राष्ट्रीय एकता के लिए नागरी लिपि की भूमिका
by Bijay Jain · Published · Updated
- डॉ. राजलक्ष्मी कृष्णन, पूर्व हिंदी विभागाध्यक्ष (तमिलनाडु)
मैं महात्मा गांधी जी के इस वाक्य से ही यह आलेख प्रारंभ कर रही हूँ कि ‘‘राष्ट्रभाषा के बिना राष्ट्र गूँगा है और नागरी लिपि के बिना राष्ट्रीय एकता अधूरी है।’’
गांधीजी बहुत बड़े विचारक थे, वे हमेशा राष्ट्रभाषा और राष्ट्रलिपि के बारे में ही बातें करते रहे, उन्होंने बार-बार राष्ट्रीय एकता के संदर्भ में लिपि के प्रश्न को उठाया और कहा- ‘‘मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि सभी भारतीय भाषाओं की लिपि एक ही होनी चाहिए और ऐसी लिपि केवल देवनागरी लिपि ही हो सकती है।’’
आचार्य विनोबा भावे ने भी भारतीय भाषाओं के लिए जोड़लिपि के रूप में नागरी लिपि को अपनाने की वकालत की, वे चाहते थे कि सभी भारतीय भाषाएँ अपनी-अपनी लिपियों के साथ-साथ एक अतिरिक्त लिपि के रूप में नागरी लिपि का भी प्रयोग करें, इससे भारत की सभी भाषाएँ एक-दूसरे के निकट आएँगी और इससे राष्ट्रीय एकता और अधिक मजबूत बन जाएगी।
हम सभी जानते हैं कि बोली एवं भाषा समाज की रीढ़ होती है और ये हमारी धरोहर है, इस संबंध में स्वर्गीय राष्ट्रपति डॉ. राधाकृष्णन ने कहा था- ‘‘बोली या भाषा मात्र शब्द नहीं है, यह संस्कृति का पर्याय है।’’ बोली केवल बोली जाती है और भाषा लिखी जाती है, अत: बोली को भाषा के रूप में विकसित करने का श्रेय केवल सक्षम लिपि को ही है, इसके लिए हमारे विद्वानों ने हिंदी के लिए देवनागरी लिपि को ही स्वीकार किया है, आज हम सभी यह जानते हैं कि संपूर्ण विश्व में हिंदी की पढ़ाई देवनागरी लिपि के माध्यम से ही हो रही है।
‘हिंदी’ के अतिरिक्त भारत में संस्कृत, मराठी, नेपाली, कोंकणी, बोडो, संथाली, सिंधी और उत्तर भारत की ब्रज, अवधी, भोजपुरी, राजस्थानी आदि बोलियाँ भी देवनागरी लिपि में ही लिखी जाती है, आज भारत की प्रमुख लिपि देवनागरी लिपि ही है।
भारतीय एकता के लिए हिंदी भाषा एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है, उसी प्रकार संपर्क लिपि के रूप में देवनागरी लिपि की उपयोगिता भी महत्त्वपूर्ण है, एक व्यक्ति को कई भाषाएँ सीखने में लिपियों की कठिनाई एक बहुत बड़ी समस्या है, अगर देवनागरी के माध्यम से तमिल, मलयालम, तेलगु या कन्नड़ भाषा को सीखने की सुविधा, हिंदी भाषा को दी जाए, तो व्यक्ति आसानी से उन भाषाओं को सीख सकता है, यदि कोई उत्तर भारत का व्यक्ति दक्षिण भारत की भाषा सीखना चाहता है तो पहले उसे उस भाषा की लिपि सीखनी पड़ती है, जिसमें उसका बहुत समय लग जाता है और बहुत कठिनाइयाँ भी होती है, परंतु यदि वही सामग्री उसे देवनागरी लिपि में मिल जाए तो उसे भाषा सीखने में उतनी कठिनाई नहीं होगी, सामान्य लिपि के होने पर एक व्यक्ति शीघ्र ही अनेक भाषाएँ सीख सकता है, यह कार्य अवश्य ही नागरी लिपि द्वारा ही संभव है, ऐसा मेरा विचार है। नागरी लिपि को अपनाने में कुछ भाषा क्षेत्रों में यह गलतफहमी है कि नागरी लिपि हिंदी की लिपि है और नागरी के माध्यम से उन पर हिंदी भाषा लादी जा रही है, परंतु यह गलत है।
नागरी केवल हिंदी की ही नहीं, अपितु अनेक भाषाओं की लिपि है। भारत की अनेक भाषाओं के बीच में देवनागरी लिपि एक अंतिम जोड़लिपि के रूप में बहुत ही उपयोगी सिद्ध हो सकती है। राष्ट्रीय एकता को मजबूत करने में केवल देवनागरी लिपि ही महत्वपूर्ण कार्य कर सकती है, इसके लिए मेरे विचार में ‘नागरी लिपि परिषद्’ विशेष कार्य कर रही है और विविध भाषा-क्षेत्रों में नागरी की उपयोगिता को प्रकाश में लाकर उसके विस्तृत प्रयोग के लिए उचित वातावरण पैदा करने का प्रयत्न कर रही है।
कम्प्यूटर और मोबाइल पर अब और अधिक सुगमता से सोशल मीडिया के रूप में नागरी लिपि का प्रचलन दिनों-दिन बढ़ रहा है, अब नागरी लिपि संपर्क लिपि के रूप में पूरे देश में लोकप्रिय होती जा रही है।
नागरी लिपि सरल है और वैज्ञानिक भी, इसलिए आसानी से वह सारे देश के लोगों को जोड़ सकती है, देवनागरी में सरलता का गुण है, अत: मेरे विचार से यदि दक्षिण भारत की भाषाएँ भी इसे अपना लें, तो शीघ्र ही राष्ट्र में एकता स्थापित कर सकते हैं।
नागरी लिपि के प्रचार-प्रसार के लिए विनोबा जी ने अपना सारा जीवन अर्पित कर दिया, अब इस लक्ष्य को पूरा करने का कार्य ‘नागरी संगम’ पत्रिका और इससे जुड़े हुए अनेक कार्यकर्ता प्रधान संपादक डॉ. हरिसिंह पाल, बिजय कुमार जैन ‘हिंदी सेवी’ आदि अनेक विद्वतजन जुड़े हुए हैं, जिनका कार्य प्रशंसनीय है। आशा करती हूँ कि शीघ्र ही राष्ट्रीय एकता के लिए जोड़लिपि के रूप में नागरी लिपि की भूमिका सार्थक सिद्ध होगी।
‘जय भारती, जय नागरी!
हिंदी बाल एवं किशोर साहित्य: सम्भावनाएँ एवं चुनौतियाँ
बाल-मन जिज्ञासाओं का समुद्र होता है। बच्चों में कल्पनाशीलता एवं अनुकरणशीलता बहुत अधिक होती है, ये गुण ही उनके चारित्रिक विकास एवं ज्ञान-वृद्धि का आधार है, अत: यह आवश्यक हो जाता है कि उनको शांत करने, नवीन जिज्ञासाएँ जगाने एवं कल्पनाशीलता को तीव्र करने के साधन उपलब्ध कराए जाएँ, यह दायित्व जागरूक अभिभावकों पर तो है ही, साथ ही एक साहित्यकार का भी यह दायित्व बन जाता है कि वह इस कार्य में अभिभावकों की मदद करे, इस कार्य में प्रकाशक का भी अहम् रोल हो जाता है, क्योंकि बाल-साहित्य की सफलता अंत में उसकी प्रस्तुति पर ही निर्भर करती है, अत: इस उत्तरदायित्व को सफलतापूर्वक निभाने में इन तीनों का सामंजस्य आवश्यक है, यह विदित है कि बालक ही हमारे भावी समाज का आधार हैं, भावी समाज, देश व दुनिया का दायित्व उन्हीं के कंधों पर है, वे योग्य नागरिक बनकर इस दायित्व का निर्वहन कर सकेंगे, योग्य नागरिक वे तब ही बन सकते हैं जब उनके सामने पर्याप्त साधन होंगे, उनकी जिज्ञासाओं को शांत करने, कल्पना को तीव्र करने, उनके उत्साह को सही दिशा दिखाने के माध्यम! अपने भविष्य के आदर्श उनके सामने होंगे। बाल-साहित्य इय उद्देश्य की पूर्ति का एक अहम् एवं सशक्त माध्यम है।
बाल-मन को ध्यान में रखकर लिखा गया साहित्य बाल एवं किशोर साहित्य की संज्ञा में आता है, ऐसा साहित्य बालकों की जिज्ञासाओं को शांत करने तथा कल्पनाशीलता को तीव्र करने का माध्यम होता है, यह मनोरंजन के साथ-ही-साथ बालकों को शिक्षा भी प्रदान करता है। बाल-साहित्य लिखने के लिए लेखक को बाल-मन में डुबकी लगानी होती है। बाल साहित्यकार सुरेन्द्र विक्रम के अनुसार ‘जो साहित्य बच्चों के मन और मनोभावों को परखकर उनकी भाषा में लिखा गया हो, उसे बाल-साहित्य की संज्ञा दी जा सकती है।
बाल-साहित्य की परम्परा अत्यन्त प्राचीन है। दादा-दादी तथा नाना-नानी की कहानियों के रूप में इसकी मौखिक परंपरा रही है, जिसे आगे चलकर कुछ सुधी लेखकों ने संकलित करना आरंभ किया। भारत में लिखित बाल- साहित्य की परम्परा का आरंभ संस्कृत-काल से ही हो गया था। संस्कृत में ‘पंचतंत्र’ जैसा प्रसिद्ध बाल-कहानी-संग्रह इसका प्रमाण है। हिंदी में बाल-साहित्य का प्रारंभ अनुदित कहानियों से हुआ। राजा भोज का सपना, बच्चों का इनाम, लड़कों की कहानी, जैसी रचनाएं हिंद गद्य के आरंभिग युग में प्राप्त होती हैं। भारतेन्दु युग में ही मौलिक कहानियां भी लिखी जाने लगीं, आगे चलकर प्रेमचंद ने बाल-मन को आधार बनाकर कुछ कहानियां लिखीं, इन कहानियों में पशु-पक्षियों अथवा परियों के माध्यम से बच्चों को शिक्षा प्रदान करने का प्रयास रहा है, जिनसे बच्चों में साहस, बलिदान, त्याग, सहयोग और परिश्रम जैसे गुणों का विकास हो सके, परंतु बाल-साहित्य का उद्देश्य सिर्फ बालकों का मनोरंजन ही नहीं, अपितु वास्तविक जीवन की सच्चाइयों से अवगत कराना भी है। बाल-साहित्य के माध्यम से ही हम उनको समाज एवं देश का भावी नागरिक बनने का सपना दिखा सकते हैं। बाल-साहित्यकार की भूमिका उस कुम्हार के समान है, जो कच्ची मिट्टी को चॉक के माध्यम से कोई भी आकार दे सकता है, वैसे ही यह बाल-साहित्यकार पर निर्भर करता है कि वह बालकों का भविष्य किस रूप में तय करता है, वह उसके माध्यम से संस्कार, समर्पण, सद्भावना और भारतीय संस्कृति के तत्व बिठा सकता है। बाल-साहित्य के इतिहास में ‘चिल्ड्रेन बुक ट्रस्ट’ का उल्लेखनीय योगदान है, इसकी स्थापना १९५७ ई. में श्री शंकर पिल्लाई ने की, जिसका उद्देश्य बच्चों को उचित सामग्री, उचित डिजाइनिंग में उपलब्ध करना है। बाल-साहित्य में डिजाईनिंग का विशेष महत्व है, यही वह तत्व है, जो सामग्री को ग्राह्य बनाता है, इसी उद्देश्य को ध्यान में रखकर सन् १९९१ में ‘शंकर आर्ट अकादमी’ की स्थापना की गई, बाल-साहित्य का सचित्र होना अनिवार्य है, इसलिए बाल-साहित्य में चित्रकारों की भूमिका बढ़ जाती है।
आधुनिक युग नव संचार का युग है। नव संचार के माध्यमों ने जीवन के सभी पहलुओं को प्रभावित किया, बाल-साहित्य भी उससे अछूता नहीं है। बच्चे दूरदर्शन व आकाशवाणी के प्रति आकृष्ट हुए, इसलिए बाल-कहानियों, नाटकों, कविताओं इत्यादि के प्रसारण की आवश्यकता बढ़ जाती है, इस पर आधारित फिल्में बनाई जाए तथा उनमें बालकों की सहभागिता सुनिश्चित की जाए।
भाषा प्रौद्योगिकी और हिंदी
आज का युग विज्ञान का युग है। विज्ञान में नित-नए अनुसंधानों एवं अविष्कारों, आरों से नये-नये शब्द हमारे समक्ष आते रहते हैं। विज्ञान और तकनीकी विषयों में प्रयुक्त होनेवाले शब्द अपने आशय में अभिधार्थ होते हैं, ऐसे शब्दों के पीछे कोई विचार या संकल्पना निहित होती है, जिससे इन शब्दों की परिभाषाएँ निश्चित कर दी जाती हैं, इनके अर्थ को एक क्षेत्र विशेष तक सीमित कर दिया जाता है तथा इनके अन्य अर्थ नहीं होते, उदाहरण के लिए ‘आयकर’ शब्द का अर्थ आमदनी पर सरकार द्वारा लिया जानेवाला कर, सरकार की अतिरिक्त आमदनी पर वसूला गया कर नहीं है, वैज्ञानिक और तकनीकी शब्दों के पीछे कोई-न-कोई संकल्पना जुड़ी रहती है, इसी संकल्पना के आधार पर इनकी परिभाषा की जाती है, इन शब्दों की परिभाषा इस रूप में की जा सकती है- ‘ऐसे शब्द जो ज्ञान-विज्ञान या विभिन्न व्यावसायिक क्षेत्रों में विशिष्ट अर्थों में प्रयुक्त होते हैं, उन्हें तकनीकी शब्द कहते हैं।
पारिभाषिक शब्दावली का संबंध किसी भाषा-भाषी समाज के सांस्कृतिक और वैचारिक विकास से होता है। सामाजिक विकास के साथ ही भाषा में नयी संकल्पनाएँ विकसित होने लगती हैं, परिणामत: इन संकल्पनाओं से संबंधित पारिभाषिक शब्दावली विकसित होने लगती है। हिंदी भाषा ने ज्यादातर पारिभाषिक, शब्दों को संस्कृत भाषा से ग्रहण किया है, किंतु आधुनिक विज्ञान-शब्दावलियाँ अंग्रेजी भाषा से ग्रहण की गई हैं।
आज विज्ञान में नये-नये अनुसंधानों से नयी शब्दावलियों के निर्माण की चुनौतियाँ हिंदी भाषा के समक्ष हैं। इन चुनौतियाँ हिंदी भाषा के चिन्तकों, विचारकों, विद्वानों आदि ने हिंदी भाषा में वैज्ञानिक और तकनीकी शब्दावली के निर्माण में सफल प्रयास किया है।
किसी भी भाषा की व्यापकता और सम्प्रेषणीयता उसकी शब्द-सम्पदा की समृद्धि से आंकी जाती है, आज के वैज्ञानिक युग में नित गए वैज्ञानिक अनुसंधानों से नये शब्दों के निर्माण की आवश्यकता निरन्तर बनी रहती है। वैज्ञानिक और तकनीकी शब्दावलियों को किसी भाषा में व्यवहृत करने, अनुदित करने और उस भाषा की प्रकृति के अनुसार समायोजित करने जैसी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। हिंदी भाषा के समक्ष आज यही चुनौतियाँ है, इन चुनौतियों को स्वीकार करते हुए हिंदी हृदय की अभिव्यक्ति के साथ मस्तिष्क की जटिलताओं तथा उन जटिलताओं से उद्भूत विज्ञान और तकनीकी सेवा है, इस समय विज्ञान और तकनीकी शब्दों के निर्माण को लेकर जो चुनौतियाँ हैं, जो संभावनाएँ हैं, उन्हीं की चर्चा सर्वप्रथम की जाएगी।
प्रथमत: वैज्ञानिक विषयों के शोध पत्रों का हिंदी अनुवाद सर्वाधिक कठिन कार्य है, इसमें से अनेक शब्द शब्दकोश में भी नहीं मिलते और वे नए होते हैं, उन्हें हिंदी में ही लिखकर संतोष करना पड़ता है, दूसरा, आज विज्ञान के ज्ञान में ज्यों-ज्यों वृद्धि होती जा रही है, नई-नई चुनौतियाँ हमारे सामने आती जा रही हैं, आज नई खोजों के कारण कुछ नए विज्ञान का भी लगातार सृजन हो रहा है, उदाहरण के लिए पर्यावरण विज्ञान से संबंधित एक शब्द होलिस्टिक का इन दिनों धड़ल्ले से प्रयोग हो रहा है। होटस्पॉट शब्द भी आज पर्यावरण का जाना-पहचाना शब्द बन चुका है, इसी प्रकार स्वास्थ्य एवं चिकित्सा विज्ञान से संबंधित अंग्रेजी के अनेक नए तकनीकी शब्दों को प्रयोग में लाया जा रहा है। रोबोट विज्ञान, सूचना प्रौद्योगिकी, नैनोटेक्नोलॉजी, जीनोगिक्स आदि नए-नए शब्द सामने आते जा रहे हैं, जिनके हिंदी पर्यायवाची शब्दों के निर्माण की नितांत आवश्यकता है।
तीसरा, वैज्ञानिक और तकनीकी शब्दों के प्रयोग में उचित शब्दों के चुनाव के लिए विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है, तकनीकी शब्द जो गणित अथवा रसायन विज्ञान या जीव विज्ञान के लिए प्रयोग किए जाते हैं, भिन्न होती हैं, एक ही शब्द सभी वैज्ञानिक विषयों के लिए उपयुक्त नहीं होता, चौथा, वैज्ञानिक और तकनीकी शब्दों के लिप्यंतरण अनुवाद और समायोजन की चुनौती भी हिंदी भाषा के समक्ष है।
उपर्युक्त वर्णित चुनौतियों के समाधान के संबंध में समय-समय पर चिन्तकों, वैज्ञानिकों और विद्वानों ने अपने विचार प्रकट किए हैं।
गाँधी जी के विचार हिंदी राष्ट्रभाषा बनें
किसी अंग्रेज़ ने किसी हिंदुस्तानी से कहा था कि जानते हो हमारा सूरज क्यों नही डूबता?
हम जिस देश में भी क़दम रखते हैं, सबसे पहिले हम उसकी जीभ नोंच लेते हैं, उस देश की लोक-जिव्हा यानी भाषा को ज़ंजीरों में जकड़ लेते हैं।
उस अंग्रेज़ मित्र का यह कथन हिंदुस्तान पर सौ-फ़ीसदी घटित हुआ। भाषा के विष- दंश से हम आज भी पीड़ित हैं, बापू ने लोक-मानस की इस गुत्थी को बड़ी गहराई से समझा-सुलझाया था।
पं. गिरिधर शर्मा का सन् १९१५ का प्रस्ताव कि ‘हिंदी को हिंदुस्तान के कोने-कोने में पहुँचा दो तो देश आजाद हो जायेगा’ उनके मन: प्राण पर छा गया। देश की अंतरात्मा को अंग्रेज़ी में पुकारा या जगाया जाए,यह तो गांधी जी के लिए कल्पनातीत था, वे भली-भाँति जानते थे कि देश की महत्ता और गौरव, देश के हिमगिरि और गंगा को लोक-भाषाओं में ही जगाया जा सकता है अन्यथा नहीं, अत: उन्होंने हिंदी के प्रचार-प्रसार को अपने जीवन का एक अविच्छिन्न अंग बना लिया।
ठीक सौ साल बाद: गांधी जी का संदेश
(महात्मा गांधी का कथन-१९१७ गुजरात-शिक्षा-परिषद्)
राष्ट्रभाषा की चार शर्तें:
अंग्रेज़ी भाषा राष्ट्र-भाषा नहीं हो सकती ;
क्योंकि राष्ट्र-भाषा होने के लिए चार बातों की आवश्यकता है जो अंग्रेज़ी में नहीं है :
१. अफ़सरों के लिए उसका सीखना सहज हो,
२. लोगों के धार्मिक, सामाजिक और राजनैतिक व्यवहार की वह भाषा हो,
३. उसे बहुत लोग बोलते हों,
४. वह कुछ दिनों के लिए राष्ट्र-भाषा न बनाई जाए,
ऐसी भाषा केवल हिंदी ही है।