‘एक ईंट-एक रुपये’ की भावना
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महाराज अग्रसेन अपने युग की एक महान विभूति थे, वे एक कुशल राजनीतिज्ञ थे, पराक्रमी योद्धा थे और प्रजा के हितकारी सह्रदय राजा थे। अपनी प्रजा एवं राज्य की सुरक्षा के लिये उन्होंने सुरक्षित अग्रोहा नगर बसाया, सुदृढ़ कोट से घिरा नगर, जिसमें करीब सवा लाख से भी अधिक घरों की बस्ती थी, उनके सबल हाथोें में प्रजा सुरक्षित थी, इसीलिए नागरिक निश्चिन्त होकर अपने काम-धन्धे में लगे रहते थे। अग्रोहा’ पूर्णत: वैश्य-राज्य था, व्यापारियों, किसानों, कर्मकारों, शिल्पकारों और उद्योग-धन्धे करने वालों का राज्य। वैश्य होते हुए भी महाराज अग्रसेन क्षत्रियों से भी अधिक कुशलता से शासन का संचालन करते थे। राज्य दिनों-दिन फल-फूल रहा था। नये-नये उद्योग-धन्धे पनप रहे थे। व्यापार-व्यवसाय उत्तरोत्तर उन्नति कर रहे थे। देश-विदेश में मधुर राजनयिक तथा व्यावसायिक सम्बन्ध स्थापित होते जा रहे थे। दशों दिशाओं से धन-वैभव, सुख-सम्पदा उनके राज्य में बरस रहे थे।
अग्रोहा’ दिन दूनी और रात चौगुनी समृद्धि की ओर बढ़ता ही जा रहा था।
अग्रोहा के वैभव और महाराज अग्रसेन की महानता की चर्चा चारों ओर पैâल चुकी थी, अन्य राज्यों में बसे वैश्यगण भी इस राज्य की ओर आकर्षित होने लगे, जो सम्पन्न वैश्य अपने को किसी कारणवश कहीं असुरक्षित समझते थे, वे अग्रोहा में आकर बसने लगे।
अन्य राज्यों से उपेक्षित तथा विपन्न वैश्य भी आश्रय पाने के लिए यहाँ आने लगे। वैश्य-नगरी अग्रोहा का विस्तार बढ़ता गया और महाराज अग्रसेन का यश दूर-सुदूर तक पैâलता गया।
अग्रोहा में इस प्रकार प्रतिदिन आने वाले वैश्यों के कारण राज्य के सामने उनके पुनर्वास की समस्या खड़ी हो गई। धनवान वैश्यों के सम्बन्ध में तो कोई विशेष अड़चन नहीं थी, उनके आवास के लिए भूमि राज्य की ओर से उपलब्ध करा दी गई। सम्पन्न लोग उस पर अपना भवन बनाकर बस गये तथा उद्योग-व्यवसाय में लग गये, परन्तु निर्धनों की समस्या विकट थी, वे स्वयं विपन्न और असहाय थे, उनके आवास और व्यवसाय का प्रबन्ध आवश्यक था, ऐसा न करने पर राज्य में अव्यवस्था व अराजकता पैâलने का डर था।
सह्रदय महाराज ऐसे लोगों के राज्य में प्रवेश पर प्रतिबन्ध भी नहीं लगाना चाहते थे पर दु:ख कातर थे महाराज अग्रसेन! वे ऐसे असहायों को शरण तथा आश्रय देना अपना प्रथम कर्त्तव्य एवं परम धर्म मानते थे, अत:लोग आते रहे। राज्य-कोष से उन्हें बसाने तथा धन्धे पर लगाने की व्यवस्था की जाती रही। यह क्रम चलता रहा, परन्तु कब तक? आने वालों की कोई सीमा नहीं थी। धीरे-धीरे राज्य-कोष कम होने लगा, राज्य की आर्थिक स्थिति क्षीण होने लगी।
मन्त्री-परिषद इस स्थिति से चिन्तित थी। राज्य-कोष निरन्तर घट रहा था।
स्थिति यहाँ तक पहुँच गयी थी कि राज्य के आवश्यक कार्यों के लिए भी धन की कमी अनुभव होने लगी। आखिर मन्त्री- परिषद ने यह निर्णय ले ही लिया कि बाहरी लोगों को बसाने के लिए राज्य-कोष से अब और व्यय नहीं किया जा सकेगा, महाराज को इस निर्णय से बड़ा दु:ख हुआ।
असहाय लोगों को सहायता न मिलने से उनका कोमल ह्रदय व्यथित रहने लगा। राज्यकोष की भी स्थिति दयनीय थी, वे उस पर बलात् और अधिक भार डाल भी नहीं सकते थे, वे उदास तथा चिन्तित रहने लगे।
महाराजा सदा इसी विकट समस्या का समाधान ढूँढने में लगे रहते और रात-दिन वे इसी पर विचार करते रहते थे। विद्वानों-मनीषियों से सलाह मशवरा करते, परन्तु कोई हल नहीं निकल रहा था। व्यथा और चिन्ता से उनका स्वास्थ्य गिरने लगा। एक दिन दु:खी मन से ही महाराज, नगर की स्थिति देखने के लिए निकल पड़े। घूमते-घूमते वे उधर भी गये जिधर बाहर से आये गरीब वैश्यों का शिविर लगा हुआ था, उनका कष्ट देख महाराज का ह्रदय द्रवित हो उठा। वे रो पड़े उसी समय उन्होंने देखा कि एक परिवार के सदस्य भोजन करने बैठे ही थे कि उनके यहाँ पर अतिथि आ गया।
घर में और भोजन नहीं था पर अतिथि को भूखा नहीं रखा जा सकता था। समस्या खड़ी हो गई, परन्तु परिवार वालों ने इसका हल सहज ही निकाल लिया, सभी सदस्यों ने अपने-अपने भोजन में से थोड़ा-थोड़ा निकाल कर अतिथि के लिये भोजन की व्यवस्था कर दी। अतिथि की भरपेट सेवा हो गई और परिवार का कोई सदस्य भी भूखा नहीं रहा। महाराज के मस्तिष्क में सहसा बिजली कौंध गई। अंधेरा छँट गया, जगमग प्रकाश से मन द्युतिमान हो उठा, उन्हें अपनी समस्या का हल मिल गया, वे बड़े प्रसन्नचित हो अपने महल में लौट आये, दूसरे दिन उन्होंने मन्त्री-परिषद तथा नगर के गण्यमान्य महाजनों की बैठक बुलाई, उसमें उन्होंने अपने विचार रखे, उन्होंने प्रस्ताव रखा- ‘‘अग्रोहा के प्रत्येक घर से-बाहर से, आने वाले प्रत्येक परिवार को एक रूपया और एक ईंट’ का उपहार दिया जाना चाहिए, इससे हमारे नागरिकों पर कोई विशेष भार नहीं पड़ेगा और बाहर से आने वाला परिवार इस सहायता से सम्पन्न हो जाएगा, इस प्रकार हमारे राज्य में बाहर से आने वालों की समस्या हल हो जाएगी। राज्य में अराजकता भी नहीं पैâलेगी। असमानता, ऊँच-नीच तथा छोटे-बड़े के विघटनकारी विचार नहीं पनप सकेंगे। भाईचारा बढ़ेगा तथा समाज और देश, सदा एकता के मजबूत सूत्र में बन्धे रहेंगे। महाराज का प्रस्ताव तथा छोटा सा भाषण, मन्त्री-परिषद व सम्भ्रान्त नागरिकों ने सुना, उन्हें अपने महाराज के विचारों पर गर्व हुआ। समस्या का इतना सरल समाधान पाकर वे सभी हर्षित हो गये। महाराज का प्रस्ताव सभी ने सर्व-सम्मति से यथारूप में स्वीकार कर लिया। नागरिकों ने कहा- ‘‘महाराज, वैसे भी हम नित्य ही अपने इन गरीब भाइयों को कुछ न कुछ तो देते ही हैं परन्तु वह उनके लिए ठोस सहायता नहीं होती है, इससे उनका मनोबल तो गिरता ही है, उनमें हीन-भावना भी जागृत होती है, आपके प्रस्ताव से हम अपने इन गरीब भाइयों की स्थाई सहायता करने में सफल हो सकेंगे, इस ठोस मदद से वे भी अपने पाँवों पर आप खड़े हो सकेंगे और हमेशा के लिये वे किसी पर आश्रित नहीं रहेंगे, उनमें नए आत्मविश्वास की जागृति होगी और वे भी हमारी ही तरह साधन-सम्पन्न होकर नए उद्योग-व्यवसाय में लगेंगे तो राज्यकोष में भी वृद्धि करेंगे, इस प्रकार हमारा स्वदेश भी समृद्ध तथा सम्पन्न हो जाएगा, महाराज! हम आपके इस अनुपम सुझाव के बड़े आभारी हैं, हम इसी समय से इस सुझाव को कार्य में परिणत करने में जुट जाते हैं’’ निर्णय हो गया। समस्या के सहज समाधान ने सबको प्रसन्न कर दिया, खुशी-खुशी सभी लोग कार्य में जुट गये। राज्य की ओर से उचित आवासीय भूमि की व्यवस्था कर दी गई, नागरिकों ने आये हुए, प्रत्येक परिवार को प्रत्येक घर से ‘एक-एक रूपया तथा एक-एक ईंट’ इकट्ठे करके दे दिए, सभी विस्थापितों का पुनर्वास हो गया, वे भी सभी सम्पन्न हो गये, अपने निजी व्यवसाय में जुट गये और महाराज अग्रसेनजी की प्रशस्ति के गीत गाने लगे, इसके बाद से अग्रोहा में यह परम्परा चल पड़ी। बाहर से आकर बसने वाले किसी भी परिवार को प्रत्येक घर से ‘एक रूपया व एक ईंट’ का उपहार मिलता तो अग्रोहा में आते ही कंगाल भी अमीर बन जाता और वह उम्र-भर अग्रोहा तथा अग्रसेन के गुण गाता था। विश्व में समाजवाद का पहला पाठ पढ़ाने वाले अग्रसेन महाराज अग्रवालों के आदिपुरूष माने जाते हैं, उनके नाम से आज भीr प्रतिवर्ष आश्विन शुक्ला प्रथमा को श्री अग्रसेन-जयन्ती, देश-भर में बड़ी धूम-धाम से मनाई जाती है। महाराजा अग्रसेन जयन्ति पर्व पर
मैं भारत हूँ’ के प्रबुद्ध पाठकों व समस्त अग्र बंधुओं को मेरी तरफ से कोटि-कोटि शुभकामनायें।
-बिजय कुमार जैन ‘हिंदी सेवी’
राष्ट्रीय अध्यक्ष-मैं भारत हूँ फाउंडेशन