिए, किसानों को कर्ज नहीं, अपनी फसलों का उचित दाम चाहिए। बाजार से बिचौलियों की भूमिका से आम जन निजात पाना चाहता है, इसीलिए देश का आवाम सत्ता बदलता रहता है। बड़ी उम्मीदों के साथ देश के आवाम ने केन्द्र में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भारी बहुमत देकर भाजपा की सरकार गठित की पर उसे अंतत: निराशा बढी है आम जन को न तो बाजार की बढ़ती महंगाई से राहत मिली, न देश के युवाओं को रोजगार के लिए नये उद्योग, सरकार की कौशल रोजगार योजना बैंक से कर्ज देने के सिवाय देश में कितना रोजगार सृजित कर पाई?
सरकार की जीएसटी से जीवन रक्षक दवाइयों से लेकर आम जनजीवन की उपयोग में आने वाली हर वस्तु महंगी हो गई। नोटबंदी योजना के दौरान कालाधन से होने वाली काली कमाई एवं छोटी-छोटी बचत कर बचाने वाले आम जनजीवन को अपने ही रकम के लिए उभरी परेशानियों के दृश्य अभी तक आंखों से ओझल नहीं हो पाए, फिर भी वर्तमान सरकार अच्छे दिन आने की वकालत कर रही है।
देश जब से आजाद हुआ, तब से लोकतंत्र की बागडोर सुविधाभोगी लोगों के हाथ आ गई जहां राष्ट्रहित से स्वहित सर्वोपरि होता गया, दिन-ब-दिन चुनाव महंगे होते गए। सत्ता पाने के लिए हर तरह के अनैतिक हथकंडे प्राय: सभी राजनीतिक दलों द्वारा अपनाए जाने लगे, जिससे लोकतंत्र पर माफियाओं का साम्राज्य धीरे-धीरे स्थापित होने लगा, अर्थबल एवं बाहुबल प्रभावित राजनीतिक प्रक्रिया ने भारतीय लोकतंत्र की दशा एवं दिशा ही बदल दी जहां लूटतंत्र का साम्राज्य स्थापित हो गया। पंचायती राज से लेकर विधायिका एवं कार्यपालिका तक शामिल सभी अपने-अपने तरीके से देश के माफियाओं के संग मिलकर देश को लूटने लगे, जिससे देश में अनेक प्रकार के घोटाले उजागर हुए, इस व्यवस्था का लाभ उठाकर अधिकांश प्राय: सभी के सभी झोपड़ी से उठकर महल तक पहुंच गए और देश की आम जनता टैक्स के भार तले दबती गई। महंगाई दिन-ब-दिन बढ़ती रही और जनता के चुने जनप्रतिनिधि अपना घर भरते रहे। माफियातंत्र प्रभावित लोकतांत्रिक व्यवस्था में
सर्वाधिक लूट को स्थान मिला जिससे देश भर में भ्रष्टाचार बड़े पैमाने पर फैल गया जिसे रोक पाना आज मुश्किल हो रहा है, माफियाओं को अपने साथ रख प्राय: सभी राजनीतिक दल भ्रष्टाचार मिटाने की बात तो करते हैं पर बिल्ली की रखवाली में चूहे कैसे सुरक्षित रह पाएंगे? कालाधन उगाही करने वाले जब साथ में हो तो देश में ही कालाधन रोक पाना मुश्किल है, फिर विदेशों से कालाधन कैसे वापिस आएगा? बात गले नहीं उतरती, आज जो जनप्रतिनिधि जहां भी हैं, अपने बारे में पहले सोचता है, सभी राजनीतिक दल येन-केन प्रकारेण सत्ता हथियाने के लिए बेमेल संगम से लेकर बेमेल सौदेबाजी करने को तैयार बैठे हैं, खरीद-फरोख्त इस व्यवस्था का प्रमुख भाग बन चुका है।
बहुमत पाने के लिए हर प्रकार के हथकंडे अपनाने में कोई किसी से पीछे नहीं, इस अनैतिक व्यवस्था को कायम करने में सभी प्रकार की नैतिकता ताक पर रख दी जाती है, राजनीतिक दल को जो सर्वाधिक चंदा दे सके, चुनाव में सर्वाधिक खर्च करने की क्षमता रखने के साथ-साथ चुनाव में जीत किसी भी प्रकार दर्ज करा सके, ऐसे जनप्रतिनिधि की तलाश प्राय: सभी राजनीतिक दलों को रहती है चाहे उसका आचरण कैसा भी हो, फिर व्यवस्था में किस प्रकार से सुधार होगा?
सत्ता बदलती रहती है पर जनता के हाथ वही ढाक के तीन पात लगते हैं, सभी जुमलेबाजी करते हैं, एक दूसरे को गलत ठहराते हैं, परिवर्तन लाने की बात करते हैं पर सभी एक जैसे कारनामे करते हैं। सत्ता पाने के लिए एक जैसी हरकते करते हैं। राष्ट्रपति,राज्यपाल से लेकर लोकसभा अध्यक्ष,विधानसभा अध्यक्ष जैसे सर्वोपरि सम्मानित पदों पर अपने चहेतों को बैठाते हैं जिनसे अपने मनमुताबिक कार्य करवा सकें।
देश की सरकारें बदलती रही पर यह प्रक्रिया आज तक नहीं बदली?
वर्तमान केन्द्र की भाजपा सरकार जोर-शोर से आम जनता से पूछ रही है कि कांग्रेस सरकार ने आज तक क्या किया, भाजपा सरकार खुद ही बताए कि अपने शासन काल में कांग्रेस नीतियों से अलग हटकर क्या किया? राष्ट्रपति, राज्यपाल से लेकर लोकसभा अध्यक्ष, विधानसभा अध्यक्ष, जैसे सर्वोपरि सम्मानित पदों के मामले में कांग्रेस से अलग हटकर क्या किया, चुनाव के दौरान सत्ता पाने के लिए कांग्रेस से अलग हटकर कौन सा नया गुल खिलाया। देश का कोई भी राजनीतिक दल भ्रष्ट आचरण वाले जनप्रतिनिधियों को अपने बीच से अलग नहीं करना चाहता, फिर भ्रष्ट आचरण वाले जनप्रतिनिधियों के बीच भ्रष्टाचार मुक्त भारत कैसे बने, यह विचारणीय पहलू है?
-डॉ. भरत मिश्र ‘प्राची’
विश्व हिंदी सम्मेलन की देन है ‘महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय’ वर्धा में साकार होता एक स्वप्न
हिंदी भारत में बोली और समझी जाने वाले न केवल एक प्रमुख भाषा है बल्कि यहाँ की संस्कृति, मूल्य और राष्ट्रीय आकांक्षाओं का व्यापक स्तर पर प्रतिनिधित्व भी करती है, इसका अस्तित्व उन सुदूर देशों में भी है जहाँ भारतीय मूल के लोग रहते हैं, संख्या बल की दृष्टि से ‘हिंदी’ का विश्व भाषाओं में ऊँचा स्थान है।
महात्मा गांधी हिंदी को ‘प्यार और संस्कार की भाषा’ कहते थे,
उनकी मानें तो ‘इसमें सबको समेट लेने की अद्भुत क्षमता है’
‘हिंदी’ अपने आप में बहुत मीठी, नम्र और ओजस्वी भाषा है
भारत के स्वतंत्रता संग्राम में ‘हिंदी’ ने पूरे भारत को जोड़ने का काम किया था, यद्यपि इसे जनमानस में राष्ट्रभाषा का गौरव मिला, पर भारत के संविधान में इसे ‘राजभाषा’ के रूप में स्वीकार किया गया, साथ ही यह प्रावधान भी किया गया कि अंग्रेजी का प्रयोग तब तक चलता रहेगा जब तक एक भी राज्य वैसा चाहे, ऐसी स्थिति में उल्लेखनीय साहित्यिक विकास के बावजूद जीवन के व्यापक कार्यक्षेत्र और ज्ञान-विज्ञान की भाषा के रूप में ‘हिंदी’ को वह स्थान नहीं मिल सका जिसकी वह हकदार है, इस परिप्रेक्ष्य में १९७५
में नागपुर में आयोजित प्रथम विश्व हिंदी सम्मेलन में हिंदी विश्वविद्यालय की स्थापना का संकल्प लिया गया, बाइस वर्ष बाद १९९७ में भारतीय संसद के विशेष अधिनियम क्रमांक ३ के अंतर्गत वर्धा में ‘महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय’ की स्थापना की गई, इस प्रकार इस संस्था की स्थापना की प्रमुख श्रेय विश्व हिंदी सम्मेलन को जाता है। विश्वविद्यालय ने न्यूयार्क, जोहान्सबर्ग और भोपाल में सम्पन्न विगत तीन विश्व हिंदी सम्मेलनों में प्रमुख दायित्व निभाया और उनके प्रतिवेदन तैयार कर प्रकाशित किए।
वर्धा का यह केंद्रीय विश्वविद्यालय हिंदी भाषा और साहित्य के संवर्धन और विकास के लिए एक बहुआयामी उपक्रम के रूप में आरम्भ हुआ, इसके अंतर्गत हिंदी-शिक्षण, अनुसन्धान, अनुवाद, भाषा विज्ञान, तुलनात्मक अध्ययन, प्रशिक्षण कार्यक्रम तथा अध्ययन के विभिन्न विभागों में शिक्षण और अनुसंधान, विदेशों में हिंदी की अध्ययन और दूर शिक्षा द्वारा हिंदी अध्ययन को प्रोत्साहन, देश और विदेश में सूचना के विकास और प्रसारण की व्यवस्था को शामिल किया गया। ‘हिंदी’ के भूगोल को विस्तृत करने और सांस्कृतिक अभिव्यक्ति की दृष्टि से समृद्ध करने के लिए विश्वविद्यालय कृतसंकल्प है। वर्धा की पंचटीला नामक पहाड़ी पर इस विश्वविद्यालय के निर्माण के लिए स्थान मिला और वर्ष २००० से शैक्षणिक गतिविधियाँ आरम्भ हुई। उच्च शिक्षा के किसी शैक्षिक केंद्र का निर्माण एक समयसाध्य चुनौती है, अपने बीस वर्ष की जीवन अवधि में यह विश्वविद्यालय अनेक दिशाओं में अग्रसर है, यह मानते हुए कि हिंदी के संवर्धन के लिए बहुमुखी उपाय आवश्यक है, यह विश्वविद्यालय अध्ययन-अध्यापन के अतिरिक्त अनेक प्रासंगिक कार्यों में भी अनवरत रूप से संलग्न है। ‘हिंदी’ को केंद्र में रख कर ज्ञान के विस्तार के लिए यह विश्वविद्यालय बहुमुखी योजनाओं के साथ आगे बढ़ रहा है, इसमें प्रमुख हैं: अध्ययन-अध्यापन, कोश-निर्माण, भाषा प्रौद्योगिकी का विकास, भाषाई प्रशिक्षण, अध्ययन सामग्री का निर्माण, शोध कार्य तथा साहित्य का प्रकाशन, शोध पत्रिकाओं का प्रकाशन, अतिथि लेखकों की उपस्थिति, संस्कृति-संवर्धन के प्रयास तथा हिंदी का प्रचार-प्रसार।
‘हिंदी’ न केवल भाषा है बल्कि भारतीय संस्कृति, ज्ञान और लोक-परंपरा को भी धारण करती है, इस पृष्ठभूमि में विश्वविद्यालय की संकल्पना ‘हिंदी’ को ज्ञान की भाषा के रूप में स्थापित करने और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ‘हिंदी’ को माध्यम बनाकर ज्ञान के आदान-प्रदान के लिए एक विश्वस्तरीय ज्ञान-केंद्र के रूप में की गई थी, व्यवहारिक रूप में यह विश्वविद्यालय अध्ययन-अध्यापन और शिक्षण के अतिरिक्त ‘हिंदी’ को बढ़ावा देने के लिए प्रकाशन, सांस्कृतिक संवाद और साहित्य-संकलन तथा उसके संरक्षण का भी कार्य करता है, इसका जीवंत परिसर अनेक दृष्टियों से सक्रिय है। भाषा की दृष्टि से ‘हिंदी’ को सबल बनाने के लिए और उसमें आ रही दुर्बलताओं को दूर करने की आवश्यकता को ध्यान में रखकर एक विशेष योजना तैयार की है, ‘हिंदी’ भाषा के उत्थान के लिए अध्यापकों के लिए, छात्रों के लिए आवश्यक अध्ययन सामग्री तैयार की जाए, दूसरा महत्वपूर्ण कार्य है भिन्न-भिन्न विषयों में ‘हिंदी’ की मानक पुस्तकें तैयार करने का, ताकि हिंदी ज्ञान-विज्ञान और विचार-विमर्श की एक समर्थ भाषा बन सके, इस दृष्टि से कार्य प्रगति पर है। तीसरा क्षेत्र है भाषा-प्रयोग के लिए सॉफ्टवेयर निर्माण का, आज यदि हम कंप्यूटर और इंटरनेट का उपयोग करना चाहते हैं तो डिजिटल फार्म में सारी चीजें मिलनी चाहिए, इसे ध्यान में रख कर प्रयास किया जा रहा है कि हम तकनीकी दृष्टि से भी ‘हिंदी’ को सबल बनाएं। विश्व हिंदी सम्मेलन् के अंतर्गत एक संकल्प लिया गया था कि कानून की शिक्षा हिंदी माध्यम से दी जाए, हमारे विश्वविद्यालय में कानून की शिक्षा का प्रस्ताव भी तैयार हुआ है, इसके लिए आवश्यक कारवाई आरम्भ की गई है, यह विश्वविद्यालय बहुआयामी है और ‘हिंदी’ जगत को इससे बड़ी अपेक्षाएँ हैं। ‘हिंदी’ के प्रचार-प्रसार और उसकी समृद्धि के प्रति विश्वविद्यालय गम्भीर और उसके प्रति समर्पित है, यहाँ के विद्यार्थी और अध्यापक इस कार्य में मनोयोग से लगे हुए हैं यह संतोष की बात है, फिर भी बहुत कुछ करना शेष है, हमारा स्वप्न है कि यह विश्वविद्यालय एक विश्वस्तरीय उच्च संस्थान का रूप धारण करे, यदि सामान्य रूप से हम विचार करें तो हमारी आवश्यकता है कि हम देशी विचारों और समस्याओं के समाधान की ओर ध्यान दें अपने देश की संस्कृति, परिस्थिति, सामाजिक ताना-बाना इन सबको ध्यान में रखकर अध्ययन होना चाहिए, अभी तक हमारे अध्ययन प्राय: उन्हीं सिद्धांतों और कार्यों को ध्यान में रखकर किये जाते रहे हैं जो कि पश्चिम के अपेक्षाकृत विकसित देशों में किए गए हैं, सामाजिक विज्ञानों में या मानविकी के विषयों में इस प्रकार का दृष्टिकोण बहुत लाभदायक नहीं है क्योंकि इस प्रकार का जो अनुकरण वाला कार्य है वह हमारे अपने समाज की समझ को बहुत अधिक स्पष्ट नहीं करता। गांधी जी की चेतावनी थी कि हमारी अपनी जमीन में हमारे पैर गड़े होने चाहिए, हमारे मकान की खिड़कियां खुली होनी चाहिए, बाहर की हवा आए और हम उसको ग्रहण करें, लेकिन यह नहीं कि हम बिलकुल बदल जाएँ, यह तो शायद आत्मघाती कदम होगा और यह विचार करने का प्रश्न है कि किस प्रकार हम संतुलन स्थापित कर सकते हैं, यह आवश्यक है कि हम अपने स्वभाव, अपने स्वधर्म के विषय में एक समझदारी विकसित करें, हम अपने मूल से जीवन ग्रहण कर सकते हैं, हमें अपनी आँखें खुली रखनी चाहिए और सांस्कृतिक विवेक की परिपक्वता पाने का प्रयत्न करना चाहिए, ‘मैं भारत हूँ’ परिवार को विश्वास है कि यह संस्था ‘हिंदी बने राष्ट्रभाषा’ अभियान की दिशा में सक्रिय रहेगी।
प्राचीन भारत में लेखन-सामग्री
-डॉ.शिवनन्दन कपूर
‘मनुस्मृति’ का उल्लेख है, इस देश के नभ में ही भासित ज्ञान के भास्कर की आभा से संसार आभासित हुआ। जन-जन ने जगत में आचरण की दिशा पाई गयी। देश में श्रुत-परम्परा पर्याप्त समय तक रही। कानों से सुन कर, मनन से मन में उतार कर, मनस्वियों ने आचरण की ओर चरण बढ़ाये। लेखन का भी विकास हुआ। अध्ययन-लेखन से ज्ञानार्जन की आभा और आभासित हुई। ‘ॐ नम: सिद्धम्’ से विद्या सिद्ध हुई। भारत ज्ञान-क्षेत्र की गरिमा से प्रसिद्ध हुआ। भारत विविधता में अनेकता का देश है। लेखन-आधार में भी यहाँ अनेकरूपता दृष्टिगत होती है। ‘काव्य-मीमांसा’ में इस प्रकार के उपदानों की चर्चा करते हुए भोज-पत्र, ताल-पत्र, लौह-कण्टक आदि का उल्लेख है।
भोज-पत्र : पावन लेखन-आधार के रूप में, भारत में पुरातन काल से ही भोज-पत्र का प्रचलन रहा। पवित्रता की मान्यता और परम्परा-पालन में आज भी इसका प्रयोग हो रहा है। आश्चर्य तो यह है कि भोज-पत्र कहा जाने वाला आधार भूर्ज-वृक्ष का पत्ता न होकर, उसकी छाल है। सिकन्दर के अभियान के समय, इसके चलन का संकेत कर्टिअस ने किया है। अलबरूनी ने भी लिखा था, ‘मध्य और उत्तरी भारत के निवासी भूर्ज तरु की छाल का उपयोग लिखने के लिये करते हैं ‘इसे ‘तूर्ज’ कहा गया है। खोतान के निकट प्राप्त, खरोष्ठी लिपि में लिपिबद्ध ‘धम्मपद’ इसी पर लिपिबद्ध है। अफगानिस्तान और अन्य स्थानों के स्तूपों में भी अनेक ग्रन्थों के पृष्ठ इस पर अंकित सुलभ हुए हैं।
चौथी शती का ‘संयुक्तागम सूत्र’ भी भूर्ज-पत्र कश्मीर में भी उपलब्ध हैं। भोज-वृक्ष की छाल उतार कर, उसे वांछित आकार में काट कर, चिकना करने के बाद उपयोग में लाते थे, हो सकता है, पहले पत्ते का प्रयोग हुआ हो, फिर छाल को समुचित पाकर उपयोग करने लगे हों। छाल की अपेक्षा पत्र कहने में गरिमा है। वैसे ‘योगिनी-तन्त्र’ ही नहीं, मदार के पत्ते, वट और अन्यान्य तरुओं के पत्तों का भी लेखन-साधन के रूप में अपनाये जाने का उल्लेख है-
अन्यवृक्षत्चचि देवि!तथा केतकिपत्रक।
मार्तण्डपत्रे रौप्ये वा वटपत्रे वरानने।
अन्यपत्रे वसुदले लिखित्वा य:समप्यसेत्।
लेखन-कला के अनेक प्रमाण हैं। ‘वाल्मीकि रामायण’ के अनुसार, राम के प्रत्येक पत्र पर उनका नाम अंकित था (६/४४/२३)। युद्ध-काण्ड में लेखन के प्रमाण में कहा गया है, जो मानव रामायण की प्रतिलिपि करेंगे वे वैकुठ के अधिकारी होंगे। (ये लिखन्ती च नरस्तेषाम् वासस्त्रिविष्टप’- वाल्मीकि रामायण, ६/१२८/१२०)। ‘जय काव्य’या ‘महाभारत’ के रचनाकार व्यास जी थे, वे जिस श्लोक का उच्चारण करते थे, आशु लिपिकार गजानन उसका अर्थ ह्य्दयंगम कर, लिखते थे। कभी-कभी गणेश के शीघ्रता कर लेने पर, व्यास कूट श्लोक की रचना कर, उनकी गति पर विराम लगाते थे। ‘अभिज्ञान शाकुन्तलम्’ में कमल के कोमल आधार पर प्रणय-पत्र की कोमलता के अंक तो उसके ही अंक पर नि:शंक आँके जा सकते थे।
ताल-पत्र : ताल-पत्र या ताड़-पत्र का प्रयोग भी प्रचुरता से हुआ करता था।
‘योगिनी तन्त्र’ में इसका संकेत है, ‘भूर्जे वा तेजपत्रे वा ताले वा तालपत्रके।’
पर्यटक ह्वेनसांग ने सातवीं सदी में, ताल-पत्र के लेखन-साधन के रूप में प्रयुक्त होने का उल्लेख किया है। तक्षशिला में ताड़-पत्र के ऐसे पृष्ठ प्राप्त भी हुए हैं, दूसरी शताब्दी के, अश्वघोष के दो नाटकों के ताल-पत्र पर लिखित खंण्डित अंश अपलब्ध हुए हैं। गाडफ्रे महोदय को कुछ ताल-पत्र चौथी शती के मिले थे। जापान के हारिमूज विहार में ‘प्रज्ञा पारमिता ह्य्दय सूत्र’ और ‘उष्णीष विजय धारिणी’ के अंश हस्तगत हुए हैं। ये छठी सदी के आस-पास के हैं तथा ताल-पत्र पर ही उरे के हैं। ११वीं सदी के अनेक ग्रन्थ ताड़-पत्र वाले पाये गये हैं। बौद्ध-विहारों में आज भी इस प्रकार के ताड़-पत्र के ग्रन्थ देखने में आते हैं।
भोज-पात्रों या ताल-पत्रों के मध्य में छिद्र कर, उन्हें बाँध दिया जाता था। गूँथने की इसी क्रिया के आधार पर उन्हें ‘ग्रन्थ’ कहा जाने लगा, यह छिद्र कभी बायें, कभी दायें भाग में किये जाते थे, इसी क्रिया से निबन्ध तथा प्रबन्ध शब्दों का उद्भव हुआ। छेद कर, गाँठ देने की परम्परा तो नहीं रही है, हाँ ग्रन्थ शब्द पर पड़ी। भूर्ज वृक्ष की छाल जब पत्र कहला सकती है, तो ताल-पत्र भी पत्र कहा जा सकता है।
धातु-पत्र : ‘योगिनी-तन्त्र’ में भोज-पत्र तथा अन्य पत्रों के साथ रजत, ताम्र, स्वर्ण पत्र भी राह पर लग गये। वे पत्ते न थे किन्तु पिट कर, ‘पतलेपन पर उतर आने’ से, वे भी पत्र कहलाने लगे, जैसे कोई उच्च व्यक्ति निम्न व्यवसाय अपना ले, तो उसे उसी श्रेणी का नाम दे दिया जाता है, कहा जाता है ‘सम्भवे स्वर्णपत्रे च, ताम्रपत्रे च शंकरि।’ स्तूपों में प्राय: रजत और कनक-पत्र प्राप्त हुए हैं। भूमि तथा अन्य प्रकार के दान प्रकरणों में प्रचलित होने वाले शासनदेश ताम्र-पत्र पर अंकित किये जाते थे, इसके मूल में, उनके स्थायित्व की भावना थी। धातु-पत्र चिरकाल तक बने रह सकते हैं। ‘याज्ञवल्क्य स्मृति’ में इनका उल्लेख है (१/३१९)। ताम्र-पट्टिका पर भूमि अथवा वस्तु के दाता एवं आदाता दोनों का नाम उत्कीर्ण होता था। चौथी सदी में भी इनके प्रचलन के प्रमाण हैं। फाहियान ने बौद्ध काल में इनके अस्तित्व की चर्चा की है। मौर्य युग में विशिष्ट शासनादेश ताम्र-पत्र पर ही उरेके जाते थे, ये ताम्र-पत्र स्थूल, पतले, भारी, हल्के सभी प्रकार के प्राप्त हुए हैं। ताँबे के पत्तरों को पीट-पीट कर, समतल कर, फिर उन पर लोहे की नोकदार लेखनी से अक्षर कुरेदे जाते थे, एक से अधिक पत्तरों की आवश्यकता पड़ने पर, उनमें छिद्र कर, ताँबे के तार से बाँध दिया जाता था।
काष्ठ-पट या पाटी : ‘ललित विस्तर’,‘विनय पिटक’ आदि में काष्ठ-पट का वर्णन है। लकड़ी की पाटी पर लिखने की प्रथा देश में बहुत समय तक चलती रही, प्रारम्भ में छात्र काष्ठ-पट लिखते रहे। क्षत्रप नहपान के शिला-लेखों में भी लकड़ी के फलकों का उल्लेख है। ब्रह्म देश या आधुनिक म्यॉमार में रंगीन काष्ठ-फलाकों पर लिपिकृत पुस्तकें प्राप्त हुई हैं। आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के पुस्तकागार में असम से प्राप्त काष्ठ-फलक सुरक्षित हैं।
कार्पास-पत्र या कागज : कहा जाता है, लेखन-आधार के रूप में कागज का प्रयोग पहले चीन में हुआ था, किन्तु निआर्कस ने लिखा है, ‘भारत-वासी रूई कूट कर कागज बनाया करते थे।’ व्यूलर का कहना है, ‘भारत में कागज का उपयोग मुसलमानों के माध्यम से हुआ’ किन्तु इसके भी अनेक प्रमाण हैं कि कार्पास-पत्र का उपयोग उससे भी पहले होता रहा था। राजा भोज के काल में लिखित ‘प्रशस्ति-प्रकाशिका’ तथा वररुचि प्रणीत ‘पत्र कौमुदी’ में भी इसके प्रयोग के संकेत हैं। गफ ने इसकी पुष्टि की है। जैनग्रन्थ ‘समवायांग’ की टीका में काठ, छाल, दन्त, लोहा आदि के साथ कार्पास-पत्र का भी उल्लेख लेखनाधार के रूप में है।
देशी कागज को लेई लगा कर, फिर घोट कर, चिकना कर लिया जाता था। संखिया या हरिताल के मिश्रण से कागज में कीड़ा नहीं लगता था। जैन लेखकों ने कागज की पुस्तकें लिखने में प्राय: ताल-पत्रों का अनुकरण किया है, उनकी पुरातन पुस्तकों के पृष्ठों के मध्य भाग खाली रहते हैं। कहीं-कहीं उनमें छिद्र भी हैं।
भारत में कागज की प्राचीनतम पुस्तकें १३वीं सदी की हैं, किन्तु मध्य एशिया में भारतीय लिपि की चार पुस्तकें तथा कुछ संस्कृत ग्रन्थ भी मिले हैं। वे लगभग पाँचवीं शताब्दी के हैं। मुगल काल में चित्रों के लिये ईरानी या इस्फहानी कागज पसन्द किया जाता था, बाद में, भारत में ही ‘सनी’, ‘रेशमी’, ‘तूलोट’, और ‘बॉसी’ कागज बनने लगे थे।
पट (वस्त्र) : पटिका या कार्पसिक का पट उल्लेख स्मृतियों और सातवाहन के समकालीन निआर्कस ने भी इसके प्रचलन का उल्लेख किया है। बर्नल तथा राइस ने कन्नड़-भाषा व्यापारियों द्वारा ‘पट’ के उपयोग का प्रमाण मिला है, वे ‘कडतम्’ कहते थे, इस पर प्रथम इमली के बीजों के चूर्ण का लेप किया जाता था, इसके बाद खड़िया अथवा लेखनी से लिखा करते थे, इस रीति से लिपि सफेद या काली रहा करती थी। जैन मत के अवलम्बियों में भी इसका उपयोग प्रचुर रूप से होता था। पीटरसन को विक्रम संवत् १४१८ का एक हस्तलिखित ग्रन्थ ‘पट’ पर लिखा हुआ अनहिलवाड़ पाटन में मिला था। व्यूलर को जैसलमेर में चीनांशुक पर लिखित जैन-आगमों की सूची हस्तगत हुई थी, इससे स्पष्ट है कि अच्छे रेशमी कपड़े को भी प्रयोग में लाया जाता था। पीटरसन ने लिखा है, पाटण के एक जैन-भण्डार में उन्हें एक ग्रन्थ ‘पट’ पर लिखित प्राप्त हुआ था।
चर्म-पत्र : चर्म-पत्र का विशेष प्रचार यूरोप तथा अरब देशों में ही हुआ। स्टेइन को मध्य एशिया में इस प्रकार के अनेक चर्म-पत्र मिले हैं। सुबन्धु की ‘वासवदत्ता’ में चर्म-पत्र पर अंकित अक्षरों की तुलना नभ में चमकते तारों से की गई है। व्यूलर की जैसलमेर में जैन-ग्रन्थ ‘बृहद् ज्ञान कोष’ के अनेक चर्म पृष्ठ उपलब्ध हुए हैं। कुछ विद्वान् पुस्तक शब्द को भी इससे सम्बद्ध करते हैं। ‘पोस्त’ का अर्थ ‘चमड़ा’ ‘पुश्तक’ बनेगी, फिर ‘घोड़े की दुलत्ती’ ही लगेगी। चमड़े का प्रयोग भारत में लेखन के पावन क्षेत्र में न चल पाया था।
पाषाण-फलक : पाषाण-फलकों पर राजकीय आदेश ही नहीं, साहित्यिक कृतियाँ भी लिपिबद्ध हुई हैं। धारा नगरी में एक नाट्य-गृह पर सम्पूर्ण नाटक उत्कीर्ण था, बाद में उसे एक अन्य धर्मी उपासना-गृह में परिवणत कर दिया गया। श्लोक वाले पत्थर नीचे दबा दिये गये फिर कभी पत्थर खिसके और कारीगरों ने उन्हें सीधे लगा दिया, इस प्रकार उनका पता लगा। पुरातन काल में राजा विजय-यात्रा के उपरान्त शैल-शिखरों पर अपना नामोल्लेख ‘काकिणी’ रत्न से किया करते थे। (जम्बू-द्वीप प्रशस्ति ३/५४)। शिला-लेख तो अनेक राजाओं के मिले हैं। राजस्थान के बीजोला में ‘उन्नतशिखर पुराण’ ‘हरकेलि नाटक’ तथा ‘ललितविग्रहराज’ नाटक के कुछ अंश प्रस्तरों पर अंकन प्राप्त हुए हैं। ईसा से २६८ वर्ष बिन्दुसार के पुत्र अशोक ने राज्य-भार ग्रहण किया, उसने पाषाण के स्तम्भों, फलकों पर धर्मदेश उत्कीर्ण करा कर, दूर-दूर गड़वाये, इलाहाबाद के किले में स्थित लाट उसके गौरव के प्रमाण में गर्वोन्नत है।
ईटों के फलक : पुरातन काल में ईटें भी लेखाधार रही, कच्ची ईटों पर लिख कर, उन्हें पका लिया जाता था। मोहन-जो-दड़ो, हड़प्पा, नालन्दा, पाटलिपुत्र आदि की खुदाइयों में इस प्रकार की अनेक अंकित ईटें, मिट्टी की मुद्रायें तथा पात्र मिले हैं। बेबीलोनिया में भी मिट्टी के आधार पर लिखने की प्रणाली थी। चह्वाण राजा विग्रहराज चतुर्थ के नाटकों और उसके राजकवि सोमदेव की कृतियों के अंश अजमेर में ईटों पर प्राप्त हुए हैं, अनेक बौद्ध-सूत्र भी ईटों पर उत्कीर्ण मिले हैं।
लेखनी तथा मसि : लेखनी सामान्यत: नड़ या बाँस की रहती थी। बालों की कूची का भी प्रयोग होता था। दक्षिण के ताल-पत्र गोलमुख वाली शलाका से उरेहे जाते थे। ‘योगिनी-तन्त्र’ के अनुसार, बाँस की लेखनी तथा काँसे की सलाइयाँ लेखन हेतु अच्छी नहीं होती थी। उसके मत से, नरकट की लेखनी और सोने-चाँदी की सलाइयाँ शुभ होती हैं।
भारत में अनेक रंगों की मसि या स्याही का उपयोग हुआ है। ताल-पत्रों पर लोहे की सलाई से अक्षर उरेह कर, स्याही फेर देते थे। मसि काली, लाल, पीली, हरी, सुनहरी, रूपहली, नाना प्रकार की और कच्ची तथा पक्की प्रयोग में आती थी। कच्ची स्याही का प्रयोग सामान्य कामों में तथा पक्की का उपयोग पुस्तक-लेखन में होता था। मोहन-जो-दड़ों में मसि-पात्र मिले हैं। निआर्कस और कर्टिअस ने विक्रम से ३०० साल पहले मसि प्रयोग जाने की पुष्टि की है। मध्य एशिया से प्राप्त खराष्टी लिपि के लेख स्याही से लिखे हैं। साँची में विक्रम से पूर्व तीसरी शती के लेख एक स्तूप से उपलब्ध हुए हैं। अजन्ता में विविध वर्णो के लेख तथा चित्र सुलभ हैं।
हस्तलिखित ग्रन्थोें में, वैदिक स्वरों के चिह्न, अध्याय-समाप्ति की पुष्पिका, भगवानुवाच, ऋषिरुवाच से वाक्य एवं विरामादि चिह्न प्राय: रंगीन स्याहियों से अंकित होते हैं। पत्रों की दायें-बायें की लकीरें हिंगलू से लगाई जाती थी, जिन्हें काट देने की आवश्यकता पड़ती, उन पर हरिताल पेâर देते थे। जैन धर्म से सम्बद्ध पुस्तकों में सोने-चाँदी से निर्मित स्याहियों का प्रयोग भी होता था। (राजतरंगिणी, द्वितीय आख्यान)। उनमें रंगीन स्याही का प्रयोग भी प्रचुरता से होने से वे सुन्दर तथा पठनीय हो जाती थीं। कालिदास लिखित ‘कुमारसम्भव’ और ‘मेघदूत’ में ‘धातुराग’ का उल्लेख है। (कुमार सम्भव, १-७, एव् मेघदूत, उत्तर मेघ, ४७)। हिंगलू को गोंद के पानी में घोल कर बनाते थे, सुनहली, रूपहली स्याहियाँ स्वर्ण अथवा रजत पत्रों को गोंद के पानी में घोट कर तैयार करते थे, इनका प्रयोग प्राय: काले या लाल लेखनाधार पर किया जाता था। ‘मत्स्य पुराण’ में लेखक को सभी लिपियों का ज्ञाता कहा गया है
सर्व देशाक्षराभिज्ञ: सर्वशास्त्रविशारद्:।
लेखक: कथितो राज्ञ: सर्वाधिकरणेषु वै।।
अन्य तरु पत्रों को लेखनाधार के रूप में उपयोग करने की चर्चा ‘योगिनीतन्त्र’ में है, किन्तु उनके उपयोग में असुविधा की अपेक्षा अन्ध-विश्वास अधिक बाधक है। ‘योगिनी तन्त्र’ में उनका प्रयोग करने पर हानि तथा दुर्गति तथा धन-हानि का भय दिखाया गया है-
अन्य वसुदले लिखित्वा य:समम्यसेत्।
स:दुर्गतिमवाप्नोति धनहानिर्भवेद्ध्रुवम्।।
लिपि का अविष्कार देश में बहुत पूर्व हो चुका था। वीर बाणों पर अपना नाम अंकित कराते थे। सीता ने रावण से कहा था ‘शीघ्र ही नाम अंकित राम और लक्ष्मण के बाण लंका को आच्छादित कर लेंगे (वाल्मीकि रामायण),५/२१/२५)। उसके युद्ध काण्ड में रामायण लिखने या लिप्यन्तर करने वालों को स्वर्ग-प्राप्ति की चर्चा है (६/२८/१२०)। राम ने पवन-पुत्र को अभिज्ञान के लिये अपने नाम वाली अंगूठी दी थी। पहचान के लिये गायों के कानों पर पाँच या आङ्ग की संख्या या अन्य चिह्न अंकित कराते थे।
पाणिनि की अष्टध्यायी में ‘लिपिकर’ शब्द प्रयुक्त हैं (३/२/२१)। कौटिल्य ने ‘अर्थशास्त्र’ में सांकेतिक शब्दोें के लिये ‘संज्ञा लिपि’ का संकेत दिया है (अर्थशास्त्र १/१२)।
– डॉ. शिवनन्दन कपूर
खण्डवा, मध्य प्रदेश