बालकवि बैरागी

बालकवि बैरागी

हम स्वयं कहाँ हैं- हिन्द के हिन्दी-महासागर में -बालकवि बैरागी

हम भारतवासी भाग्यशाली हैं कि हमारे पास अरब सागर, बंगाल सागर और हिन्द महासागर जैसे रत्नों से भरपूर लहराते हुए सागर और महासागर हैं, हमारा विशेष सौभाग्य यह भी है कि हमारे पास अपने हिन्द में ‘हिन्दी’ का महासागर भी है, फ़र्क यह है कि प्रकृति और भूगोल के दिए सागर-महासागर खारे हैं पर हमारी राष्ट्रभाषा-राजभाषा और मातृभाषा हिन्दी का महासागर मीठा ही नहीं, सारे विश्व को मिठास देने वाला एक अगाध, अगम और अछोर महासागर है, यह हमारी रक्तभाषा, देशभाषा, मातृभाषा, राष्ट्रभाषा और राजभाषा की उत्ताल उठती लहरों से लहराता महासागर है, जो भी जल सम्पदा अन्य सागरों में छिपी रहती है वह सारी सम्पदा हमारे ‘हिन्दी’ महासागर के पास है, विशेषता यह है कि इस महासागर की सारी सम्पदा प्रकट और विश्वव्यापी है, वह समय गया जब हम अपनी भाषा सम्पदा के अतीत पर बात करते हुए वर्तमान पर विचार को टाल देते थे और भविष्य पर आकाश देख कर लम्बी साँसें छोड़ देते थे, पहले यह सब प्रतिवर्ष या यदाकदा ही होता था किन्तु आज ऐसा नहीं है, आज हम अपनी भाषा के अतीत को खँगालते हैं, वर्तमान को सजाते हैं और भविष्य के प्रति चेतना से परिपूर्ण जागृति की बात करते हैं, आज ‘हिन्दी’ पर विचार-विमर्श, बात-चीत, गोष्ठी-संगोष्ठी, बहस-मुबाहिसा रोज की बात हो गई है। पूरे भारत में और विश्व में कई देशों में प्रतिदिन हिन्दी पर कुछ-न-कुछ बातचीत या वाद-विवाद होने के समाचार हमें रोज-ब-रोज यहाँ-वहाँ से मिल जाते हैं, इसके मान-सम्मान, अपमान-व्यवधान, सुविचारित अभियान पर हर रोज कहीं न कहीं बात होती ही रहती है, इस सारी चहल-पहल और बात-विचार में विचारणीय यह बिन्दु हर जगह उभरता है कि स्वयं हम हिन्दी भाषी और हिन्दी वाले हिन्दी के लिए क्या कर रहे हैं? अपनी भाषा और इसकी शब्द-सम्पदा के लिए हमारी अपनी व्यावाहारिक भूमिका क्या है, क्या हम खुद भी हिन्दी में हैं, क्या हमारी अपनी हिन्दी हमारे अपने विचार और व्यवहार में है, हमारी दैनंदिन दिनचर्या में हमारी राष्ट्रभाषा, हमारी ‘हिन्दी’ का कितना और कैसा स्थान है? ये प्रश्न, ये बिन्दु कई लोगों को कड़वे, कसैले, कठोर और कुठार लगते हैं, जहाँ ‘हिन्दी’ को लेकर हमारी अपनी भूमिका का सवाल उठता है, कई लोग चुप लगा जाते हैं या फिर बात को इस सरकार और उस सरकार पर मोड़ देते हैं।

‘हिन्दी’ के एक अत्यन्त विनम्र कलमकार के रूप में मुझे कुछ महत्त्वपूर्ण कारणों से सारे भारत की वसुन्धरा को देखने का अवसर मिला है, मेरे भारत-भ्रमण के महत्त्वपूर्ण निमित्तों में दो निमित्त बहुत प्रमुख हैं, एक निमित्त है देश-विदेश में होने वाले हिन्दी के कवि सम्मेलन और दूसरा निमित्त है भारत की संसद की संसदीय राजभाषा समिति की शालीन सदस्यता। मुझे ईश्वर ने मध्यप्रदेश की विधान सभा (दो बार), संसद की लोकसभा और राज्यसभा, इस तरह तीनों सदनों में जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधि के तौर पर बैठकर काम करने कर अवसर दिया और मैं संसदीय राजभाषा समिति की दो उप समितियों में सदस्य की भूमिका का निर्वाह करते हुए पूरा देश घूमा। केन्द्र की सरकार के करीब-करीब तीस-पैंतिस विभागों के कार्यालयों में हिन्दी (राजभाषा) के उपयोग का निरीक्षण करने का अवसर मिला और मैंने अपनी पूरी निष्ठा के साथ इस भूमिका का निर्वाह किया। संसद में संदर्भ ग्रन्थों और प्रतिवेदनों में वे दस्तावेज आज भी सुरक्षित और उपलब्ध हैं, यह दिन और यह समय तथा स्थान वह नहीं है कि मैं अपने संस्मरणों पर जाऊँ, आज बिन्दु दूसरा है। मुद्दा यह है कि पूरे भारत में ग्राम पंचायत से लेकर प्रत्येक सरकार में चाहे वह ग्राम की हो, नगर पंचायत हो, नगर परिषद हो, नगर पालिका हो, नगर निगम हो, प्रदेश की हो या देश की हो, प्रत्येक कुर्सी पर हमारा अपना ही भाई, बेटा, बेटी या बहू बैठे हुए हैं, किसी कुर्सी पर कहीं कोई विदेशी नहीं बैठा हुआ है तब फिर ‘हिन्दी’ को लेकर राजभाषा और राष्ट्रभाषा तथा देशभाषा के मामले पर हम इतना खीजते क्यों हैं, इतना झल्लाते क्यों हैं? बुनियादी तौर पर हमें इन कुछ बातों पर बहुत मजबूती से सिर ऊँचा करके बोलना चाहिए कि-

१. जहाँ तक राष्ट्रभाषा का प्रश्न है, भारत की राष्ट्रभाषा कल भी ‘हिन्दी’ थी, आज भी ‘हिन्दी’ है और आने वाले कल भी ‘हिन्दी’ ही रहेगी।
२. ‘हिन्दी’ के मामले में मैं निस्संकोच, पूरी गरिमा, संस्कार-शीलता और विनम्रता के साथ कहता हूँ और आज फिर कह रहा हूँ कि ‘‘हिन्दी किसी संसद, किसी संविधान और किसी सरकार की मोहताज नहीं है, उसके पास अपनी प्राणवायु और प्राणशक्ति है।’’
३. जो भाषा बाहर से आई है वही बाहर जाएगी, ‘हिन्दी’ भारत की मिट्टी से उपजी भाषा है, वह यहीं थी और यहीं रहेगी, उसे कहीं नहीं जाना है।
४. ‘हिन्दी’ धैर्य की भाषा है, उत्तेजना और हिंसा की नहीं, उसकी प्रतीक्षाशक्ति अद्भुत और अनुपम है, उसका संघर्ष भी सस्मित है।
५. भारत की किसी भी प्रादेशिक भाषा से ‘हिन्दी’ का कोई विरोध या अलगाव नहीं है।
६. संसार की किसी भाषा के साहित्य और संस्कृति से ‘हिन्दी’ का टकराव या वैराग्य नहीं है, बशर्ते कि वह वहाँ की संस्कृति और साहित्य की भाषा हो।
७. ‘हिन्दी’ का सारा संघर्ष विदेशी भाषा की ‘प्रभुता’ के खिलाफ है, फिर वह भाषा कहीं की भी हो, ‘हिन्दी’ स्वमेव हमारी संप्रभु भाषा है, हमारी सभी प्रादेशिक भाषाओं की समृद्धि और विकास तथा व्यवहार के प्रति ‘हिन्दी’ की साँस-साँस सक्रिय है।
८. देश के भीतर ‘हिन्दी’ का संघर्ष राष्ट्रभाषा का नहीं ‘राजभाषा’ का है।
९. आज यदि केन्द्र और प्रादेशिक सरकारों में बैठे मात्र जन्मना हिन्दी-भाषी कर्मचारी और अधिकार ही अपनी सेवा के समय ‘हिन्दी’ में ही काम करें, तो ‘राजभाषा’ का संघर्ष अस्सी फीसदी समाप्त हो जाएगा।
१०. ‘हिन्दी’ की पाचन शक्ति गजब की है, इस या उस भाषा के शब्दों को पचाना वह खूब जानती है, शब्द सम्पदा के आदान-प्रदान में वह बहुत उदार और अनन्य है।
११. ‘हिन्दी’ को सत्ता की न कोई भूख है न प्यास, उसका संघर्ष प्रतिष्ठा और सम्मान का है, वह एक ह्य्दयग्राही भाषा है, ‘हिन्दी’ दासी भाषा तो है ही नहीं।
१२. भारत में वही ‘हिन्दी’ टिकेगी और चलेगी जिसे गैर हिन्दी भाषी लोग व्यवहार में बोल कर या लिखकर प्रारूपित करेंगे, यह हिन्दी की शास्रीयता और शुद्धता का समय नहीं है, वह जैसा रूपाकार ले रही है उसे लेने दो।
१३. गैर हिन्दी-भाषी लोग जैसी ‘हिन्दी’ लिख या बोल रहे हैं उन्हें वैसा करने दो, उनका उपहास मत करो, उन्हें प्रोत्साहित करो, अपने हकलाते-तुतलाते बच्चों के प्रति जो ममत्व और वात्सल्य आपमें उमड़ता है उस भाव से उनकी बलायीयाँ लो, यह भाव हमारे अभियान के आधार में रहे।
१४. ‘हिन्दी’ की सरलता ही उसकी अनुकूलता है, इसका सारल्य इसका शील है, इसका शीलभंग मत करो।
१५. इन पर, उन पर या दूसरों पर ऊँगली उठाने से पहले आप स्वयं से आत्मावलोकन करते हुए एक बहुत ही छोटा सा सवाल पूछें कि ‘‘क्या आप स्वयं, आपके परिजन और आपके बाल बच्चे अपना हस्ताक्षर ‘हिन्दी’ में करते हैं? यदि इस प्रश्न का उत्तर हाँ में है तो आपको बधाई और यदि उत्तर ना में है तो आप भारतमाता और हिन्दी माता पर कृपा करना कब शुरू करेंगे, माँ के दूध का ऋण अदा करना यहीं से शुरू होता है, इस प्रश्न पर मैं क्षमाप्रार्थी नहीं हूँ।
१६. क्या ‘हिन्दी’ की प्रतिष्ठा के अनुकूल आपके पास कोई व्रत, संकल्प या अनुष्ठान है?
१७. सरकारों में बैठे आपके भाई, बेटे, बेटियाँ और बहुएँ अपना काम विदेशी भाषा में क्यों करते हैं, क्या आपने कभी उनसे पूछा?
१८. विदेशी भाषाओं के द्वारा आप पर रौब या रूतबा गालिब कर रहे हैं, क्या आपने कभी सोचा, प्रश्न सरकारी और सामाजिक कार्यों का है।
१९. जो हाथ ‘हिन्दी’ में हस्ताक्षर करने तक में काँपते हैं वे हाथ हिन्दी के विकास और ‘हिन्दी’ की समृद्धि का झण्डा कैसे थामेंगे?
२०. वो युग बीत गया जब किसी विदेशी भाषा का सूर्यास्त नहीं होता था, आज सारे संसार के नक्शे को इधर से देखो या उधर से, ‘हिन्दी’ का सूरज पूरे आकाश को रोशनी दे रहा है, विश्व के १५० से १९० देशों के विश्व विद्यालयों में ‘हिन्दी’ की उपस्थिति इसका प्रमाण है।
२१. ‘हिन्दी’ किसी भी विदेशी भाषा की ‘प्रभुता’ का स्वीकार कदापि नहीं करेगी और न अपनी प्रभुता किसी दूसरी भाषा पर थोपेगी।
२२. आप आधुनिकता और विकसित विज्ञान को बहाना बनाकर ‘हिन्दी’ को अपमानित नहीं करें, बड़ी कृपा होगी।
लहर पर लहर ‘हिन्दी’ के महासागर में उठती है, ज्ञात-अज्ञात चट्टानों से टकराती है और अपनी मिठास से हर तट और तटीय भूगोल को तर रख रही हैं, आप यदि ‘हिन्दी’ भाषी हैं या फिर राष्ट्रभाषा और राजभाषा के हिमायती हैं तो क्या आप इस महासागर के किनारे एक पर्यटक के रूप में बैठे हैं या और कोई दूसरा निमित्त भी आपके पास है? आत्मावलोकन के लिए आपके जीवन का प्रत्येक क्षण एकदम खुला और बिल्कुल वैयक्तिक है, न उसमें कोई भूगोल बाधा है न कोई इतिहास ही उसे रोकता है।
खीजने, झल्लाने या किसी को कोसने से हम ‘हिन्दी’ के निश्छल चरित्र को कोई नया आयाम नहीं दे पाएंगे, हम खुद पहले ‘हिन्दी’ के हो जाएँ और ‘हिन्दी’ में हो जाएं, ‘हिन्दी’ में सोचें, हिन्दी के सन्दर्भ में यह युग और यह शताब्दी चिंता की नहीं है, यह हमारी चेतना का युग है, आत्म-मंथन और पूर्ण समर्पण का युग है, आपके बच्चे आज जिन खिलौनों से खेल रहे हैं उनमें ‘हिन्दी’ है या नहीं इस पर नजर रखिए, जिस भ्रम को आप पाल रहे हैं उसमें कहीं ऐसा तो नहीं है कि आप और हम अन्तरराष्ट्रीय बच्चे की जुगाड़ में राष्ट्रीय भी नहीं रहें, राष्ट्रीयता हमारी भाषा है और यही हमारा भारत है, हिन्दी के बिना भारत और कुछ हो जाएगा, बस, हम भारत को भारत ही रखें और रहने दें।

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