मोदी के नेतृत्व में नई ऊँचाइयों पर पहुॅचा भारत

कुछ विपक्षी दलों ने बिना जाने-समझे भारत-अमेरिका संबंधों को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का मजाक उड़ाना शुरू कर दिया था, मोदी ने अपनी अमेरिका नीति में बिना किसी दुराग्रह के सिर्फ एक बात का ध्यान रखा और वो है – भारतीय हित।

पिछले कुछ दिनों में भारत-अमेरिका संबंधों में आए उल्लेखनीय सुधार की अगर हम गहराई से समीक्षा करें तो पता चलेगा कि ये उपलब्धियां एक दिन में हासिल नहीं हुर्इं, इनके पीछे दोनों देशों में विकसित हुई गहरी समझ है जिसे पहले मनमोहन सिंह और फिर मोदी ने आगे बढ़ाया। दीगर बात यह है कि दोनों देशों में सरकारें बदलीं, लेकिन परस्पर हितों में सहयोग और सामंजस्य की जो समझ विकसित हुई वो अक्षुण्ण रही, बहुमत के साथ सरकार में आए मोदी ने तो इसे नई ऊर्जा और दूरदर्शिता के साथ आगे बढ़ाया, आज हम निसंदेह ये कह सकते हैं कि भारत-अमेरिका संबंध आज जिस उंचाई पर हैं और जितने मजबूत हैं, वैसे पहले कभी नहीं थे।

जून ७, २०१६ को अमेरिका ने भारत के साथ संयुक्त वक्तव्य में भारत को अपना ‘मेजर डिफेंस पार्टनर’ (महत्वपूर्ण सुरक्षा सहयोगी) घोषित किया, इस वक्तव्य का शीर्षक था – द यूनाइटेड स्टेट्स एंड इंडियाः एनड्योरिंग ग्लोबल पार्टनर्स इन द ट्वंटी फस्र्ट सेंचुरी (संयुक्त राष्ट्र अमेरिका और भारतः २१वीं सदी में स्थायी वैश्विक सहयोगी)। पिछले साल २२ अगस्त को ट्रंप द्वारा घोषित की गई नई दक्षिण एशिया नीति में इसकी प्रतिध्वनि साफ सुनाई दे रही थी। ट्रंप ने इसमें न केवल भारतीय-प्रशांत क्षेत्र में भारत की महत्वपूर्ण भूमिका को रेखांकित किया बल्कि पाकिस्तान की इच्छा के विरूद्ध अफगानिस्तान ने भी उसे अपना सहयोगी घोषित कर दिया। अमेरिका ने मोदी के कार्यकाल में भारत को दुनिया के चार बड़े मल्टीलेट्रल एक्सपोर्ट कंट्रोल रिजीम (बहुपक्षीय निर्यात नियंत्रण व्यवस्थाएं) में से तीन में प्रवेश करने की मदद की, ये हैं – मिसाइल टेक्नोलॉजी कंट्रोल रिजीम (प्रवेश तिथि – जून २७, २०२६), वासनर अरेंजमेंट (प्रवेश तिथि – दिसंबर ७, २०१७) और ऑस्ट्रेलिया ग्रुप (प्रवेश तिथि – जनवरी १९, २०१८)।

चौथा महत्वपूर्ण मल्टीलेट्रल एक्सपोर्ट कंट्रोल रिजीम है – न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप, अमेरिका ने इसमें प्रवेश के लिए भी पूरी मदद की लेकिन चीन के अड़ियल रवैये के कारण भारत इसमें शामिल नहीं हो सका, हालांकि इसके लिए भी प्रयास जारी है।

भारत को विश्वस्त सहयोगी मानते हुए अमेरिका ने इसी वर्ष ३१ जुलाई को भारत को स्ट्रैटेजिक ट्रेड ऑथोराइजशन -१ (एसटीए –१) देश का दर्जा दिया, चार अगस्त को इस संबंध में अधिसूचना भी जारी कर दी गई, इसके पश्चात भारत का दर्जा अमेरिका के नैटो (नॉर्थ एटलांटिक ट्रीटी ऑर्गनाजेशन) सहयोगियों के समकक्ष हो गया, इसके परिणामस्वरूप अमेरिका भारत को उच्च तकनीक वाले उत्पाद और रक्षा उपकरण बिना कानूनी अड़चनों और भारी-भरकम कागजी कार्यवाही को बेच सकेगा, अमेरिका के वाणिज्य मंत्री विलबर रॉस के अनुसार एसटीए – १ का दर्जा भारत को रक्षा क्षेत्र में ही नहीं अन्य क्षेत्रों में भी उच्च तकनीक वाले उत्पादों के आयात के लिए बेहतर अवसर प्रदान करेगा। अमेरिका की निर्यात नियंत्रण व्यवस्था में भारत के दर्जे में यह महत्वपूर्ण बदलाव है, पिछले सात वर्षों में भारत अमेरिका से ९.७ अरब डॉलर का उच्च तकनीक का सामान खरीद सकता था, लेकिन विभिन्न प्रतिबंधों के कारण यह संभव नहीं हो सका, परंतु अब ये संभव हो सकेगा।

अमेरिका ने जिन ३६ देशों को ये दर्जा दिया है उनमें से अधिकतर नैटो सहयोगी हैं, अब तक एशिया में ये दर्जा सिर्फ दक्षिण कोरिया और जापान को ही दिया गया था। जाहिर है भारतीय विदेश मंत्रालय ने इस कदम को स्वागत किया। मंत्रालय ने कहा – ‘भारत को ‘मेजर डिफेंस पार्टनर’ घोषित किए जाने का तार्किक उत्कर्ष है, ये इस बात को एक बार फिर स्थापित करता है कि संबंधित बहुपक्षीय निर्यात नियंत्रण व्यवस्थाओं के जिम्मेदार सदस्य के रूप में भारत का रिकॉर्ड बेदाग है, इससे भारत और अमेरिका के बीच रक्षा और उच्च तकनीक के क्षेत्र में सहयोग को बढ़ावा मिलेगा।

दो अगस्त को अमेरिकी संसद ने नेशनल डिफेंस ऑथोराइजेशन एक्ट – २०१९ के तहत भारत को ‘काउंटरिंग अमेरिकास एडवरसरीज थ्रू सैंक्शंस एक्ट’ (काटसा) से छूट देने का विधेयक भी पारित कर दिया। भारत रूस से लगभग ४.५ अरब डॉलर की लागत से एस-४०० ट्राइंफ एयर डिफेंस सिस्टम खरीदना चाहता है जिसमें रूस के खिलाफ अमेरिकी प्रतिबंधों से बाधा आ रही थी। बराक ओबामा के कार्यकाल में वाइट हाउस में वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी और सेनेट आम्र्ड सर्विसेस कमेटी के वरिष्ठ सदस्य रहे अनीश गोयल कहते हैं कि काटसा छूट के लिए अमेरिकी संसद की प्रशंसा की जानी चाहिए, ऐसा करके संसद ने दोनों देशों के संबंधों में आने वाले तनाव को दूर कर दिया है, ये इस बात का मजबूत संकेत है कि अमेरिका, भारत से अपने संबंधों को कितना महत्व देता है।

पिछले कुछ ही दिनों में अमेरिका ने जिस सक्रियता से भारत के साथ उच्च तकनीक और रक्षा क्षेत्र में सहयोग के क्षेत्र में पेश आ रही बाधाओं को दूर करने का प्रयास किया है और जैसे भारत की रक्षा जरूरतों को समझते हुए रूस से उच्च तकनीक वाली रक्षा सामग्री खरीदने के लिए छूट दी है, उससे भारत के प्रति अमेरिका की संवेदनशीलता तो प्रकट होती ही है, साथ में यह भी स्पष्ट होता है कि वो भारतीय-प्रशांत क्षेत्र (इंडो-पैसेफिक रीजन) में अपनी रणनीति को लागू करने के विषय में कितना गंभीर है जहां चीन का व्यावसायिक और रणनीतिक दखल लगातार बढ़ता जा रहा है।

चीन अगले ५० वर्षों के दौरान अपने रणनीतिक और व्यापारिक हितों को देखते हुए इस क्षेत्र में महत्वाकांक्षी योजनाएं बना रहा है। म्यांमार, श्रीलंका, बांग्लादेश, पाकिस्तान, मालदीव जैसे भारत के पड़ोसी देशों तक ही नहीं चीन ने मध्य एशिया, यूरोप, अफ्रीका, दक्षिण अमेरिका तक में अपने पैर पसारे हैं, वो दुनिया के ७६ देशों में परियोजनाएं विकसित कर रहा है और रेल, सड़क, समुद्री मार्गों से ही नहीं दुनिया भर से वायु मार्गों से जुड़ने की योजना भी बना चुका है।

चीन को लगता है कि जैसे १९वीं सदी में ब्रिटेन और २०वीं सदी में अमेरिका की शक्तिशाली नौसेनाओं ने नौसैनिक अड्डों के विश्वव्यापी नेटवर्क के माध्यम से अपने व्यापारिक आधिपत्य को बढ़ाने का काम किया, वैसे ही अगर उसे भी अगली सदी में आगे बढ़ना है तो उसे भी दुनिया भर में, और खासतौर से भारतीय-प्रशांत क्षेत्र में अपने अड्डे बनाने होंगे, जहां विश्व के व्यस्ततम जलमार्ग मौजूद हैं, अपना लक्ष्य हासिल करने के लिए वो सिर्फ अड्डे ही नहीं बना रहा, लंबी चौड़ी नौसेना भी तैयार कर रहा है।

चीन की नीयत और योजनाएं अब किसी से छुपी नहीं हैं, जाहिर है अमेरिका ने इसकी काट निकालने के लिए योजना तैयार कर उसे लागू करना भी शुरू कर दिया है। भारत इस योजना का महत्वपूर्ण अंग है, अगर अमेरिका ने इस क्षेत्र में भारत को अपना सहयोगी चुना है तो उसे तकनीकी और सैन्य दृष्टि से मजबूत भी बनाना होगा, उसे आधुनिकतम हथियार भी देने होंगे। अमेरिका ने इसके लिए ईमानदारी से प्रयास भी किए हैं इस पूरी योजना का रणनीतिक महत्व है तो यह भी सच है कि इससे अमेरिका को हथियारों का नया और बड़ा बाजार भी मिलेगा। भारत को चाहिए कि वो अमेरिका का सहयोगी तो बने पर अपने स्वार्थों को ध्यान में रखते हुए। चीन जैसे पड़ोसी देश को दुश्मन न बनाया जाए, लेकिन उसके अतीत को देखते हुए तैयारी भी पूरी रखी जाए। अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोम्पिओ और रक्षा मंत्री जिम मैटिस की भारतीय विदेश मंत्री सुषमा स्वराज और रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमण के साथ वार्ता हुयी, ट्रंप और उत्तर कोरियाई तानाशाह किम जोंग शिखर सम्मेलन में व्यस्त रहने के कारण अमेरिका में प्रस्तावित यह वार्ता पहले टाल दी गई थी, अब ये भारत में होगी। में भारत के विदेश मंत्री और रक्षा मंत्री एक साथ अमेरिकी विदेश और रक्षा मंत्री से बात करते हैं ताकि दोनों क्षेत्रों के बारे में समग्र और व्यापक बातचीत हो सके और अड़चनें दूर कर राजनयिक और रणनीतिक मसलों को जल्दी से जल्दी सुलझाया जा सके। उम्मीद की जानी चाहिए कि इस उच्च स्तरीय बैठक के बाद दोनों देशों के संबंधों में आपसी समझ और गहरी होगी और जमीनी स्तर भी कामकाज को और गतिशील बनाया जा सकेगा।

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