भारतीय भाषायी द्वारा सांस्कृतिक पुनरुत्थान​

‘India Gate’ का नाम ‘भारत द्वार’ लिखवायें

भारतीय जनसंघ का पहला राष्ट्रीय वार्षिक अधिवेशन, कानपुर में २९ से ३१ दिसंबर, १९५२ को हुआ था, इस अधिवेशन की अध्यक्षता भारतीय जनसंघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने की थी, इस अधिवेशन में कुल १५ प्रस्ताव पारित हुए, इनमें ७ दीनदयाल उपाध्याय जी ने प्रस्तुत किए, सांस्कृतिक पुनरुत्थान का यह प्रस्ताव वैचारिक दृष्टि से बीजभूत प्रस्ताव है, इसी प्रस्ताव का विकास करते हुए दीनदयालजी ने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद एवं एकात्म मानववाद अवधारणाओं को देश के समक्ष प्रस्तुत किया था :

जनसंघ का मत था कि भारत तथा अन्य देशों के इतिहास पर विचार करने से यह सिद्ध होता है कि केवल भौगोलिक एकता एक राष्ट्रीयता के लिए पर्याप्त नहीं, एक देश के निवासी जन एक राष्ट्र तभी बनाते हैं, जब वे एक संस्कृति के द्वारा एक रूप कर दिए गए हों, जब तक भारतीय समाज एक संस्कृति का अनुगामी रहा, तब तक अनेक राज्य रहते हुए भी यहां के जनों की मूलभूत एक राष्ट्रीयता बनी रही, परंतु जबसे विदेशी शासकों ने अपने लाभ के लिए एकात्मता को भंग कर विदेशपरक संस्कृतियों को इस देश में जन्म दिया है, तब से भारत की एक राष्ट्रीयता संकटापन्न हो गई, अनेक शताब्दियों तक एक राष्ट्र का घोष करते हुए भी भारत में मुसलिम सम्प्रदायवादियों के द्विराष्ट्रवाद की विजय हुई, देश विभक्त हुआ और पाकिस्तान में गैर-मुस्लिमों के लिए रहना असंभव कर दिया गया, दूसरी ओर भारत में मुस्लिम संस्कृति को अलग मान उसकी रक्षा और संवर्धन के ब्याज से उसी द्विराष्ट्र वाली प्रवृत्ति का पोषण हो रहा है, जो राष्ट्र-निर्माण के मार्ग में बाधक है।

अतः जनसंघ निर्णय करता है कि भारत की एक राष्ट्रीयता के विकास और दृष्टिकोण हेतु यह नितांत आवश्यक है कि भारत में एक संस्कृति का पोषण हो और समाज के सभी घटकों में चाहे वह किसी धर्म के मानने अथवा किसी भी प्रदेश के निवासी हों, उसका प्रचार किया जाए और उसे मान्यता दिलाई जाए।

इस कार्य के संपादन के लिए निम्नलिखित दिशाओं में समाज और शासन को अग्रसर होना चाहिए-

१. शिक्षा को राष्ट्र संस्कृति पर आधारित किया जाना चाहिए, उपनिषद्, गीता, रामायण, महाभारत तथा अर्वाचीन-भारतीय भाषाओं द्वारा भारतीय संस्कृति को जीवित रखने वाले साहित्य सर्जकों से सबका परिचय कराया जाए और वह समय शीघ्र आए जब सामाजिक जीवन के सभी केंद्रों में इस सांस्कृतिक धारा को अनिवार्य समझा जाए।

२. भारत के राष्ट्रपुरुषों के जन्मदिवस आदि राष्ट्रीय पर्व के रूप में मनाए जाएं, जिनमें शासन प्रेरणा, प्रबंध और धन का सहाय हो और राष्ट्र के सभी नागरिक भाग लें।

३. भारत के प्रधान त्योहारों को राष्ट्रीय त्योहारों के रूप में मनाया जाए, इसमें होली, विजयादशमी, रक्षाबंधन तथा दीपावली का समावेश हो।

४. भारत के सामाजिक जीवन के सभी अंगों में क्षेत्रीय भाषा अथवा राष्ट्रभाषा का प्रचलन करने के लिए शासन और समाज की ओर से समर्थ तथा सतत उद्योग प्रारंभ हो, जिससे भारतीय समाज अपना विकास राष्ट्रीय आधारों पर कर सके।

५. संस्कृत भाषा का पुनरजीवित किया जाए, उसका ज्ञान विद्वत्ता के लिए अनिवार्य हो तथा उद्यम किया जाए कि देश की समस्त भाषाओं के लिए देवनागरी लिपि को ही एक लिपि के रूप में स्वीकार किया जाए।

६. भारतीय इतिहास शुद्ध रूप से भारतीय जन का इतिहास हो, इसमें विदेशी शासकों के नाम पर काल विभाजन न होकर भारतीय समाज के विकास, उसमें होने वाले आंदोलनों और क्रांतियों के आधार पर काल विभाजन कल्पित हो तथा भारतीय संस्कृति तथा भारतीय संस्कृति के पूर्वकालीन विश्वव्यापी प्रसार की गाथा भी सम्मिलित हो।

७. संस्कृति के पुनरुत्थान तथा एकीकरण की दृष्टि से यह संघ देश के हिंदू समाज को सचेत करता है कि अपनी इतिहास सिद्ध अंतरंग सामाजिक दुर्बलताओं का शीघ्रता से निराकरण करें, विशेषकर जातिभेद के कारण उत्पन्न, ऊंच-नीच और विभिन्नताओं को तत्काल दूर किया जाए और पिछड़े हुए वर्गों तथा अन्य हिंदुओं के बीच पूर्ण साम्य की स्थापना की जाए, साथी समाज के हेतु धार्मिक पर्वों और उत्सवों को सामूहिक, संगठित तथा अनुशासित रूप में मनाया जाए और समाज के जनों का उसमें सहयोग प्राप्त किया जाए।

८. अंतरंग सुधार के साथ-साथ हिंदू समाज का राष्ट्र के प्रति कर्तव्य है कि भारतीय जन के उन भागों के राष्ट्रीयकरण का महान् कार्य हाथ में ले, जो विदेशियों द्वारा स्वदेश पराङ्मुख और विदेशा भिमुख बना दिए गए हैं। भारतीय समाज को चाहिए, उन्हें आत्मसात् कर ले, केवल इसी प्रकार सांप्रदायिकता का अंत हो सकता है और राष्ट्र की एकनिष्ठता तथा दृढ़ता निष्पन्न हो सकती है।

साभार: पांचजन्य, दिसंबर ३१, १९५२

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