भारतीय संस्कृतिवाहिनी भाषा
प्राचीन काल में दुनिया में एकमेव भारतीय संस्कृति थी और वह विश्वव्यापी थी। हमारे सभी प्राचीन ग्रंथ, वेद, ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद, पुराण, रामायण, महाभारत में आर्य का अर्थ था भद्र, सभ्य, सुसंस्कृत इसलिए हमारे पूर्वजों ने लक्ष्य रखा ‘‘कृष्णवन्तो विश्वमार्यम’’ अर्थात सारी दुनिया को आर्य बनाएंगे, श्रेष्ठ बनाएंगे सभ्य और सुसंस्कृत बनाएंगे। दुनिया की प्रथम सभ्यता का उदय यहीं पर हुआ और यहीं से सारी दुनिया में भारतीय संस्कृति का संचार हुआ। सामान्यत: प्राचीन काल से सभ्यताओं का विकास नदियों के किनारे हुआ, हम देखते हैं कि सरस्वती, सिंधु, गंगा, दजला (ट्रायग्रीस) फरात, (यूक्रेटिस) नील, हवांग आदि के किनारे सभ्यताएं विकसित हुईं इन विकसित सभ्यताओं का गहराई से अध्ययन किया जाए तो इनके दार्शनिक विचार, सृष्टि कथाएं, देवता, मान्यताएं, भाषासाम्य, पुरातत्व सामग्री आदि में साम्यता दिखाई देती है इस साम्य का कारण क्या है इसका उत्तर देते हुए प्रख्यात मार्क्सवादी समालोचक डॉ रामविलास शर्मा कहते हैं -‘‘दुनिया की किसी कथा, देवता, भाषा साम्य के मूल को खोजने जाएंगे तो अंत में ऋग्वेद की शरण में आना ही पड़ेगा।’’ ऋग्वेद के नारदीय सूक्त में सृष्टि के पूर्व की स्थिति, सृष्टि के प्रारंभ का जो वर्णन है उसकी छाया दुनिया की अन्य सभ्यताओं में भी दिखाई देती है ऋगवेद ने कहा ‘
प्राचीन काल में दुनिया में एकमेव भारतीय संस्कृति थी और वह विश्वव्यापी थी। हमारे सभी प्राचीन ग्रंथ, वेद, ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद, पुराण, रामायण, महाभारत में आर्य का अर्थ था भद्र, सभ्य, सुसंस्कृत इसलिए हमारे पूर्वजों ने लक्ष्य रखा ‘‘कृष्णवन्तो विश्वमार्यम’’ अर्थात सारी दुनिया को आर्य बनाएंगे, श्रेष्ठ बनाएंगे सभ्य और सुसंस्कृत बनाएंगे। दुनिया की प्रथम सभ्यता का उदय यहीं पर हुआ और यहीं से सारी दुनिया में भारतीय संस्कृति का संचार हुआ। सामान्यत: प्राचीन काल से सभ्यताओं का विकास नदियों के किनारे हुआ, हम देखते हैं कि सरस्वती, सिंधु, गंगा, दजला (ट्रायग्रीस) फरात, (यूक्रेटिस) नील, हवांग आदि के किनारे सभ्यताएं विकसित हुईं इन विकसित सभ्यताओं का गहराई से अध्ययन किया जाए तो इनके दार्शनिक विचार, सृष्टि कथाएं, देवता, मान्यताएं, भाषासाम्य, पुरातत्व सामग्री आदि में साम्यता दिखाई देती है इस साम्य का कारण क्या है इसका उत्तर देते हुए प्रख्यात मार्क्सवादी समालोचक डॉ रामविलास शर्मा कहते हैं -‘‘दुनिया की किसी कथा, देवता, भाषा साम्य के मूल को खोजने जाएंगे तो अंत में ऋग्वेद की शरण में आना ही पड़ेगा।’’ ऋग्वेद के नारदीय सूक्त में सृष्टि के पूर्व की स्थिति, सृष्टि के प्रारंभ का जो वर्णन है उसकी छाया दुनिया की अन्य सभ्यताओं में भी दिखाई देती है ऋगवेद ने कहा ‘तब ना सत था न असत था, न दिन था न रात थी, न पृथ्वी थी न अंतरिक्ष, न मृत्यु न अमरत्व, जब अंधकार से अंधकार ढका था, तब वह एकमेव स्पंदन रहित तत्व था। उसके मन में बहुत होने की इच्छा हुई और सृष्टि का प्रारंभ हो गया। भारतीय संस्कृति विश्व की प्राचीनतम संस्कृतियों में से एक है जहां उसके साथ में यूनान और रोम की प्राचीन संस्कृति पुरातत्व का विषय बन कर रह गई है वहीं भारतीय संस्कृति परंपरा सजीव रूप से प्रवाहित होती जा रही है जैसा कि हमारी भारतीय संस्कृति के लिए शायर इकबाल ने कहा‘‘यूनान मिश्र रोमा सब मिट गए जहां से कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी’’ इसके दो कारण हैं एक तो हमारे प्राचीन ऋषियों ने वेदों के पठन-पाठन की मौखिक गुरु-शिष्य परम्परा चलाई, जिससे पराधीनता की अवधि में हमारे धर्म शास्त्रों के नष्ट किये जाने पर भी वह चलती रही। पिछले वर्षों में जिन्होंने बदलती हुई परिस्थितियों के अनुकूल भारतीय संस्कृति के मूल तत्वों को हमेशा प्रासंगिक बनाए रखा वे थे- तुलसी, मीरा, कबीर, रामानुजाचार्य, वल्लभाचार्य, चैतन्य महाप्रभु, शंकराचार्य, महर्षि रमण, स्वामी दयानंद, रामकृष्ण परमहंस, स्वामी रामतीर्थ, विवेकानंद, महर्षि अरविंद आदि, जिसके परिणाम स्वरुप हमारी संस्कृति का नाम ‘सनातन संस्कृति’ रखा गया। संस्कृति, भाषा और साहित्य तीनों की पहचान संप्रेषण की अलग-अलग
विधाओं के रूप में तो है ही लेकिन समाज के, जीवन के संचालन में तीनों का विशेष महत्व है। भाषा और संस्कृति के संबंध अन्योन्याश्रित है आज भाषा विचार-विनिमय और भावों की अभिव्यक्ति का माध्यम मात्र नहीं है वह समाज की ज्ञान परंपरा तथा संस्कृति के संवाहक होने के साथ-साथ सामाजिक अनिवार्यता भी है। भाषाओं के विकास, समन्वय, संघर्ष, सांस्कृतिक और राजनीतिक आधिपत्य की अभिव्यक्ति है इसमें आंचलिक संचित ज्ञान राष्ट्रीय स्वाभिमान और मानवीयता से जुड़े मूल्य समाहित होते हैं, समाजशास्त्री स्वीकार करते हैं कि हर भाषा की ताकत उसकी शब्द संपदा और अभिव्यक्ति की गहराई के साथ उसके बोलने वाले समाज की राजनीतिक, आर्थिक और सामरिक क्षमता से तय होती है। पाली, प्राकृत, संस्कृत, ग्रीक या लैटिन जैसी समृद्ध भाषाएं केवल इतिहास में शेष हैं लेकिन चीनी,अरबी, हिब्रू या ढाई सौ वर्षों से भारत पर राज कर रही Dांग्रेजी, शक्ति की प्रतीक भाषा बन गई है। भारत में भारतीय भाषाओं को पीछे धकेल कर अंग्रेजी साधन नहीं साध्य बन चुकी है, पर मातृभाषा के साथ साहित्य-सृजन का रिश्ता तो बना हुआ है। भाषा के रूप में मनुष्य की संस्कृति बोलती है। भाषाएं भारतीय हों अथवा पाश्चात्य उन के माध्यम से देशकाल और समाज का चरित्र मुखर होता है। एक भूखंड की, एक राष्ट्र की संस्कृति बोलती है, चाहे संस्कृत हो अथवा प्राकृत, भारतीय भाषाएं युगों-युगों से हमारी भारतीय कौम का एक सांस्कृतिक चरित्र बनाती आ रही हैं, इस सनातन दायित्व के निर्वहन में हमारी प्रादेशिक भाषाएं तमिल, तेलुगु, कन्नड़, अवधी, भोजपुरी, मलयालम, मराठी, गुजराती, सिंधी आदि भी शामिल है, हिंदी, उर्दू, पंजाबी, उड़िया, ब्रज, डोगरी और राजस्थानी आदि प्रत्येक भाषा और उपभाषा ने अपने माध्यम से भारतीयता के एक सांस्कृतिक चरित्र और राष्ट्रीयता को धारण और मुखर किया है, भारत ही नहीं सारी दुनिया को भाषा का पाठ पढ़ाया, दुनिया की सभी भाषाओं के मूल में भारतीय भाषा है और संस्कृत से ही सभी भाषाओं का जन्म हुआ यह तथ्य केवल कल्पना नहीं सत्य पर आधारित है। दुनिया की प्राचीनतम भाषाओं में जेंद और लैटिन का नाम आता है। जेंद से अरबी फारसी और लैटिन से अंग्रेजी आदि भाषाओं का जन्म हुआ।