मारवाड़ी पुस्तकालय में १०२ साल पहले आए थे गांधीजी
by Bijay Jain · Published · Updated
नई दिल्ली
चांदनी चौक में फौव्वारे के पास मौजूद मारवाड़ी पुस्तकालय में आजादी से पहले स्वतंत्रता संग्राम में शामिल नेताओं की गुप्त बैठकें हुआ करती थी, जिनमें भाग लेने के लिए कई स्वतंत्रता सेनानी आते थे। पुस्तकालय की आगंतुक पुस्तिका के अनुसार राष्ट्रपिता महात्मा गांधी पहली बार २७ नवंबर १९१७ को पुस्तकालय आए थे, जिसे इस साल १०२ साल पूरे हो गए।मारवाड़ी पुस्तकालय के प्रधान सुरेश सिंघानिया के अनुसार पुस्तकालय की शुरुआत १९१५ में सेठ केदारनाथ गोयनका ने की थी, इसको स्थापित करने का मुख्य उद्देश्य हिंदी साहित्य के प्रचार-प्रसार के साथ आजादी के लिए लड़ने वालों को केंद्र उपलब्ध कराना मारवाड़ी पुस्तकालय में २७ नवंबर को महात्मा गांधी जी के आने के १०२ साल के मौके पर स्मृति दिवस मनाया गया। पुस्तकालय के मंत्री राजनारायण सर्राफ ने एक प्रेस विज्ञप्ति द्वारा बताया कि इस दिन हम गांधी जी के दिखाए रास्ते पर चलने की व उनके विचारों को सभी तक पहुंचाने की बात करते हैं।था, १९१६ से १९३३ तक कई बड़े नेता यहां आते थे और आजादी की रणनीतियों पर मंत्रणा किया करते थे। पुस्तकालय की आगंतुक पुस्तिका के अनुसार राष्ट्रपिता महात्मा गांधी, लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक, एनसी केलकर और डीडी साठे २७ नवंबर १९१७ को पुस्तकालय आए थे, सिंघानिया ने बताया कि १९४२ में गांधीजी ने जब ‘करो या मरो’ का नारा दिया तो चांदनी चौक में महिलाओं के प्रथम जुलूस की शुरुआत मारवाड़ी पुस्तकालय से ही हुई थी, जिसका नेतृत्व स्वतंत्रता सेनानी पार्वती देवी डीडवानिया ने किया था, वह पहली मारवाड़ी महिला थी, जो खुले तौर पर स्वतंत्रता संग्राम में शामिल हुई थी।
पुस्तकालय के मंत्री राजनारायण सर्राफ ने ‘मैं भारत हूँ’ को बताया कि इस पुस्तकालय का महत्व इस बात से ही समझा जा सकता है कि १९९४ में दिल्ली विकास प्राधिकरण (डीडीए) ने पुस्तकालय के भवन को हैरिटेज (विरासत) घोषित किया था, उनके मुताबिक यहां देश से ही नहीं बल्कि विदेश से भी शोधार्थी पुरानी किताबों की खोज में आते हैं। पुस्तकालय में विभिन्न प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी कर रहे विद्यार्थियों के लिए विशेष इंतजाम हैं, वे मामूली शुल्क देकर यहां आकर परीक्षाओं की तैयारी कर सकते हैं। सोमवार को बंद रहने वाले इस पुस्तकालय को मारवाड़ी चैरिटेबल ट्रस्ट चलाता है, यहां अखबार पढ़ने के लिए कोई शुल्क नहीं लिया जाता, कोई भी, कभी भी यहां आकर अखबार पढ़ सकता है। पुस्तकालय में १९ अखबार (हिन्दी, अंग्रेजी और उर्दू) और ३० पत्रिकाएं आती हैं।
किताबों का भंडार: पुस्तकालय में कुल ३५ हजार किताबें हैं, यहां नई और पुरानी दो हजार पत्र-पत्रिकाएं उपलब्ध हैं, पुस्तकालय में ७०० संदर्भ ग्रंथ का बहुमूल्य संग्रह और २१ दुर्लभ पांडुलिपियां मौजूद हैं।
खेल और कला को बढ़ाने पर स्कूल ध्यान दें
नई दिल्ली: केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने कहा कि खेल और कला समाज को मानव का सबसे बड़ा योगदान है तथा स्कूलों को शुरू से इस क्षेत्र में छात्रों को आगे बढ़ाने पर ध्यान देना चाहिए, बाल भवन में ‘कला उत्सव’ के उद्घाटन सत्र में लोगों को संबोधित करते हुए उन्होंने यह बयान दिया है, उन्होंने कहा कि खेल और कला समाज को मानव द्वारा दिया सबसे बड़ा खजानों में से एक हैं और स्कूलों को शुरू से ही इन क्षेत्रों में छात्रों को आगे बढ़ाने पर ध्यान देना चाहिए। ‘कला उत्सव’ मानव संसाधन विकास मंत्रालय के स्कूलों स्कूलों शिक्षा एवं साक्षरता विकास मंत्रालय विभाग की पहल है। बाल भवन में जावड़ेकर ने खेल केन्द्र का उद्घाटन किया, जो तमाम नई सुविधाओं से लैस है। कर्नाटक के अलावा सभी राज्यों और केन्द्र शासित प्रदेशों से करीब ३७० बच्चों के यहां चार दिवसीय राष्ट्रीय स्तर प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेने की उम्मीद है। वर्ष २०१५ में कला उत्सव राष्ट्रीय प्रतियोगिता की शुरूआत शिक्षा में कला को बढ़ावा देने के लिए की गई थी।
-प्रकाश जावड़ेकर
केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रा
हिंदी बहन है, मालकिन नहीं
उप-राष्ट्रपति वैंकय्या ने हिंदी के बारे में ऐसी बात कह दी है, जिसे कहने की हिम्मत महर्षि दयानंद, महात्मा गांधी और डॉ. राममनोहर लोहिया में ही थी। वैंकय्याजी ने कहा कि ‘‘अंग्रेजी एक भयंकर बीमारी है, जिसे अंग्रेज छोड़ गए हैं।’’ अंग्रेजी का स्थान हिंदी को मिलना चाहिए, जो कि ‘‘भारत को सामाजिक-राजनीतिक और भाषायिक दृष्टि से जोड़नेवाली भाषा है।’’ वैंकय्या नायडू के इस बयान ने भारत के अंग्रेजीदासों के दिमाग में खलबली मचा दी है, कई अंग्रेजी अखबारों और टीवी चैनलों ने वैंकय्या को आड़े हाथों लिया है।अब भी उनके खिलाफ अंग्रेजी अखबारों में लेख निकलते जा रहे हैं, क्यों हो रहा है, ऐसा? क्योंकि उन्होंने देश के सबसे खुर्राट, चालाक और ताकतवर तबके की दुखती रग पर उंगली रख दी है, यह तबका उन पर ‘हिंदी साम्राज्यवाद’ का आरोप लगा रहा है और उनके विरुद्ध उल्टे-सीधे तर्कों का अंबार लगा रहा है। नायडू ने यह तो नहीं कहा कि अंग्रेजी में अनुसंधान बंद कर दो, अंग्रेजी में विदेश नीति या विदेश-व्यापार मत चलाओ या अंग्रेजी में उपलब्ध ज्ञान-विज्ञान का बहिष्कार करो, उन्होंने तो सिर्फ इतना कहा है कि देश की शिक्षा, चिकित्सा, न्याय प्रशासन आदि जनता की जुबान में होना चाहिए।
भारत लोकतंत्र है लेकिन लोक की भाषा कहां है, पदासीन पर और अंग्रेजी को बिठा रखा है, वे अंग्रेजी का नहीं, उसके वर्चस्व का विरोध कर रहे थे, यदि भारत के पांच-दस लाख छात्र अंग्रेजी को अन्य विदेशी भाषाओं की तरह सीखें, तो उसका स्वागत है लेकिन २०-२५ करोड़ छात्रों के गले में उसे पत्थर की तरह लटका दिया जाए तो क्या होगा, वे रट्टू-तोते बन जाएंगे, उनकी मौलिकता नष्ट हो जाएगी, वे नकलची बन जाएंगे, सत्तर साल से भारत में यही हो रहा है?
अंग्रेजी की जगह शिक्षा, चिकित्सा, कानून, प्रशासन और व्यापार आदि में भारतीय भाषाएं लाने को ‘‘हिंदी साम्राज्यवाद’ कहना अंग्रेजी की गुलामी के अलावा क्या है अंग्रेजी को बनाए रखने के लिए हिंदी को अन्य भारतीय भाषाओं से लड़ाना जरुरी है, अंग्रेजी की तरह हिंदी अन्य भाषाओं को दबाने नहीं, उन्हें उठाने की भूमिका निभाएगी, वह अन्य भाषाओं की भगिनी-भाषा है, बहन है, मालकिन नहीं, ऐसा ही है, तभी तो तेलुगुभाषी वैंकय्या नायडू ने इतना साहसिक बयान दिया है, हमारे तथाकथित राष्ट्रवादी संगठनों और नेताओं को वैंकय्याजी से कुछ सबक लेना चाहिए|
-डॉ. वेदप्रताप वैदिक