मेरा ध्यान मुंबई पर है जहां से ३६ विधायक आते हैं
by Bijay Jain · Published · Updated
मेरा ध्यान मुंबई पर है जहां से ३६ विधायक आते हैं
मुंबई: हिंदी प्रदेशों के तीन राज्यों में भाजपा की हार की पृष्ठभूमि में महाराष्ट्र में कॉग्रेस का मानना है कि वह ‘कृषि संकट’ और रोजगार में कमी को लेकर लोगों की ‘नाराजगी’ को अगले साल होने वाले लोकसभा एवं विधानसभा चुनाओं में सत्तारूढ़ भाजपा के खिलाफ मोड़ सकती है। उत्तर प्रदेश (८०) के बाद सबसे ज्यादा ४८ सांसद महाराष्ट्र से आते है|उत्तर प्रदेश (८०) के बाद सबसे ज्यादा ४८ सांसद महाराष्ट्र से आते हैं, साथ ही, कांग्रेस नेता इस बात से भी अवगत हैं कि चुनाव में भाजपा का सामना करने के लिए अपने यहां की चीजों को दुरूस्त करना होगा। २०१४ के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने अब तक का सबसे खराब प्रदर्शन किया था और उसे मात्र दो सीटें मिली थीं। कांग्रेस और राकांपा का गठबंधन १९९९ से २०१४ तक तीन बार लगातार राज्य की सत्ता में रहा, लेकिन अक्टूबर, २०१४ में हुए विधानसभा चुनाव में उसे ४२ सीटों से ही संतोष करना पड़ा था। राजनीतिक पर्यवेक्षकों के अनुसार ‘कृषि संकट’ और बेरोजगारी को लेकर लोगों में नाराजगी महाराष्ट्र में मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान की अपेक्षा ज्यादा गंभीर है, इन तीनों प्रदेशों में भाजपा को चुनाव में हार का सामना करना पड़ा है, इन तीनों राज्यों के विपरीत महाराष्ट्र ऐसा राज्य है जहां शिवसेना और राकांपा जैसी क्षेत्रीय पार्टियों को अलग-अलग हिस्से में मजबूत माना जाता है।इसके अलावा राज ठाकरे नीत मनसे, नारायण राणे की महाराष्ट्र स्वाभिमान पार्टी, सपा, बसपा, एसएसएस, भाकपा, आरपीआई जैसे दल भी हैं, महाराष्ट्र कांग्रेस के एक नेता ने कहा कि पार्टी की भविष्य की रणनीति भाजपा के सभी उम्मीदवारों को हराने की होगी, उन्होंने कहा कि अगर कांग्रेस तथा राकांपा अपने उम्मीदवारों की जीत सुनिश्चित करने में नाकाम रहती हैं तो रणनीति यह होगी कि प्रभावशाली उम्मीदवार को सीधे या परोक्ष रूप से समर्थन किया जाए। मुंबई के वरिष्ठ कांग्रेस नेता मिलिंद देवड़ा के अनुसार उनका ध्यान मुंबई पर है जहां से ३६ विधायक आते हैं।
-मिलिंद देवड़ा
पूर्व सांसद कांग्रेस
भारतीय शिक्षा का सर्वनाश
भारतीय संस्कृती पूरे विश्व में अतिप्राचीन मानी जाती है, इसलिए भारत को विश्व गुरु माना जाता है। यहाँ की शिक्षा पद्धती का आधार संस्कार संवर्धन ही था। प्राचीन भारत में ऋषी-मुनियों द्वारा गुरुकुल पद्धती से शिक्षा दी जाती थी, प्राचीन गुरुकुलों में ७२ प्रकार की कलाओं का अध्यापन किया जाता था, इन ७२ कलाओं में प्राविण्य प्राप्त छात्र किसी ना किसी एक कला में प्राविण्य प्राप्त कर अपने और अपने परिवार की उपजिविका चलाता था, मगर आज के स्कूल और कॉलेज से पढे हुए छात्र एक ही तरह का शिक्षण लेने के कारण ना उस में प्राविण्य प्राप्त कर पा रहे हैं ना दुसरा कुछ कर पाते है, इस कारण बेरोजगार युवकों की झुंड तैयार हो रही है। प्राचीन भारत में प्रत्येक राज्य, गांव स्वयंपूर्ण थे। बेरोजगारी का नामोनिशान नहीं था। आज भी पूरे विश्व के जितने भी देश है उसकी अर्थनीति चाणक्य के दिए हुए सूत्रों पर ही आधारित चल रही है। आज के अनेक संशोधन भारत के ऋषी-मुनियों के लिखे हुए शास्त्रों के आधार पर ही हो रहे हैं। नारी शिक्षा भी लाखों वर्षों से भारत में दी जाती थी। जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव ने अपने ब्राह्मी और सुंदरी कन्याओं को अक्षर और अंक का ज्ञान दिया था इसका उल्लेख मिलता है।
ताजमहल, दिलवाडा के मंदिर जैसे अनेक स्थापत्य कला के अद्भूत निर्माण कार्य आज के आधुनिक कॉलेज में पढे-लिखे निर्माण नहीं कर सकते, इससे पता चलता है कि यहाँ कि स्थापत्य कला का विकास था। भारत अपनी शिक्षा पद्धती के कारण ही समृद्ध और संपन्न था, यहाँ सोने के सिक्के हाथ से नहीं गिने जाते थे, उन्हे सेर, सव्वासेर माप से भर के दिये जाते थे, यह संपन्नता देखकर ही मुगलों से लेकर अंगे्रजों तक ने इस देश को लूटने का प्रयास किया, फिर भी यह देश संपन्न रहा, इस देश की यह संपन्नता का सर्वनाश भारतीय शिक्षा के सर्वनाश से हो गया। भारतीय शिक्षा का इतिहास क्या था? यही हम भारतीयों को मालूम नहीं। भारतीय शिक्षा का सर्वनाश अंग्रेजों ने कैसे किया इसका पूरा इतिहास बहुत परिश्रम के साथ लेखक श्री. सुंदरलालजी ने ‘भारतीय शिक्षा का सर्वनाश’ लिखी है। लेखक सुंदरलालजी एक प्रतिभा संपन्न संशोधक थे, इस किताब के हर शब्द में उनकी प्रतिभा झलकती है। आदरणीय सुंदरलालजी ने इतिहासों के पन्ने खोल-खोलकर भारतीय शिक्षा पद्धती कितनी उँचाई को छुने वाली थी, यह सिद्ध किया है, इनकी इस किताब के उपर अंगे्रजों ने बैन लगाया था अंगे्रजों ने ‘भारत’ हमेशा गुलामी की मानसिकता में रहे, ऐसी व्यवस्था में बनाई जो आज भी शिक्षण व्यवस्था
चल रही है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधीजी ने भी इस किताब की सराहाना की थी और हर भारतीय तक पहुंचाने के लिए कहा था, उन्हीं के कहने से इसका प्रथम प्रकाशन १९२९ में किया गया था। स्वतंत्रता के बाद १९६४ में इसको भारत सरकार द्वारा पुन: प्रकाशित किया गया।
राष्ट्रहीत प्रवर्तक संतशिरोमणी आचार्यश्री विद्यासागरजी भी प्राचीन शिक्षा पद्धती और मातृभाषा में शिक्षा का आग्रह करते हैं। प्राचीन गुरुकुल संस्कारीत शिक्षा के बारे में आचार्यश्री ने केवल विचार ही नहीं रखे, प्रतिभास्थली के द्वारा उसको प्रयोग में भी लाया है। प्राचीन शिक्षा पद्धती के साथ ही प्राचीन ग्रामोद्याग को भी बढाने का प्रयास आचार्यश्री कर रहे हैं जिसके माध्यम से ही स्वस्थ भारत संपन्न-भारत का प्रयास फलिभूत होगा। उन्हीं के शिष्य प.पू. मुनिश्री अक्षयसागरजी महाराजजी ने आचार्यश्रीजी को सुंदरलालजी की यह किताब ‘‘भारतीय शिक्षा का सर्वनाश,’’ दिंडोरी (म.प्र) में मेरे द्वारा दिखाया गया, तब आचार्यश्रीजी ने कहा कि इसका पुन: प्रकाशन होना चाहिए और इस पुन: प्रकाशन को सहर्ष आशीर्वाद दिया। प.पू. मुनिश्री अक्षयसागरजी महाराज सर्वधर्मीयों में संस्कारों की अभिवृद्धी कराने के लिए अथक परिश्रम करते रहते है, इसलिए हमेशा नये नये साहित्य की खोज कर लोगों के सामने रखते हैं। अंबाजोगाई के एक पुराने ग्रंथालय में से महाराजजी ने यह किताब ढूंढकर निकाली और उन्नत भारत का इतिहास सामने आया है। मुनिश्री अक्षयसागरजी महाराज अनेकों किताबें और लेखपत्रिका का संकलन, संपादन कर शांती विद्या ज्ञानसंवर्धन समिती की ओर से प्रकाशीत की है, जिससे भारतीय संस्कारों का बीजारोपन हर एक के मन में हो जाये, अनेक स्कूल, कॉ लेज और सार्वजनिक जगहों पर महाराजजी के प्रवचन हुये जिसके द्वारा भारतीय संस्कृती के मूल्यों का प्रचार हुआ।
शांती विद्या ज्ञानसंवर्धन समिती प.पू.मुनिश्री अक्षयसागरजी महाराज की प्रेरणा से आज तक अनेक समाजोपयोगी किताबों का प्रकाशन हो चुका है, इसी श्रृंख्ला में यह ‘भारतीय शिक्षा का सर्वनाश’ पुस्तक का प्रकाशन हुआ आपके हाथ इसके लिए श्रीमती अलका नागेंद्रजी पुरंत (जैन), निपाणी, ता.चिकोडी जि. बेळगावी (कर्नाटक), वर्धमान ज्वेलर्स परिवार वालों का अर्थ सहयोग मिला है, प्रकाशन में श्री. माणिक जैन नुपूर सर्विसेस, अंबाजोगाई समय पर कार्य को संपन्न कराया है उनके प्रति भी आभार प्रगट किया गया, इस किताब प्रकाशन का मूल उद्देश्य यही है कि आप सभी लोग भारतीय शिक्षा के इतिहास को जानकर अपने बच्चों को भी भारतीय भाषा में ही शिक्षा देने का प्रयास करेंगे इसी भावना के साथ।
– बा. ब्र. तात्यासाहेब नेजकर
हमें अपनी भारतीय संस्कृति को समझना होगा
भारत विश्व का सर्वसम्पन्न एवं विकसित देश था, यहाँ सर्वोत्तम कृषि, वस्त्र उद्योग, औद्योगिक एवं व्यापारिक केन्द्र भी थे। घरों-घरों में सोने के सिक्कों के ढ़ेर लगे रहते थे, जैसे कि चने या गेहूं के ढ़ेर है, वे तराजू में तोलकर रखते थे, क्योंकि गिनने की फुर्सत नहीं होती थी। सन १८३५ तक सम्पूर्ण भारत वर्ष विकसित था, इसका कारण भारत की शिक्षा पद्धति, यहाँ की गुरूकुल पद्धति-ज्ञान, चरित्र एवं संस्कृति, त्रिवेणी संगम के कारण भारत अन्तरराष्ट्रीय शिक्षा का तीर्थराज बना था। सन १८३५ से पहले भारत की शिक्षा प्रणाली से सम्पूर्ण भारतवर्ष विकसित था, लेकिन कौन से, किनकी शिक्षा पद्धति से पिछड़े, गरीब देशों की शृ्रंखला में लाकर खड़ा कर दिया, यह देश का बहुत बड़ा दुर्भाग्य रहा, यह तथ्य हमारे अध्यापकों द्वारा बी़ एड., की कक्षाओं में बताया नहीं जाता है।महात्मा गांधी सन १९३१, गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने के लिए लंदन गये थे, तब अंगे्रज अधिकारी ने कहा था, ‘यदि अंगे्रज भारत नहीं आते तो भारत की शिक्षा व्यवस्था सुधर नहीं पाती’ तब गांधीजी को यह बात बहुत खराब लगी, उन्होंने उस बात का विरोध किया और कहा मैंने मेरे देश को बहुत करीब से देखा है, गांव-गांव में प्रवास किया है, तब मैंने शिक्षा व्यवस्था के पुराने खण्डहर देखे हैं, बाद में लंदन के चेथम हाऊस में २०.१०.१९३१, भारत के शिक्षा प्रणाली के बारे में कहा ‘अंगे्रज जब भारत आए तब उन्होंने यहाँ कि स्थिती को यथावत स्विकार करने के स्थान पर उसका उन्मूलन करना शुरु किया, उन्होंने मिट्टी कुरेदी, जड़ों को कुरेद कर बाहर निकाला और फिर उन्हें खुला ही छोड़ दिया, परिणाम यह हुआ कि शिक्षा का वह रमणीय वृक्ष नष्ट हो गया, इस तरह भारतीय शिक्षा का नाश हुआ। सर्वोदयी संत आचार्यश्री विद्यासागर महाराज ‘राष्ट्र के लिए देशना’ इस पुस्तक में ‘इंडिया नहीं भारत की ओर दृष्टिपात करने के लिए कर्तव्य, नैतिकता, उदारता, सेवा, त्याग एवं समर्पण आदि शिक्षण के संस्कारों का एक परिवार है, यही युवाओं को आदर्शों की ओर ले जा सकते है, इसके लिए मातृभाषा में शिक्षण, राष्ट्र भाषा में शोध एवं कृषि, हथकरघा, गोशाला, आयुर्वेद आदि का उपदेश देकर देश को पुन: वैभवपूर्ण एवं समृद्धिशाली बनाने के लिए हमें अपने ओझल हुए इतिहास की तरफ लौटना होगा। पं. सुंदरलाल की पुस्तक ‘भारत में अंगे्रजी राज’ के दो खण्डों में सन १६६१ ई.से लेकर १८५७ ई.सन तक के भारत का इतिहास संकलित हैं। यह अंगे्रजों की वूâटनीति और काले कारनामों का खुला दस्तावेज है, जिसकी प्रामाणिकता सिद्ध करने के लिए लेखकने अंगे्रज अधिकारियोंके स्वयं के लिखे डायरी के पन्नो का शब्दश: उद्धरण किया है, पुस्तक का पहला संस्करण १८ मार्च १९२९ को प्रकाशित हुआ, २२ मार्च १९२९ को अंगे्रज सरकार की ओर से इस पुस्तक को जब्त किया गया था, इस जब्ती के होते हुए महात्मा गांधीजी ने लेखक को आज्ञा दी कि पुस्तक का एक सेट कहीं से उन्हें लाकर दें। गांधीजी ने वह सेट आद्योपान्त पढा, इसके बाद ‘यंग इण्डिया’ में उन्होंने इस पुस्तक के कई सम्पादकीय लेख लिखे, उन लेखों में गांधीजी ने इस पुस्तक की तारीफ की, इसे ‘अहिंसा के प्रचार और प्रसार का एक प्रशंसनीय प्रयत्न’ बताया, गांधीजी ने इस पुस्तक के महत्त्वपूर्ण अंशों से नकल करके या छापकर खुले वितरण की भावना की, उन्हांr के भावनाओं को लेकर मेरी भावना बनी और लॉर्ड मैकॉले के इण्डियन पीनल कोड बनाने का उद्देश्य देश के प्रत्येक नागरिक, शिक्षण संस्थाओं को जानकारी हो, इसलिए प्रकाशन किया गया है।
भारत के शिक्षा पद्धति को बदलते समय उच्च श्रेणी के भारतवासियों में राष्ट्रीयता के भावों को रोका जाये और उन्हें अंगरेजी सत्ता चलाने के लिए उपयोगी यन्त्र बनाया जाये, इसके लिए लॉर्ड मैकाले ने एक स्थान पर लिखा है- ‘भारत के लोग ऐसे होने चाहिए, जो कि केवल खून और रंग की दृष्टीसे हिन्दुस्थानी हो, किन्तु जो अपनी रुचि, भाषा, भावो और रंग की दृष्टी से हिन्दुस्थानी हो, किन्तु जो अपनी रुचि, भाषा, भावों और विचारों की दृष्टि से अंगरेज हो।’ इस बात की जानकारी भारत के हर नेता, संस्था, पक्ष, विपक्ष, संघटना और नागरिकों को हो जाये और अपना आत्मसम्मान, आत्मगौरव तथा मूल संस्कृति को समझे, इसलिए यह पुस्तिका आपके सामने प्रस्तुत की जा रही है। लेखक ने लिखा है ‘अंगरेजों के लिखे हुए भारतीय इतिहास करीब-करीब शुरु से आखिर तक, इसी दोष में रंगे हुए हैं, शायद संसार के किसी भी देश का इतिहास इस तरह इतना अधिक विस्तृत नहीं किया गया, जितना भारत का’ ऐसी वेदना व्यक्त की है, इसलिए अभी भी हमें लौटना है जिससे देश की संस्कृति, उन्नति, शिक्षा पद्धती एवं सुरक्षा का अच्छा कार्य हो सके, यही मंगल भावना।