प.पू.माधव गौ विज्ञान अनुसंधान संस्थान, नौगाँवा (भीलवाड़ा)

संस्थान के उद्देश्य
  • नस्ल सुधार : उत्तम नस्ल की देशी गायों की वैदिक पद्दति से सेवा कर अच्छी दुधारू गायें तैयार करना। किसानों तथा गौ पालकों को अच्छे देशी सांड उपलब्ध कराकर संपूर्ण गौवंश का स्तर सुधारना। उत्तम स्तर के बछड़ों को ही सांड के रूप में प्रयुक्त करने हेतु प्रोत्साहन तथा तुलनात्मक रूप से सामान्य स्तर के बछड़ों का प्रयोग बैल के रूप में ही करना।गौ सेवा केन्द्रों की स्थापना एवं संचालन – मेवाड़, वागड़, हाड़ौती, मगरा, मेरवाड़ा एवं मालवा क्षेत्र में गौ सेवा केन्द्रों की स्थापना करना तथा उनका व्यवस्थित संचालन करना। नस्ल सुधार हेतु गौ पालकों को आवश्यक प्रशिक्षण देना।
  • विद्युत् निर्माण : गौशाला में गोबर गैस सयंत्र से बिजली तैयार करना। बैल चलित जनरेटर द्वारा बिजली उत्पादन करना। गौ मूत्र एवं गौमय से घड़ी, रेडियो, टेपरिकॉर्डर , टेलीविजन आदि चलाना तथा विद्युत बल्ब जलाना।
  • पंचगव्य औषध निर्माण एवं प्रोत्साहन : पंचगव्य (दूध, दही, गोबर, गौमूत्र) औषधि तैयार करने हेतु रसायन शाला तैयार करना, अनुभवी आयुर्वेद चिकित्सकों के मार्गदर्शन में औषधियाँ तैयार कर समाज को आरोग्य प्रदान प्राप्त करना। पंचगव्य औषध उत्पादों के विपणन की उचित व्यवस्था करना तथा इस हेतु योग्य अभिकर्ता तैयार करना जो समाज में गौ उत्पादों के प्रति जागृति पैदा कर लोगों को इनके प्रयोग हेतु प्रेरित करें।
  • पंचगव्य चिकित्सा शिविरों का आयोजन करना: पंचगव्य औषधियों के प्रयोग के प्रति समाज में जागृति लाने हेतु गौ साहित्य का वितरण तथा ऑ डियो- विडियो कैसेट्स निर्माण, स्लाईड शो व संगोष्ठियों का आयोजन करना।
  • किसान प्रशिक्षण केन्द्र : गायो रक्षति रक्षित-गौ विज्ञान को समाज समझे तथा गौ सेवा के महत्वपूर्ण कार्य में लगे तो गाय सम्पूर्ण समाज को पोषण देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगी। किसान प्रशिक्षण केन्द्र द्वारा किसानों को गाय की नस्ल सुधार, गोबर गैस सयंत्र के उपयोग, विद्युत् निर्माण, जैविक खाद एवं कीटनाशी निर्माण, पंचगव्य औषध निर्माण हेतु जानकारी, आवश्यक प्रशिक्षण उपलब्ध करवाना एवं नवीन तकनीक द्वारा प्रदर्शन के माध्यम से उक्त कार्यों के प्रति विश्वास निर्माण करना।सप्त गौ परिक्रमा एवं सप्त नन्दी परिक्रमा की महत्ता बतला कर इस माध्यम से गाय का आध्यात्मिक एवं वैज्ञानिक रूप समाज में प्रतिस्थापन करना। गाय की आर्थिक उपयोगिता को दृश्य रूप में दिखाना – वेद वाक्य ‘‘गौमय वसते लक्ष्मी’’ को मूर्त रूप देना।
हिंदी को संवैधानिक राष्ट्रभाषा का दर्जा दिलाना मेरे जीवन का लक्ष्य
  • हिन्दी के बारे में अहिन्दी भाषी महानुभावों के विचार:- हिन्दी के द्वारा ही सारे भारत को एक सूत्र में पिरोया जा सकता है।
  • स्वामी दयानन्द (गुजराती) : अंग्रेजी में स्वतंत्र भारत की गाड़ी चले, इससे बड़ा दुर्भाग्य भारत का और नहीं हो सकता। मोहनदास करमचंद गांधी (गुजराती) : ‘हिन्दी’ अब सारे देश की राष्ट्रभाषा हो गई है, ‘हिन्दी’ भाषा का अध्ययन करने और उसकी उन्नति करने में गर्व का अनुभव होना चाहिए।
  • सरदार वल्लभभाई पटेल (गुजराती) : राष्ट्रभाषा हिन्दी किसी व्यक्ति या प्रांत की सम्पत्ति नहीं है, उस पर सारे देश का अधिकार है।
  • सरदार वल्लभभाई पटेल (गुजराती) : मैं अपनी बात अपनी भाषा में कहूँगा, जिसको गरज होगी वह सुनेगा, आप इस प्रतिज्ञा के साथ काम करेंगे तो हिन्दी का दर्जा बढ़ेगा।
  • महात्मा गांधी (गुजराती) : हिन्दी में भारत की आत्मा है, हिन्दी की वाणी में भारत बोलता है, भारतीय संस्कृति बोलती है।
  • भाई योगेन्द्र जीत (गुजराती) : राष्ट्रभाषा की जगह एक हिन्दी ही ले सकती है, कोई दूसरी भाषा नहीं।
  • महात्मा गांधी (गुजराती) : अगर स्वराज्य अंग्रेज़ी बोलने वाले भारतीयों का और उन्हीं के लिए होने वाला हो, तो नि:संदेह अंग्रेज़ी राष्ट्रभाषा होगी, लेकिन अगर स्वराज्य करोड़ों भूखों मरने वालों का, करोड़ों निरक्षरों का, निरक्षर बहिनों का, दलितों और अन्य लोगों का हो और इन सबके लिए हो तो हिन्दी ही एकमात्र राष्ट्रभाषा हो सकती है। विदेशी भाषा के माध्यम से शिक्षा की हिमायत करने वाले जनता के दुश्मन हैं। राष्ट्रभाषा के बिना राष्ट्र गूँगा है, राष्ट्रीय व्यवहार में हिन्दी को काम में लाना देश की एकता और उन्नति के लिए आवश्यक है। यदि हिन्दी बोलने में भूलें हो तो भी उनकी क़तई चिंता नहीं करनी चाहिए, भूलें करते-करते भूलों को सुधारने का अभ्यास हो जाएगा, पर भूलों की चिंता न करने की सलाह आलसी लोगों के लिए नहीं, वरन मुझ जैसे भाषा सीखने के इच्छुक अव्यवसायी सेवकों के लिए है। अपनी संस्कृति की विरासत हमें संस्कृत, हिन्दी, गुजराती इत्यादि देशी भाषाओं के द्वारा ही मिल सकती है, अंग्रेज़ी को अपनाना आत्मनाश होगा, सांस्कृतिक आत्महत्या होगी। विदेशी भाषा के माध्यम से शिक्षा की हिमायत करने वाले देश के दुश्मन है, भारतीय भाषाओं में प्रतिष्ठापन में एक-एक दिन का विलंब देश के लिए सांस्कृतिक हानि है। भाषाओं के क्षेत्र में हमारी जो स्थति है, उसे मैंने समझा है और उसके आधार पर मैं कहता हूँ कि यदि हमें अस्पृश्यता निवारण जैसे सुधार के लिए काम करना है तो हिन्दी का ज्ञान सर्वत्र आवश्यक है, क्योंकि यह एक ऐसी भाषा है जिसे हमारे देश के एक सौ तीस करोड़ लोगों में से १३० करोड़ लोग किसी न किसी रूप में बोलते ही हैं, चूँकि हम सब अपने को भारतीय कहते हैं इसलिए हमें यह कहने का अधिकार है कि भारत की एक संवैधानिक राष्ट्रभाषा ‘हिंदी’ को घोषित करना चाहिए। हिन्दी भाषा के शब्दों को अपना लेने में शर्म की कोई बात नहीं है, शर्म तो शेष पृष्ठ १८ पर… तब है, जब हम अपनी भाषा के प्रचलित शब्दों को न जानने के कारण दूसरी भाषा के शब्दों का प्रयोग करें, जैसे घर को ‘हाउस’ माता को ‘मदर’ पिता को ‘फ़ादर’ पति को ‘हसबैंड’ और पत्नि को ‘वाइफ’ कहें। जब तक इस देश का राज-काज अपनी भाषा में नहीं चलेगा, तब तक हम यह नहीं कह सकते कि देश में स्वराज्य है।
  • मोरार जी देसाई (गुजराती) : हिन्दी ही हमारे राष्ट्रीय एकीकरण का सबसे शक्तिशाली और प्रधान माध्यम है।
  • कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी (गुजराती) : तमिल सबको हिन्दी सीखनी चाहिए, इसके द्वारा भाव-विनिमय से सारे भारत को सुविधा होगी।
  • चक्रवर्ती राजगोपालाचारी-तमिल : हिन्दी का श्रृंगार, राष्ट्र के सभी भागों के लोगों ने किया है, वह हमारी राष्ट्रभाषा है।
  • चक्रवर्ती राजागोपालाचारी-तमिल : यदि भारतीय लोग कला, संस्कृति और राजनीति में एक रहना चाहते हैं तो इसका माध्यम ‘हिन्दी’ ही हो सकती है।
  • चक्रवर्ती राजगोपालाचारी-तमिल : मैं हिन्दी में भाषण देना अपनी भाषा का गौरव बढ़ाना मानता हूँ।
  • के. वेंकट रम्मैया-तमिल : अंग्रेज़ी के समर्थकों ने देश के राष्ट्रीय जीवन में एक अभेद्य दीवार खड़ी कर दी है और वे अन्य् भाषाओं की चाहे वह तमिल, तेलुगु अथवा हिन्दी उसमें घुसने नहीं दे रहे हैं।
  • के. कामराज-तमिल – हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने में प्रांतीय भाषाओं की हानि नहीं वरन लाभ है। – एक राष्ट्रभाषा से हमारी संस्कृति एक होगी और हमारा राष्ट्र दृढ़ होगा। -किसी देश में विदेशी भाषा को राजभाषा के रूप में काम में नहीं लिया जाता है। अंग्रेज़ी को सम्मान तथा राजभाषा बनाना थोथा सपना है।
  • अनंत शयनम् अयंगार : राष्ट्रीय एकता के लिए देश की सर्वमान्य भाषा के रूप में हिन्दी का पठन अनिवार्य है।
  • विश्वनाथन् सत्यनारायण -तमिल : तमिलनाडु में हिन्दी विरोध कुछ लोगों का फ़ैशन है।
  • एन.ई. मुटटुस्वामी-तमिल : राष्ट्र की एकता को यदि बनाकर रखा जा सकता है तो उसका माध्यम हिन्दी हो सकती है।
  • सुब्रह्मण्यम भारती : भाषा के क्षेत्र में घृणा का नहीं, प्रेम और सौहार्द का स्थान होना चाहिए।
  • के. एन. सुब्रह्मण्यम-तमिल : यह यथार्थता है कि हिन्दी के अलावा और कोई भाषा भारत की सम्पर्क भाषा नहीं हो सकेगी, यह यथार्थता इस मिट्टी में समाई हुई है, इसमें संदेह नहीं कि यह यथार्थता अंकुरित होगी और एक बड़ा वृक्ष बनकर पल्लवित-पुष्पित होगी, यदि हिन्दी को हमें जोड़ने वाली भाषा बनाना है, तो सरकारों को बहुत बड़ा दायित्व निभाना होगा, विविध भाषा-भाषी भारतीयों का आपसी सम्पर्क हिन्दी के माध्यम से ही हो सकता है, हिन्दी समझने वालों की संख्या भारत में शत-प्रतिशत है।
  • डॉ. जी. रामचन्द्रन : हिन्दी हमारी भावनाओं और ह्रदय को जोड़ने वाली भाषा है, प्रत्येक भारतीय को इसका ज्ञान प्राप्त करना चाहिए।
  • श्रीमती कमला रत्नम : हमें मालुम हो गया है कि राष्ट्रीय धारा में मिलकर चलने के लिए हिन्दी सीखे बिना काम नहीं चलेगा।
  • पी.के. सिंहसन- मराठी: मेरे देश में हिन्दी की इज़्ज़त न हो, यह मैं नहीं सह सकता।
  • विनोबा भावे-मराठी : अगर भारत की सोई हुई वैज्ञानिक प्रतिभाओं को जगाना है, तो विज्ञान की शिक्षा का माध्यम ‘हिन्दी’ को बनाना होगा, इसके बिना भारतीय जनता और वैज्ञानिक विचारों के बीच विद्यमान दूरी को ख़त्म नहीं किया जा सकता और ऐसी दशा में जनता से सम्पर्क स्थापित करने कि लिए जनभाषा का सहारा लेना बहुत ज़रूरी है।
  • डॉ.जयन्त विष्णु नार्लीकर (प्रख्यात वैज्ञानिक): राष्ट्र के एकीकरण के लिए सर्वमान्य भाषा से अधिक बलशाली कोई तत्व नहीं है, मेरे विचार में ‘हिन्दी’ ऐसी ही भाषा है, सरलता और शीघ्रता से सीखी जाने योग्य भाषाओं में हिन्दी सर्वोपरि है।
  • लोकमान्य तिलक: भाषा जनजीवन की चेतना का स्पंदन होती है, इसके लिए समुचित विचारों का भरपुर प्रचार आवश्यक है, हिन्दी इसका एक उत्तम माध्यम सिद्ध हो सकती है।
  • मधु दण्डवते: देवनागरी भारत के लिए वरदान है।
  • विनोबा भावे: यदि मैंने हिन्दी का सहारा न लिया होता तो कश्मीर से कन्याकुमारी तक और असम से केरल तक के गाँव-गाँव में भूदान का क्रांति संदेश जनता तक कदापि न पहुंच पाता, इसलिए मैं यह कहता हूँ कि हिन्दी भाषा का मुझ पर बड़ा उपकार है, इसने मेरी बहुत बड़ी सेवा की है, जब एक प्रांत के लोग दूसरे प्रांत के लोगों से मिलें तो परस्पर वार्तालाप हिन्दी में ही होनी चाहिए।
  • लोकमान्य तिलक : यदि भारत में सभी भाषाओं के लिए एक देवनागरी लिपि हो, तो भारतीय जनता की एकता और ज्ञान का अन्तर प्रांतीय आदान-प्रदान सुगम हो जाएगा, भारत की एकता के लिए आवश्यक है कि देश की सभी भाषाएं नागरी लिपि अपनाए।
  • विनोबा भावे : केवल अंग्रेज़ी सीखने में जितना श्रम करना पड़ता है, उतने श्रम में हिन्दुस्तान की सभी भाषाएं सीखी जा सकती है। हम सभी भारत वासियों का यह अनिवार्य कत्र्तव्य है कि हम ‘हिन्दी’ को अपनी भाषा के रूप में अपनाएं।
  • डॉ. आंबेडकर : हर एक भारतीय अपनी दो आँखों से देखेगा- एक होगी मातृभाषा, दूसरी होगी राष्ट्रभाषा हिन्दी।
  • विनोबा भावे : मैं दुनिया की सब भाषाओं की इज्जत करता हूँ, परन्तु मेरे देश में हिन्दी की इज्जत न हो, यह मैं नहीं मान सकता।
  • विनोबा भावे : हिन्दी एक संगठित करने वाली शक्ति है, हिन्दी का प्रचार कार्य एक वाग्यज्ञ है।
  • काका कालेलकर : स्वभाषा और राष्ट्रभाषा के द्वारा ही समाज में परिवर्तन और सामाजिक क्रांति संभव है।
  • विष्णु वामन शिरवाड़कर ‘कुसुमाग्रज’ : भाषा सक्षम होती जाती है, उसे उपयोग में लाने से, संसार में एक भी उदाहरण ऐसा नहीं है, जहाँ भाषा को पहले सब कामों के लिए पूर्णत: तैयार कर लिया गया हो और उसके बाद उसका शासन कार्य में उपयोग किया गया हो।
  • श्री गोपाल राव एकबोटे : आजकल सरल हिन्दी के संबंध में काफ़ी चर्चा हो रही है और इस संबंध में जनसाधारण में और शिक्षित समाज में भी काफ़ी मतभेद है, उत्तर में जिस भाषा को सरल या आसान समझा जाता है, वह दक्षिण में पढ़े-लिखे आदमी के लिए दुर्बोध बन दात्री है। संस्कृत निष्ठ भाषा समझने में किसी को सुविधा होती है तो किसी को उर्दू के रोजमर्रे की ताजगी में अधिक आनंद आता है, प्रत्येक व्यक्ति का अपना पर्यावरण होता है, भाषा भी पर्यावरण का एक अंग है। अपनी मातृभाषा के जिस पर्यावरण में एक व्यक्ति पलता है, उसी को लेकर वह दूसरी भाषा के क्षेत्र में भी प्रवेश करता है।
  • डॉ. पांडुरंग राव : मैं राष्ट्र प्रेमी हूँ, इसलिए सब राष्ट्रीय चीज़ों का, सब राष्ट्र वासियों का प्रेमी हूँ तथा राष्ट्रभाषा का भी। राष्ट्रभाषा का प्रेम, राष्ट्र का प्रेम, राष्ट्र के अंतर्गत भिन्न-भिन्न लोगों का प्रेम और राष्ट्रभाषा का प्रेम-इसमें कुछ फ़र्क नहीं देखता हूँ, जो राष्ट्रप्रेमी है उसे राष्ट्रभाषा प्रेमी होना ही चाहिए, नहीं तो कुछ हद तक राष्ट्रप्रेम अधूरा ही रहेगा।
  • रंगराव दिवाकर : थोड़े से अभ्यास से विज्ञान पर एक सीमा तक हिन्दी में अच्छी तरह लिखा और बोला जा सकता है, क्योंकि जनता से सम्पर्क स्थापित करने के लिए जनभाषा का सहारा बहुत ज़रूरी है।
  • डॉ. जयंत नार्लीकर: हिन्दी बोलो, हिन्दी लिखो, हिन्दी पढ़ो-पढ़ाओ रे। राष्ट्रभाषा हिन्दी के गौरव, गीत सदा ही गाओ रे।
  • रमेश भावसार ‘ऋषि’ कन्नड़ :-हिन्दी के बिना भारत की राष्ट्रीयता की बात करना व्यर्थ है।
  • वी. वी. गिरि (भू.पू. राष्ट्रपति) : राष्ट्रभाषा घोषित होने के तत्काल बाद यदि हिन्दी भाषी प्रदेश हिन्दी का प्रयोग करने लग जाते, तो आज एक नई पीढ़ी का निर्माण हो जाता।
  • के.हनुमंतैया : मैसूर, केरल तथा आंध्रप्रदेश ने हिन्दी को सम्पर्क भाषा के रूप में स्वीकार कर लिया है।
  • एस. निजलिंगप्पा (पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष) : इसमें संदेह नहीं कि राष्ट्रीय एकता में हिन्दी का महत्वपूर्ण स्थान है। भारत विभिन्न धर्मों एवं भाषाओं का अखाड़ा है, किसी भी समय यहाँ मज़हब, भाषा या किसी अन्य भेद के कारण ज्वालाएँ फूट सकती है, इन सबक़ो यदि हम राष्ट्रीय भावात्मक एकता के सूत्र से बाँधकर भारत रूपी माला में नहीं गूँथेंगे तो ये धर्म, ये भाषाएं और ये लोग बिखर-बिखर जायेंगे, इन सबको हम आज किसी एक मज़हब के नीचे नहीं ला सकते, किसी एक दल का नहीं बना सकते, इन सबको सवा सौ करोड़ मणियों की माला के रूप में हम सम्पर्क भाषा हिन्दी के सूत्र के द्वारा ही रूपायित कर सकते हैं, वरना तेलुगुभाषी, कन्नड़ भाषियों से सम्पर्क स्थापित नहीं कर सकता। बंगाली-पंजाबियों से हटकर रहेगा, यह राष्ट्र, राष्ट्र नहीं रह कर प्रांतों का एकता विहीन एक भूखण्ड मात्र रहेगा, राष्ट्र की आत्मा व्यथित, राष्ट्र का मन दु:खित एवं राष्ट्र की एकता लुप्त प्राय: हो जाएगी।
  • डॉ. सरगु कृष्णमूर्ति : उत्तर और दक्षिण भारत का सेतु हिन्दी ही हो सकती है।
  • प्रोफ़ेसर चन्द्रहासन बांग्ला:- देश के सबसे बड़े भू-भाग में बोली जाने वाली हिन्दी ही राष्ट्रभाषा की अधिकारी है।
  • सुभाषचंद्र बोस : प्रांतीय ईष्र्या, द्वेष दूर करने में जितनी सहायता ‘हिन्दी’ प्रचार से मिलेगी उतनी किसी दूसरी चीज़ से नहीं।
  • सुभाषचंद्र बोस : आधुनिक भारत की संस्कृति एक विकसित शतदल कमल के समान है, जिसका एक-एक दल प्रांतीय भाषा और उसकी साहित्य-संस्कृति है, किसी एक को मिटा देने से उस कमल की शोभा ही नष्ट हो जाएगी, हम चाहते हैं कि भारत की सब प्रांतीय बोलियाँ जिनमें सुन्दर साहित्य सृष्टि हुई है, अपने-अपने घर (प्रांत में) रानी बनकर रहे, प्रांत के जन-गण को हार्दिक चिंतन की प्रकाश भूमि-स्वरूप कविता की भाषा होकर रहे और आधुनिक भाषाओं के हार की मध्यमणि ‘हिन्दी’ भारत-भारती होकर विराजती रहे।
  • गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर : हिन्दी विश्व की सरलतम भाषाओं में से एक है।
  • क्षितिज मोहन सेन : भारत के विभिन्न प्रदेशों के बीच हिन्दी प्रचार के द्वारा एकता स्थापित करने वाले लोग सच्चे भारत बंधु हैं।
  • महर्षि अरविंद : हिन्दी भाषा के द्वारा भारत के अधिकांश स्थानों का मंगल साधन करें।
  • बंकिमचन्द्र चटर्जी : उस भाषा को राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए जो देश के सबसे बड़े हिस्से में बोली जाती हो, अर्थात् हिन्दी।
  • रवीन्द्रनाथ ठाकुर : हिन्दी समस्त आर्यावर्त (भारत) की भाषा है, यद्यपि मैं बंगाली हूँ तथापि मेरे दफ़्तर की भाषा हिन्दी है, इस वृद्धावस्था में मेरे लिए वह गौरव का दिन होगा, जिस दिन में हिन्दी स्वच्छंदता से बोलने लगूँगा, उसी दिन मेरा जीवन सफल होगा, जिस दिन सारे भारतवासियों के साथ हिन्दी में वार्तालाप करूँगा।
  • न्यायाधीश शारदा चरण मित्र : राष्ट्रीय कार्य के लिए हिन्दी आवश्यक है, इस भाषा से देश की उन्नति होगी।
  • गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर : हिन्दी भाषा को भारतीय जनता तथा मानवता के लिए बहुत बड़ा उत्तरदायित्व संभालना है।
  • डॉ. सुनीतिकुमार चटर्जी : जो सज्जन हिन्दी भाषा द्वारा भारत में एकता पैदा करना चाहते हैं, वे निश्चय ही भारत बंधु हैं, हम सब को संगठित होकर इस ध्येय की प्राप्ति के लिए प्रयास करना चाहिए, भले ही इसको पाने में समय लगे, परंतु हमें सफलता अवश्य मिलेगी।
  • बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय : भारतीय भाषाएं नदियाँ हैं और हिन्दी महानदी।
  • रवीन्द्रनाथ ठाकुर : अब भारत में एक लिपि के व्यवहार एवम् उसके आसेतु हिमालय प्रसार का समय आ गया है और वह लिपि देवनागरी के अतिरिक्त दूसरी कोई नहीं हो सकती।
  • न्यायमूर्ति शारदाचरण मित्र: सब लोग अपनी-अपनी मातृभाषा की रक्षा करते हुए हिन्दी को साधारण भाषा के रूप में पढ़ें।
  • महर्षि अरविन्द घोष : अंग्रेज़ी के विषय में लोगों की जो कुछ भी भावना हो, पर मैं यह दावे के साथ कह सकता हूँ कि हिन्दी के बिना हमारा कार्य नहीं चल सकता। हिन्दी की पुस्तकें लिखकर और हिन्दी बोलकर भारत के अधिकांश भाग को निश्चय ही लाभ हो सकता है, यदि हम देश में बंगला और अंग्रेज़ी जानने वालों की संख्या का पता चलाएँ, तो हमें साफ़ प्रकट हो जायेगा कि वह कितनी न्यून है, जो सज्जन हिन्दी भाषा द्वारा भारत में एकता पैदा करना चाहते हैं, वे निश्चय ही भारत बंधु हैं, हम सबको संगठित होकर इस ध्येय की प्राप्ति के लिए प्रयास करना चाहिए, भले ही इसको पाने में अधिक समय लगे, परंतु हमें सफलता अवश्य मिलेगी।
  • बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय : यदि भारत की किसी भाषा को सर्वसाधारण की भाषा माना जाये तो वह हिन्दी है। बंगाली मैगज़ीन, सन, १८७४ हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए अनेक अनुष्ठान हुए, उनको मैं राजसूर्य यज्ञ मानता हूँ।
  • आचार्य क्षितिजमोहन सेन : तेलुगु :- हिन्दी को हम सब एक भाषा के रूप में नहीं, अपितु एक सेतु के रूप में देखते हैं।
  • पी. वी. नरसिंहराव (पू. प्रधानमंत्री) : किसी प्रांत विशेष की भाषा होने से हिन्दी राष्ट्रभाषा नहीं मान ली गयी, बल्कि इसलिए मानी गई है कि वह अपनी सरलता, काव्यमयता और क्षमता के कारण सारे देश की भाषा हो सकती है।
  • डॉ. मोटूरी सत्यनारायण : हिन्दी के विकास में दो क्षेत्रों से मदद प्राप्त होना अनिवार्य है-हिन्दी क्षेत्र तथा अहिन्दी क्षेत्र। राष्ट्रभाषा के आंदोलन में सबसे बड़ी और विकट समस्या क्षेत्रीय हिन्दी तथा क्षेत्रीय भाषाओं का समन्वय है। पारस्परिक सहानुभूति और सहनशीलता के बिना यह समन्वय प्राप्त नहीं हो सकता। अत: हिन्दी तथा प्रादेशिक भाषाओं की वृद्धि तथा समृद्धि एक साथ होने में ही राष्ट्रीय हिन्दी का विकास निहित है। जो हिन्दी अपनायेगा वही आगे चलकर अखिल भारतीय सेवा में जा सकेगा और देश का नेतृत्व भी वही कर सकेगा, जो हिन्दी जानता होगा।

(क्रमश:) 

– निर्मलकुमार पाटोदी,
इन्दौर, मध्य प्रदेश
सम्पर्क :०७८६९९१७०७०

     

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