दीपावली अथवा लक्ष्मीपूजन व्रत

दीपावली

अथवा लक्ष्मीपूजन का व्रत और महोत्सव आज लोकमानस में इस प्रकार रम गया है कि उसे उससे पृथक् करने की कल्पना नहीं की जा सकती, इस महोत्सव पर यदि कार्तिक कृष्ण अमावस चित्रा और स्वातियोग में हो तो उसे उत्तम माना गया है, इसके पूजन और अनुष्ठान के सभी कार्य यदि उस योग में किया जाये तो वे अत्यन्त सुखदायी फल देने वाले समझे जाते हैं, यह एक प्रकार का लक्ष्मी-व्रत ही है क्योंकि महालक्ष्मी को केन्द्रवर्ती बनाकर ही इसके सभी आयोजन क्रियान्वित होते हैंं।

विधि-विधान

प्रात:काल जल्दी उठकर तेल मालिश अथवा उबटन कर स्नानादि से निवृत्त होकर देवताओं और पितरों को प्रणाम करें और उनकी पूजा करें, इस दिन तीसरे प्रहर में पितरों के लिए ‘श्राद्ध’ करें और तरह-तरह के पकवान बनावें तथा उनका भोग लगावें। श्राद्ध कराने वाले ब्राह्मणों को भी भोजन करावें। परिवार के सभी वृद्धजनों और बच्चों को भी भोजन करावें किन्तु स्वयं भोजन न करें। शास्त्रों में लिखा गया है कि लक्ष्मी-पूजन करने के पश्चात् ही हमें भोजन करना चाहिए। प्रदोष के समय (तीन घड़ी दिन और तीन घड़ी रात) लक्ष्मी-पूजन करना शुभ माना जाता है। पूजन करने के पूर्व सुन्दर मण्डप बनावें और तरह-तरह के वस्त्रों, पुष्पों-पल्लवों और रंग-बिरंगे चित्रों से उसे सुशोभित करें, तत्पश्चात महालक्ष्मी-पूजन के साथ देवी-देवताओं का भी पूजन करें और उनके चरणों में अपने श्रद्धासुमन चढ़ावें, इसी दिन बलि राजा के कैदखाना से देवों को छुटकारा मिला था और लक्ष्मी जी भी कैदमुक्त हुई थी। तदुपरांत सारे देवीदेवताओं ने क्षीरसागर में जाकर विश्रामपूर्वक शयन किया था, लक्ष्मी जी ने भी कमल में शयन कर शांति प्राप्त की थी, उस स्थिति का स्मरण करने के लिए ही मण्डप में छोटे-छोटे गद्दे और तकिये रखने चाहिए और देवीदेवताओं और लक्ष्मी का फूल रखकर जो उन्हें सुलाता है, उसके घर में लक्ष्मी सदैव स्थिर रहती है, जो लोग ऐसा नहीं करते, उन्हें दरिद्रता भोगनी पड़ती है, 

सोते वक्त लक्ष्मीजी की मूर्ति को गाय का दूध पिलावें और उसमें जायफल, लूंग, इलायची, कपूर और केसर डालकर तथा लड्डू बनाकर लक्ष्मीजी को अर्पण करें, उस दिन चार प्रकार के भोज्य पदार्थ तैयार करें जो खाने, चाटने और पीने योग्य हों फिर लक्ष्मी जी की प्रार्थना करें। लक्ष्मीजी को प्रसन्न करने के लिए प्रदोष में दीप जलाकर और उसे सिर पर घुमाकर ऐसे सभी उपाय करें जिनसे सभी प्रकार की अनिष्टकारी विघ्न बाधाओं का निवारण हो सके। मंदिरों में दीपवृक्ष जलावें तथा चौराहा, श्मशान, नदी, पर्वत, गृह एवं वृक्षों की जड़ों के पास स्थित गोशाला, चबूतरा और निर्जन स्थानों में भी दीपावली की दिये जलायें, राजमार्ग पर भी दीपक रखें, घर में तरह-तरह के पकवान बनावें और फल-फूल लावें, यहाँ तक कि सारे गाँव और नगर को सुशोभित और प्रकाशित करने में भी कोई कसर न रखें, स्वयं नये वस्त्र पहनें और दीन-हीनों को भोजन करावें। तीसरे प्रहर यह सोचकर मानें कि महाराज बलि का राज्य है अत: मनोरंजन और खेलकूद की राजकीय घोषणा की जानी चाहिए, बच्चों को खेलकूद का सामान देकर उन्हें मौजमस्ती मनाने के भी अवसर अवश्य देने चाहिए

उनकी मानसिक प्रवृत्तियों और क्रिया-कलापों को देखकर इस बात का अनुमान लग सके कि उनका भविष्य किस दिशा की ओर उन्मुख होने वाला है शकुनशास्त्रियों को कहना है कि बच्चे जब पटाखें छोड़ें और वे न सुलग सकें तो तो यह समझ लेना चाहिये कि या तो महामारी फैलेगी अथवा अकाल पड़ेगा, अगर बालक खेलते-खेलते दु:खी हो जाये तो इस बात की चिन्ता करनी चाहिए कि उसके राज्य पर कोई विपत्ति आने वाली है, यदि खेलते-खेलते बालक आपस में लड़ने लगे तो यह इस बात का संकेत है कि कोई राजयुद्ध होगा, बच्चे रोने लगे तो समझ लीजिए कि राज्य का नाश होगा, यदि बालक नूनियों (मुत्रेन्दियों) को हाथ में पकड़े तो यह व्यभिचार की वृद्धि का संकेत माना जाता है, यदि बालक अन्न को इधर-उधर छिपाने लगे तो वह अकाल पड़ने की ओर इशारा करता है, इसी प्रकार शकुनियों और अनुभवी रुढ़िवादी बुजुर्गों ने बालकों की गतिविधियों को देखकर ऐसे अनेक निष्कर्ष निकाले हैं जिन्हें आधुनिक युग की वैज्ञानिक दृष्टि स्वीकार नहीं करती, संभव है कि किसी समय इन मान्यताओं का महत्व रहा हो किन्तु अब तो वे लुप्तप्राय: हो चुकी हैं।

दीपावली सार्वजनिक समारोह की सुखसमृद्धि और खुशहाली बढ़ाने का त्यौहार है, अत: उस दिन प्राय: सभी लोग गाँवों और नगरों में सुन्दर वस्त्र पहन कर गाते-बजाते घूूम-घूम कर बड़े-बूढ़ों की पूजा और उन्हें प्रणाम कर उनसे आशीर्वाद लेते हैं, इस दिन वीरांगनाओं के नृत्य-गीत भी बड़े चाव से देखे और सुने जाते हैं कुछ लोग इस दिन जुआ खेलना भी शुभ मानते हैं उनका कहना है कि बलि के राज्य में इन सब क्रिया-कलापों को मान्यता प्राप्त थी अत: उनका आज भी अनुसरण करना बुरा नहीं है। आज की युगधर्मिता और जीवनशैली में इतने अधिक परिवर्तन आ गये हैं कि यदि पुरानी रुढ़ियों को ही पकड़कर बैठ जायें तो उनसे हमारा कल्याण नहीं हो सकता, अत: हमें चाहिए कि हम केवल बलिराजा के राज्य को ही आदर्श मानकर न चलें अपितु विश्व की गतिविधियों के साथ भी अपने कदम जोड़कर आगे बढ़ें।

बलि के राज्य में निम्न पाँच कार्य वर्जित थे:
(१) जीवहिंसा (२) मदिरापान (३) परस्त्रीगमन (४) चोरी (५) विश्वासघात एक समय इन आचरणों को ‘नरक का द्वार’ माना जाता था, उस समय राजधर्म के कुछ ऐसे नियम भी बने हुए थे जिनका परिपालन करना राजा का कर्तव्य माना जाता था, वे नियम इस प्रकार थे- आधीरात में राजा (आज मंत्री) को नगर में भ्रमण करना चाहिये, लक्ष्मीपूजन के लिए किस प्रकार नगर में सजावट हुई है, इसकी भी उसे जाँच करनी चाहिए, राजा के साथ उसके अधिकारी भी होने चाहिए, गाजे-बाजे के साथ सवारी निकलनी चाहिये, लोगों के घरों में जलती मशालें होनी चाहिये, इस तरह करने से राज्य में लक्ष्मी की वृद्धि होती है। आधीरात को नगर की स्त्रियों को चाहिए कि वे अपने-अपने घरों से प्रसन्न होकर डिण्डिम आदि बजाती हुई निकलें और घर के आँगन में लक्ष्मी का सम्मान करें। बालखिल्य ऋषि कहते हैं कि जो व्यक्ति वैष्णव हो या न हो, यदि वह बलिराजा के उत्सव में भाग नहीं लेता तो वह दरिद्री रहता है अगर दूसरे दिन एक घड़ी भी अमावस की रात हो तो भी यह उत्सव मनाना चाहिये, इस दिन भी उल्कादर्शन (हींडसिंचन) करना चाहिए और पितरों को मार्गदर्शन कराना चाहिये, चूंकि यह पितरों की प्रसादी मानी जाती है इसलिए छोटे बालकों को उसके नीचे से निकालना चाहिए जबकि बड़े लोगों के सामने उल्का लेकर जावें, उन्हें तेलदान करने को कहें और उनके हाथ में उल्का देकर उनका चरणस्पर्श करें तथा उनका आशीर्वाद प्राप्त करें।

लक्ष्मीपूजन

कार्तिक वद अमावस के दिन प्रदोश पूजा करें, यदि कोई बाधा हो तो स्थिर लग्न में पूजा करें, उस दिन चित्रा-स्वाति योग अच्छा माना गया है। लक्ष्मीपूजन करने से पहले मंडप बनावें और उसमें गणेश, लक्ष्मी और कुबेर की स्थापना कर उनकी पूजा करें, प्रात:काल उबटन अथवा तेल लगाकर मालिश करने के पश्चात् स्नान कर तर्पण, श्राद्ध, ब्राह्मण भोजन, सुवासिनी-भोजन तथा दीनहीन लोगों को भोजन कराने के बाद लक्ष्मी जी की पूजा करें। सर्वप्रथम मंडप के सामने आसन पर बैठकर आचमन, प्राणायाम करें और यह संकल्प लें ‘‘अद्य दीपोत्सवंगणपतिपूजनं, लक्ष्मीपूजनं, उल्कादर्शनं च करिष्ये’’ तत्पश्चात् मंडप से गणपति की मूर्ति निकालकर और उसे ताम्रपात्र में रखकर उसकी पूजा करनी चाहिए, पूजा करते समय निम्नलिखित मंत्रों का उच्चारण करें-
गं गणपतये नम:, आवाहनं समर्पयामि
गं गणपतये नम: (ध्यानं)
गं गणपतये नम: (आसनं) समर्पयामि

इसी मंत्र से पाद्य, अध्र्य, आचमन, स्नान, वस्त्र, कुंकुम, चन्दन, अक्षत, पुष्प, अबीर, गुलाल, धूप, दीप, नैवेद्य (मिठाई) चने की फलिया, चपड़ा, खांड की कतली, फल (सीताफल) बेर, काचरा, शकरकन्द, सेव, ताम्बूल आदि को भेंट चढ़ाकर प्रार्थना करनी चाहिए, इसके बाद लक्ष्मी-पूजन करें और उसके पहले लक्ष्मीजी का आवाहन। ‘हिरण्यवर्णा, लक्ष्मीं आवाहमामि, तां आवहे’ मंत्र पढ़कर उन्हें आसन समर्पित करें।
क्रम से ये मंत्र भी बोले जाने चाहिए ‘अश्वपूर्वा (पाद्यं समर्पयामिं) भकांसो स्मितां’ मंत्र से (अघ्र्यम्) ‘चन्द्राप्रभासां’ मंत्र से आचमीनयं ‘आदित्यवर्णे’ मंत्र से स्नान क्षुत्पिपासा अथवा ‘गन्धता द्वारा’ (गन्ध) ‘अक्षताश्च से अक्षत, ‘मनस:काम’ से पुष्प, कर्दमेन से (धूपं) ‘आपस्त्र जन्तु’ से (दीपं), ‘आद्र्रापुष्करिणी‘ से नैवेद्यम, ‘आद्र्राय:करिणी से (फलम् ताम्बूलं) ‘हिरण्यगर्भ:’ (दक्षिणां) तथा ‘‘य: शुचि: प्रयतो’’ से पुष्पाजंलि देकर ‘श्रिये जात: श्रियमंत्र’ से आरती उतारें। फिर पुरुषसूक्त के १५ मंत्र पढ़कर पुष्पांजलि देवें, स्वर्ण या चांदी के सिक्कों से पंचामृत का स्नान कराकर उनकी भी पूजा करें, फिर दीपावली का पूजन कर उल्कादर्शन करें।

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