भारतीय शिक्षा का सर्वनाश

मुल पुस्तक से (भारत में अंग्रेजी राज)
  • अंग्रेजों से पहले भारत में शिक्षा की अवस्था अंग्रेजों के आने से पहले सार्वजनिक शिक्षा और विद्या प्रचार की दृष्टि से भारत संसार के अग्रतम देशों में गिना जाता था। १९वीं सदी के शुरू में और उसके कुछ बाद तक भी युरोप के किसी देश में शिक्षा का प्रचार इतनाा अधिक न था जितना भारतवर्ष में, और न कहीं भी प्रतिशत आबादी के हिसाब से पढ़े-लिखों की तादाद इतनी अधिक थी जितनी भारत में, उन दिनों यहाँ जनसामान्य को शिक्षा देने के लिए मुख्यकर चार तरह की संस्थाएँ थी|लाखों ब्राह्मण अध्यापक अपने-अपने घरों पर विद्यार्थियों को रख कर शिक्षा देते थे।सब मुख्य-मुख्य नगरों में उच्च संस्कृत शिक्षा के लिए ‘टोल’ या ‘विद्यापीठकायम थीं।उर्दू और फारसी की शिक्षा के लिए जगह-जगह मकतब और मदरसे थे, जिनमें लाखों हिन्दू और मुसलमान विद्यार्थी साथ-साथ शिक्षा पाते थे। इन सबके अतिरिक्त देश के हर छोटे से छोटे गाँव में, गाँव के बालकों की शिक्षा के लिए कम से कम एक पाठशाला होती थी। ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने आकर भारत की हजारों साल पुरानी ग्राम पंचायतों को नष्ट नहीं कर डाला उस समय तक गाँव के सब बच्चों की शिक्षा का प्रबन्ध करना हर ग्राम पंचायत अपना आवश्यक कर्तव्य समझती थी और सदैव उसका पालन करती थी।
  • इंगलिस्तान की पार्लियामेण्ट के प्रसिद्ध सदस्य केर हार्डी ने अपनी पुस्तक ‘इण्डिया’में लिखा है-‘‘मैक्समूलर ने, सरकारी लेखों के आधार पर और एक मिशनरी रिपोर्ट के आधार पर जो बंगाल पर अंगरेजों का कब्जा होने से पहले वहाँ की शिक्षा की अवस्था के सम्बन्ध में लिखी गई थी, लिखा है कि उस समय बंगाल में ८०,००० देशी पाठशालाएँ थीं, यानी सूबे की कुल आबादी के हर चार सौ मनुष्यों के पीछे एक पाठशाला मौजूद थी, इतिहास लेखक लडलो अपने ‘ब्रिटिश भारत के इतिहास’ में लिखता है कि– ‘हर ऐसे हिन्दू गाँव में, जिसका पुराना संगठन अभी तक कायम है, मुझे विश्वास है कि आम तौर पर सब बच्चे लिखना पढ़ना और हिसाब करना जानते हैं, किन्तु जहाँ कहीं हमने ग्राम पंचायत का नाश कर दिया है, जैसे बंगाल में, वहाँ ग्राम पंचायत के साथसाथ गाँव की पाठशाला भी लोप हो गई है।’’ प्राचीन भारतीय इतिहास के यूरोपियन विद्वानों में मैक्समूलर प्रामाणिक माना जाता है और लडलो भी एक प्रसिद्ध इतिहास लेखक था, जो बात जर्मन मैक्समूलर ने बंगाल के बारे में कही है उसी का समर्थन अंगरेज लडलो ने सारे भारत के लिए किया|
  • प्राचीन भारत में शिक्षा का प्रचार : प्राचीन भारत के ग्रामवासियों की शिक्षा के सम्बन्ध में सन् १८२३ की कम्पनी की एक सरकारी रिपोर्ट में लिखा है- ‘‘ शिक्षा की दृष्टि से संसार के किसी भी दूसरे क्षेत्र में किसानों की हालत इतनी ऊँची नहीं है जितनी ब्रिटिश भारत के अनेक भागों में।’’ यह दशा तो उस समय शिक्षा के फैलाव की थी, अब रही शिक्षा देने की प्रणाली, इतिहास से पता चलता है कि उन्नीसवीं सदी के शुरू में डॉक्टर एण्ड्रूबेल नामक एक प्रसिद्ध अंगरेज शिक्षा प्रेमी ने इस देश से इंगलिस्तान जाकर वहाँ पर अपने देश के बालकों को भारत की प्रणाली के अनुसार शिक्षा देना शुरू किया। ३ जून, सन् १८१४ को कम्पनी के डाइरेक्टरों ने बंगाल के गवरनर जनरल के नाम एक पत्र भेजा, जिसमें लिखा है- ‘‘शिक्षा का जो तरीका बहुत पुराने समय से भारत में वहाँ के आचार्यों के अधीन जारी है उसकी तारीफ यही है कि रेवरेण्ड डॉक्टर बेल के अधीन, जो मदरसा में पादरी रह चुका है, वही तरीका इस देश (इंगलिस्तान) में भी प्रचलित किया गया है, अब हमारी राष्ट्रीय संस्थाओं में इसी तरीके के अनुसार शिक्षा दी जाती है, क्योंकि हमें विश्वास है कि इससे भाषा का सिखाना बहुत सुगम हो जाता है। ‘‘कहा जाता है कि हिन्दुओं की इस अत्यन्त प्राचीन और लाभदायक संस्था को सलतनतों के उलट फेर कोई हानि नहीं पहुँचा सके…।’’आजकल की पाश्चात्य शिक्षा प्रणाली में जिस चीज को ‘‘म्यूचुअल ट्यूशन’’ कहा जाता है वह पश्चिम के देशों ने भारत ही से सीखी थी।
  • कम्पनी-शासन में भारतीय शिक्षा का ह्रास : भारत के जिस-जिस प्रान्त में कम्पनी का शासन जमता गया, उस-उस प्रान्त से ही यह हजारों साल पुरानी शिक्षा प्रणाली मिटती चली गई। कम्पनी के शासन से पहले भारत में शिक्षा की अवस्था और कम्पनी का पदार्पण होते ही एक सिरे से उस शिक्षा के सर्वनाश, दोनों का कुछ अनुमान बेलारी जिले के अंगरेज कलेक्टर, ए.डी. कैम्पबेल की सन् १८२३ की एक रिपोर्ट से किया जा सकता है। कैम्पबेल लिखता है- ‘‘जिस व्यवस्था के अनुसार भारत को पाठशालाओं में बच्चों को लिखना सिखाया जाता है और जिस ढंग से ऊँचे दरजे के विद्यार्थी नीचे दरजे के विद्यार्थियों को शिक्षा देते हैं और साथ-साथ अपना ज्ञान भी पक्का करते रहते हैं, वह सारी प्रणाली निस्सन्देह प्रशंसनीय है और इंगलिस्तान में उसका जो अनुसरण किया गया है उसके सर्वथा योग्य है।’’
  • आगे चल कर कम्पनी के शासन में भारतीय शिक्षा की अवनति और उसके कारणों को बयान करते हुए कैम्पबेल लिखता है– ‘‘इस समय असंख्य लोग ऐसे हैं जो अपने बच्चों को इस शिक्षा का लाभ नहीं पहुँचा सकते, मुझे कहते हुए दुख होता है कि सारा देश धीरे-धीरे निर्धन होता जा रहा है, हाल में जब से हिन्दोस्तान के बने हुए सूती कपड़ों की जगह इंगलिस्तान के बने हुए कपड़ों को इस देश में प्रचलित किया गया है तब से यहाँ के कारीगरों के लिए जीविका निर्वाह के साधन बहुत कम हो गए हैं, हमने अपनी बहुत सी पलटने अपने इलाकों से हटाकर उन देशी राजाओं के दूर-दूर के इलाकों में भेज दी हैं, जिनके साथ हमने सन्धियाँ की हैं, हाल ही में इससे भी अनाज की माँग पर बहुत असर पड़ा हैं। देश का धन पुराने समय के देशी दरबारों और उनके कर्मचारी उस धन को भारत ही में उदारता के साथ खर्च किया करते थे, इसके विपरीत नये यूरोपियन कर्मचारियों को हमने कानूनन आज्ञा दे दी है कि वे अस्थायी तौर पर भी उस धन को भारत में खर्च न करें ये यूरोपियन कर्मचारी देश के धन को प्रतिदिन ढो ढोकर बाहर ले जा रहे हैं, इसके कारण भी यह दरिद्र होता जा रहा है, सरकारी लगान जिस कड़ाई के साथ वसूल किया जाता है उसमें भी किसी तरह की ढिलाई नहीं की गई, जिससे प्रजा के इस कष्ट में कोई कमी हो सकती। मध्यम श्रेणी और निम्न श्रेणी के अधिकांश लोग अब इस योग्य नहीं रहे कि अपने बच्चों की शिक्षा का खर्च बरदाश्त कर संके, इसके विपरीत ज्योंही उनके बच्चों के कोमल अंग थोड़ी बहुत मेहनत कर सकने के योग्य होते हैं, माता पिता को अपनी जिन्दगी की आवश्यकताएँ पूरी करने के लिए उन बच्चों से अब मेहनत मजदूरी करानी पड़ती हैं।’’
  • उद्योग धन्धों और शिक्षा का ह्रास : उन्नीसवीं शताब्दी के शुरू में भारत की प्राचीन सार्वजनिक शिक्षा प्रणाली के नाश का एक मुख्य कारण यह था कि प्राचीन भारतीय उद्योग धन्धों के सर्वनाश और कम्पनी की लूट और अत्याचारों के कारण देश उस समय तेजी के साथ निर्धन होता जा रहा था, देश के उन करोड़ों नन्हें बालकों को, जो पहले पाठशालाओं में शिक्षा पाते थे, अब अपना और अपने माँ बाप का पेट पालने के लिए मेहनत मजदूरी में माँ-बाप का हाथ बंटा रहे हैं। आगे चल कर अपने से पहले की हालत और समय की शिक्षा की हालत की तुलना करते हुए कैम्पबेल लिखता है|‘‘इस जिले की करीब दस लाख आबादी में इस समय सात हजार बच्चे भी शिक्षा नहीं पा रहे हैं, जिससे पूरी तरह जाहिर होता है कि शिक्षा में निर्धनता के कारण कितनी अवनति हुई है, बहुत से ग्रामों में, जहां पहले पाठशालाएँ मौजूद थीं, वहाँ अब केवल अत्यन्त धनाढ्य लोगों के थोड़े से बालक शिक्षा पाते हैं, दूसरे लोगों के बालक निर्धनता के कारण पाठशाला नहीं जा सकते, इस जिले की अनेक पाठशालाओं की, जिनमें देशी भाषाओं में लिखना पढ़ना और हिसाब सिखाया जाता है, जैसा कि भारत में सदा से होता रहा है, इस समय भी यह दशा है। भारतीय विद्या की देश में राज दरबार की सहायता और प्रोत्साहन दी जाती थी, वह अंगरेजी राज के आने के समय से, बहुत दिन हुए, बन्द कर दिया गया है। इस जिले में अब घटते शिक्षा सम्बन्धी ५३३ संस्थााऐं रह गई हैं और मुझे यह कहते लज्जा आती है कि इनमें से किसी एक को भी अब (अंगरेज) सरकार की ओर से किसी तरह की सहायता नहीं दी जाती।’’
  • प्राचीन पाठशालाओं की व्यवस्था : प्राचीन भारत में इन असंख्य पाठशालाओं के खर्च की व्यवस्था को बयान करते हुए कैम्पबेल लिखता है- ‘‘इसमें कोई सन्देह नहीं कि पुराने समय में, विशेषकर हिन्दुओं के शासन काल में, विद्या प्रचार की सहायता के लिए बहुत बड़ी रकमें ओर बड़ी-बड़ी जागीरें राज की ओर से बँधी हुई थी। ‘‘पहले समय में राज की आमदनी का एक बहुत बड़ा हिस्सा विद्या प्रचार को प्रोत्साहन और उन्नति देने में खर्च किया जाता था, जिससे राज का भी मान बढ़ता था, किन्तु हमारे शासन में यहाँ तक अवनति हुई है कि राज की आमदनी से अब उलटा अज्ञान को उन्नति दी जाती है, पहले तो जबरदस्त सहायता राज की ओर से विज्ञान को उन्नति दी जाती है, उसके बन्द हो जाने के कारण अब विज्ञान केवल थोड़े से दानशील व्यक्तियों के सहारे ज्यों-त्यों कर जीवित है, भारत के इतिहास में विद्या के इस तरह के पतन का दूसरा समय दिखा सकना कठिन है।’’ यह सारी कहानी मदरास प्रान्त की है, ठीक इसी तरह की कहानी, महाराष्ट्र और बम्बई प्रान्त के विषय में, एलफिन्सटन से सन् १८२४ की एक सरकारी रिपोर्ट में बयान की है, किन्तु उसे दोहराना व्यर्थ है।
  • साहित्यिक अवनति : एक और अंगरेज विद्वान वॉल्टर हैमिल्टन ने सन् १८२८ में सरकारी रिपोर्टों के आधार पर लिखा था- ‘‘भारतवासियों के अन्दर साहित्य और विज्ञान की दिन–प्रतिदिन अवनति होती जा रही है, विद्वानों की तादाद घटती जा रही है और जो लोग अभी तक विद्याध्ययन कर रहे हैं उनमें भी अध्ययन के विषय बेहद कम होते जा रहे हैं। दर्शन विज्ञान का पढ़ना लोगों ने छोड़ दिया है, सिवाय उन विद्याओं के, जिनका सम्बन्ध विशेष धार्मिक कर्मकाण्डों या फलित से है, किसी भी भारतीय विद्या का अब लोग अध्ययन नहीं करते। साहित्य की इस अवनति का मुख्य कारण यह मालूम होता है कि इससे पहले देशी राज में राजा लोग, सरदार लोग और धनवान लोग सब विद्या प्रचार को प्रोत्साहन और सहायता दिया करते थे, वे देशी दरबार अब सदा के लिए मिट चुके हैं क्योंकि प्रोत्साहन और सहायता साहित्य को नहीं दी जाती।’’ सारांश यह कि जो कहानी कैम्पबेल ने मदरास प्रान्त की बयान की है वही कहानी वास्तव में सारे ब्रिटिश भारत की थी।
  • भारतीय शिक्षा के सर्वनाश के कारण : प्राचीन शिक्षा प्रणाली और शिक्षा संस्थाओं के सर्वनाश के चार मुख्य कारण गिनाए जा सकते हैं– १) भारतीय उद्योग धन्धों के नाश और कम्पनी की लूट से देश की बढ़ती हुई दरिद्रता; २) प्राचीन ग्राम पंचायतों का नाश और उस नाश के कारण लाखों ग्राम पाठशालाओं का अन्त; ३) प्राचीन हिन्दू और मुसलमान नरेशों की ओर से शिक्षा सम्बन्धी संस्थाओं को जो आर्थिक सहायता और जागीरें बँधी हुई थी, कम्पनी के राज में उनका छिन जाना; ४) नये अंगरेज शासकों की ओर से भारतवासियों की शिक्षा का विधिवत् विरोध। इस चौथे कारण को अधिक विस्तार के साथ बयान करना जरूरी है। सन् १७५७ से लेकर पूरे सौ साल तक लगातार बहस होती रही कि भारतवासियों को शिक्षा देना अंगरेजों की सत्ता के लिए हितकर है या अहितकर। शुरू के दिनों में करीब करीब सब अंगरेज शासक भारतवासियों को शिक्षा देने के विरोधी थे। जे.सी. मार्शमैन ने १५ जून, सन् १८५३ को पार्लियामेण्ट की सिलेक्ट कमेटी के सामने गवाही देते हुए कहा था- ‘‘भारत में अंगरेजी राज के कायम होने के बहुत दिनों बाद तक भारतवासियों को किसी तरह की भी शिक्षा देने का प्रबल विरोध किया जाता रहा।’’मार्शमैन बयान करता है कि सन् १७९२ में जब ईस्ट इंण्डिया कम्पनी के लिए नया चार्टर ऐक्ट पास होने का समय आया तो पार्लियामेण्ट के एक सदस्य विलबरफोर्स ने नये कानून में एक धारा इस तरह की जोड़नी चाही जिसका अभिप्राय थोड़े से भारतवासियों की शिक्षा का प्रबन्ध कराना था, इस पर पार्लियामेण्ट के सदस्यों और कम्पनी के हिस्सेदारों ने विरोध किया और विलबरफोर्स को अपनी तजवीज वापस लेनी पड़ी।
  • मार्शमैन लिखता है-‘‘उस अवसर पर कम्पनी के एक डाइरेक्टर ने कहा था कि– ‘हम लोग अपनी इसी मूर्खता से अमरीका हाथ से खो बैठे हैं, क्योंकि हमने उस देश में स्कूलऔर कालेज कायम हो जाने दिए, अब फिर भारत में उसी मूर्खता को दोहराना ठीक नहीं है’ इसके बीस साल बाद तक, यानी सन् १८१३ तक भारतवासियों को शिक्षा देने के विरूद्ध ये ही भाव इंगलिस्तान के शासकों के दिलों में बने रहे।’’

सन १८१३ में विलायत के अन्दर सर जॉ न मैलकम ने, जो उन विशेष अनुभवी नीतिज्ञों में से था उन्होंने १९वीं सदी के शुरू में भारत के अन्दर अंगरेजी साम्राज्य को विस्तार दिया, ब्रिटिश पार्लियामेण्ट की जॉच कमेटी के सामने गवाही देते हुए कहा– ‘‘इस समय हमारा साम्राज्य दूर-दूर तक फैला है, जो असाधारण ढंग की हुकूमत  हमने देश में कायम की है उसके बने रहने के लिए केवल एक बात का हमें सहारा है, वह यह कि जो बड़ी-बड़ी जातियाँ इस समय अंगरेज सरकार के अधीन हैं वे सब एक दूसरे से अलग-अलग हैं, जातियों में भी अनेक जातियाँ और उप जातियाँ हैं, जब तक ये लोग इस तरह विभाजित रहेंगे, तब तक कोई भी बलवा हमारी सत्ता को नहीं हिला सकता, जितनी लोगों में एकता पैदा होती जायेगी और उनमें वह बल आता जायेगा जिससे वे वर्तमान अंगरेजी सरकार की सत्ता को अपने ऊपर से हटा कर फेंक संके उतना ही हमारे लिए शासन करना कठिन होता जायेगा।’’
इसलिए-‘‘मेरी राय है कि इस तरह की शिक्षा, जिससे भारतीय प्रजा के इस समय के जात पात के भेद धीरे-धीरे टूटने की सम्भावना हो या जिसके जरिए उनके दिलों से यूरोपियनों का आदर कम हो, अंगरेजी राज के राजनैतिक बल को नहीं बढ़ा सकती।’’ जाहिर है कि सर जॉन मैलकम भारतवासियों को सदा के लिए जात पात और मत मतान्तरों के भेदों में फँसाए रखना, आपस में एक दूसरे से लड़ाए रखना और उन्हें अशिक्षित रखना अंगरेजी राज की सलामती के लिए  आवश्यक समझता था।
सन् १८१३ की मंजूरी : सन् १८१३ में इंगलिस्तान की पार्लि मेण्ट ने जो चार्टर ऐक्ट पास किया, उसमें एक धारा यह भी थी कि– ‘‘ब्रिटिश भारत की आमदनी की बचत में से गवरनर जनरल को इस बात का अधिकार होगा कि हर साल एक लाख रूपये तक साहित्य की उन्नति और पुनरूज्जीवन के लिए और विद्वान भारतवासियों को प्रोत्साहन देने के काम में लाए।’’ किन्तु यह समझना भूल होगी कि यह एक लाख रूपये सालाना की रकम वास्तव में भारतवासियों की शिक्षा के लिए मंजूर की गई थी, इस मंजूरी के साथ-साथ जो पत्र डाइरेक्टरों ने ३ जून, सन् १८१४ को गवरनर जनरल के नाम भेजा उसमें साफ लिखा था कि यह रकम ‘‘राजनैतिक दृष्टि से भारत के साथ अपने सम्बन्ध को मजबूत रखने के लिए’’, ‘‘बनारस’’ और एक दो और स्थानों के ‘‘पण्डितों को देने’’ के लिए, ‘‘अपनी ओर विचारवान भारतवासियों के ह्य्दय के भावों का पता लगाने’’ के लिए, प्राचीन संस्कृत साहित्य का अंगरेजी में अनुवाद कराने के लिए,’’ ‘‘संस्कृत पढ़ने की इच्छा रखने वाले अंग्रेजी को सहायता देने के लिए,’’ ‘‘अपने साम्राज्य के स्थायित्व की दृष्टि से अंग्रेजी और भारतीय नेताओं में अधिक मेलजोल पैदा करने के उद्देश्य से’’ मंजूर किए गए हैं, इसी पत्र में यह भी साफ लिखा था कि इस रकम की मदद से कोई ‘‘सार्वजनिक कॉलेज न खोले जावें।’’

लिओनेल स्मिथ का डर : भारतवासियों की शिक्षा की ओर अंगरेज शासकों का विरोध इसके बहुत दिनों बाद तक बराबर जारी रहा। सन् १८३१ की जॉंच के समय, सर जॉन मैलकम ने बीस साल पहले के विचारों को दोहराते हुए, मेजर जनरल सर लिओनेल स्मिथ ने कहा– ‘‘शिक्षा का नतीजा यह होगा कि वे सब साम्प्रदायिक और धार्मिक पक्षपात, जिनके द्वारा हमने अभी तक मुल्क को वश में रखा है-और हिन्दू-मुसलमानों को एक दूसरे से लड़ाए रखा है, इत्यादि–दूर
हो जायेंगे: शिक्षा का नतीजा यह होगा कि इन लोगों के दिमाग खुल जायेंगे और उन्हें अपनी विशाल शक्ति का पता लग जाएगा’’
अंगरेजी राज के लिए शिक्षा की आवश्यकता : १८वीं शताब्दी के अन्त से ही इस मामले में अंगरेज शासकों के विचारों में अन्तर पैदा होना शुरू हो गया, कारण यह था कि धीरे-धीरे अंगरेजों को भारत के अन्दर दो विशेष कठिनाइयॉं अनुभव होने लगीं: (१) शिक्षित भारतवासियों की तादाद दिनोंदिन घटती जा रही थी, इसलिए अंगरेजों को अपने सरकारी महकमों और नयी अदालतों के लिए योग्य हिन्दू और मुसलमान कर्मचारियों की कमी महसूस होने लगी, जिनके बिना उन महकमों और अदालतों का चल सकना असम्भव था (२) उन्हें थोड़े से भारतवासियों की भी आवश्यकता थी, जिनकी मदद से वे जनता के भावों को अपनी ओर मोड़ सकें। सन १८३० की पार्लि मेण्टरी कमेटी की रिपोर्ट में इन दोनों आवश्यकताओं का बार-बार जिक्र आता है और साफ लिखा है कि कलकत्ते का ‘मुसलमानों का मदरसा’ और बनारस का हिन्दू संस्कृत कॉलेज’, दोनों अठारहवीं सदी के अन्त में ठीक इन्हीं उद्देश्यों से कायम किए गए थे, इसी उद्देश्य से सन् १८२१ में
पूना का डेकन कॉलेज, सन् १८३५ में कलकत्ते का मेडिकल कॉलेज और सन् १८४७ में रूड़की का इंजीनियरिंग कॉलेज कायम हुआ। डाइरेक्टरों ने ५ सितम्बर, सन् १८२७ के एक पत्र में गवरनर जनरल को लिखा कि इस शिक्षा का धन- ‘‘उच्च और मध्यम श्रेणी के उन भारतवासियों के ऊपर खर्च किया जाये, जिनमें से आपको अपने शासन के कामों के लिए सबसे अधिक योग्य देशी एजेण्ट मिल सकते हैं, जिनका अपने बाकी देशवासियों के ऊपर सबसे अधिक प्रभाव है।

मतलब यह है कि बिना पढ़े-लिखे भारतवासियों की सहायता के केवल अंगरेजों के बल ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य का चल सकना असम्भव था, इसीलिए थोड़े बहुत भारतवासियों को किसी न किसी तरह की शिक्षा देना भारत के विदेशी शासकों के लिए अनिवार्य हो गया, इस काम के लिए सन् १८३१ वाली एक लाख रूपये सालाना की मंजूरी को सन् १८३३ में बढ़ा कर दस लाख रूपये सालाना कर दिया गया, क्योंकि इन बीस साल के अन्दर भारत का बहुत अधिक भाग विदेशी राज के रंग में रंगा जा चुका था। सन् १७५७ से लेकर १८५७ तक भारतवासियों की शिक्षा के बारे में अंगरेज शासकों के सामने मुख्य प्रश्न केवल यह था कि भारतवासियों को शिक्षा देना साम्राज्य के स्थायित्व की दृष्टि से हितकर है या अहितकर, और यदि हितकर या आवश्यक है तो उन्हें किस तरह की शिक्षा देना 

ईसाई धर्म प्रचार : उस समय अनेक अंगरेज नीतिज्ञ भारतवासियों में ईसाई धर्म का प्रचार करने के पक्षपाती थे, इन लोगों को ईसाई धर्म ग्रन्थों का भारतीय भाषाओं में अनुवाद कराने, इंगलिस्तान से आने वाले पादरियों को सहायता देने और सरकार की ओर से मिशन स्कूलों को आर्थिक मदद करने की आवश्यकता अनुभव हो रही थी, यह भी एक कारण था कि जिससे अनेक अंग्रेजी भारतवासियों को शिक्षा देने के पक्ष में हो गए, सन् १८१३ के बाद की बहसों में इस बात का बार-बार जिक्र मिलता है। 

शिक्षित भारतवासियों से डर : सन् १८५३ में ईस्ट इण्डिया कम्पनी के लिए अन्तिम चार्टर ऐक्ट पास हुआ, उस समय भारतवासियों की शिक्षा के प्रश्न पर अनेक अनुभवी अंग्रेजी नीतिज्ञों और विद्वानों की गवाहियाँ जमा की, इन गवाहियों में से नमूने के तौर पर दोनों पक्षों की एक या दो-दो गवाहियाँ नकल करना काफी है। ४ अगस्त, सन् १८५३ को मेजर रॉलैण्डसन ने, जो १७ साल तक मदरास प्रांत के कमाण्डर-इन-चीफ के यहाँ फारसी अनुवादक रह चुका था और वहाँ की शिक्षा कमेटी का मन्त्री भी रह चुका था, ब्रिटिश पार्लिमेण्ट की कमेटी के सामने यह गवाही दीप्रश्न- आपने यह राय प्रकट की है कि भारतवासियों को शिक्षा देने का नतीजा यह होता है कि वे अंग्रेजी सरकार के विरूद्ध हो जाते हैं, क्या आप यह समझाऐंगे कि इसका कारण क्या है और सरकार की ओर उनकी शत्रुता किस ढंग की और कैसी  होती है? उत्तर- मेरा अनुभव यह है कि भारतवासियों को ज्यों-ज्यों ब्रिटिश भारतीय इतिहास के भीतरी हाल का पता लगता है और आम तौर पर यूरो के इतिहास का ज्ञान होता है, त्यों-त्यों उनके मन में यह विचार उत्पन्न होता है कि भारत जैसे एक विशाल देश का मुट्ठी भर विदेशियों के कब्जे में होना एक बहुत बड़ा अन्याय है इससे स्वभावत: उनके मन में यह इच्छा उत्पन्न हो जाती है कि वे अपने देश की इस विदेशी शासन ने स्वतन्त्र करने में सहायक हों और चूंकि इस विचार को दूर करने वाली कोई बात नहीं होती और न उनमें वफादारी का भाव ही पक्का होता है, इसलिए ब्रिटिश सरकार की ओर द्रोह का भाव इन लोगों में  पैदा हो जाता हैं। …. मैंने देखा है कि हिन्दुओं और मुसलमानों, दोनों में यह भाव मौजूद है और मुसलमानों में अधिक है। ….खासकर जब ये लोग ब्रिटिश साम्राज्य के रहस्य को जान जाते हैं तो उनके दिलों में असन्तोष का भाव पैदा हो जाता है और आशा जाग उठती है… इसी प्रश्नोत्तर में यह भी साफ सुझाया गया कि यदि शिक्षा के साथ भारतवासियों के दिलों में यह भय उत्पन्न करने का भी प्रयत्न किया जाये कि यदि अंगरेज भारत से चले गए तो उत्तर की दूसरी जातियाँ आकर भारत पर राज करने लगेंगी या भारत में अराजकता फैले जायेगी, तो इसका नतीजा कहाँ तक हितकर होगा।

कुछ विपरीत विचार : अंगरेजों के विचार मेजर रॉलैण्डसन के विचारों से मिलत थे किन्तु कुछ के विचार इसके विपरीत थे, उनका खयाल था कि अशिक्षित भारतवासी शिक्षित भारतवासियों की अपेक्षा विदेशी शासन के लिए अधिक खतरनाक होते हैं और भारतवासियों को केवल पश्चिमि शिक्षा देकर ही उन्हें राष्ट्रीयता यानी भारतीयता के भावों से दूर रखा जा सकता है और विदेशी राज के लिए उपयोगी यन्त्र बनाया जा सकता है। प्रसिद्ध नीतिज्ञों में सर हैलिडे की गवाही, जो बंगाल का पहला लेफ्टिनेण्ट गवरनर था और मार्शमैन की गवाही इसी मतलब की थी। पूर्वी और पश्चिमी शिक्षा पर बहस : एक और महत्वपूर्ण प्रश्न जो १९वीं शताब्दी के शुरू से भारत के उन अंगरेज शासकों के सामने आया जो भारतवासियों को शिक्षा देने के पक्ष में थे, यह था कि किस तरह की शिक्षा देना अधिक उपयोगी होगा। दो अलग-अलग विचारों के लोग उस समय के अंगरेजों में मिलते हैं। एक वे जो भारतवासियों को प्राचीन भारतीय साहित्य, भारतीय विज्ञान और संस्कृत, फारसी, अरबी और देशी भाषाएँ पढ़ाने के पक्ष में थे और दूसरे वे जो उन्हें अंगरेजी भाषा, पश्चिमी साहित्य और पश्चिमी विज्ञान की शिक्षा देना अपने लिए अधिक हितकर समझते थे, पहले विचार के लोगों को ‘ओरियण्टलिस्ट’ और दूसरे विचार के लोगों को ‘ऑक्सिडेण्टलिस्ट’ कहा जाता है, अनेक वर्षों तक इन दोनों विचार के अंगरेजों में खूब वाद विवाद होता रहा, इसी बहस के दिनों में सन् १८३४ में भारत के अन्दर लॉर्ड मैकॉले का आगमन हुआ, मैकॉ ले से पहले, करीब १२ साल तक, इस प्रश्न के ऊपर बहुत तीव्र वाद-विवाद होता रहा। मैकॉले के विचारों का प्रभाव इस प्रश्न पर निर्णायक साबित हुआ। मैकॉले भारतवासियों को प्राचीन भारतीय साहित्य की शिक्षा देने के विरूद्ध और उन्हें अंग्रेजी भाषा, अंग्रेजी साहित्य और अंगरेजी विज्ञान सिखाने के पक्ष में था। मैकॉले का निर्णय भारतवासियों के लिए अन्त में हितकर रहा हो या अहितकर, किन्तु मैकॉले का अपना उद्देश्य केवल यह था कि उच्च श्रेणी के भारतवासियों में राष्ट्रीयता के भावों को उत्पन्न होने से रोका जाये और उन्हें अंगरेजी सत्ता के चलाने के लिए उपयोगी यन्त्र बनाया जाये, अपने पक्ष का समर्थन करते हुए मैकॉ ले ने एक स्थान पर लिखा है- ‘‘हमें भारत में इस तरह की श्रेणी पैदा कर देने का भरकस प्रयत्न करना चाहिए करोड़ों भारतवासियों के बीच, जिन पर हम शासन करते हैं, एक दूसरे को समझाने बुझाने का काम दे संके, ये लोग ऐसे होने चाहिए जो कि केवल खून और रंग की दृष्टि से हिन्दोस्तानी हों, किन्तु जो अपनी रूचि, भाषा, भावों और विचारों की दृष्टि से अंगरेज हों। बेण्टिंक का फैसला गवरनर जनरल लॉर्ड विलियम बेण्टिंक मैकॉले का बड़ा दोस्त और उसके समान विचारों का था। मैकॉले की इस रिपोर्ट के ऊपर ७ मार्च, सन् १८३५ को बेण्टिंक ने आज्ञा दे दी कि- ‘‘जितना धन शिक्षा के लिए मंजूर किया जाए उसका सबसे अच्छा उपयोग यही है कि उसे केवल अंगरेजी शिक्षा के ऊपर खर्च किया जाये।’’ मैकॉले के विचारों और उन पर लॉर्ड बेण्टिंक के फैसला के नतीजे को बयान करते हुए ५ जुलाई, सन् १८५३ को प्रसिद्ध इतिहास लेखक प्रोफेसर एच.एच. विलसन ने पार्लिमेण्ट की सिलेक्ट कमेटी के सामने कहा- ‘‘वास्तव में हमने अंगरेजी पढ़े-लिखे लोगों की एक अलग जाति बना दी है, जिन्हें अपने देशवासियों के साथ या तो सहानुभूति है ही नहीं, यदि है तो बहुत ही कम’’ अंगरेजी भाषा और अंगरेजी साहित्य की शिक्षा के साथ-साथ जहाँ तक हो सके देशी भाषाओं को दबाना भी मैकॉले और बेण्टिंक, दोनों का उद्देश्य था, इतिहास लेखक डॉक्टर डफ ने, इस बारे में बेण्टिंक और मैकॉले की नीति की सराहना करते हुए तुलना करके यह दिखलाया है कि जब कभी प्राचीन रोमन लोग किसी देश को विजय करते थे तो उस देश की भाषा और साहित्य को यथाशक्ति दबा कर वहाँ के उच्च श्रेणी के लोगों में रोमन भाषा, रोमन साहित्य और रोमन आचार-विचार के प्रचार का प्रयत्न करते थे और साथ ही यह दर्शाया है कि यह नीति रोमन साम्राज्य के लिए कितनी हितकर साबित हुई और अन्त में लिखा है- ‘‘…मैं यह विचार प्रकट करने का साहस करता हूँ कि भारत के अन्दर अंग्रेजी भाषा और अंगरेजी साहित्य को फैलाने और उसे उन्नति देने का लॉर्ड विलियम बेण्टिंक का कानून…भारत के अन्दर अंग्रेजी राज के अब तक के इतिहास में कुशल राजनीति की सबसे जबरदस्त चाल मानी जायेगी।’’ डॉक्टर डफ ने अपने पहले के एक दूसरे अंग्रेजी विद्वान के विचारों का समर्थन करते हुए लिखा है कि भाषा का प्रभाव इतना जबरदस्त होता है कि जिस समय तक भारत के अन्दर देशी नरेशों के साथ अंग्रेजी का पत्र-व्यवहार फारसी भाषा में होता रहेगा, उस समय तक भारतवासियों की भक्ति और उनका प्रेम दिल्ली के सम्राट की ओर बराबर बना रहेगा। लॉर्ड बेण्टिंक के समय तक देशी नरेशों के साथ कम्पनी का सारा पत्र-व्यवहार फारसी भाषा में हुआ करता था। बेण्टिंक पहला गवरनर जनरल था, जिसने यह आज्ञा दे दी और नियम कर दिया कि भविष्य में सारा पत्र-व्यवहार फारसी की जगह अंगरेजी भाषा में हुआ करे। आयरलैण्ड के अन्दर भी आइरिश भाषा को दबाने और यदि ‘‘सम्भव हो तो आइरिश लोगों को अंगरेज बना डालने के लिए ‘‘वहाँ की अंग्रेजी सरकार ने समय-समय पर अनेक अनोखे कानून पास किए।जो कि हमारे और उनउचित है 

सन् १८३५ के बाद से अंगरेज शासकों का मुख लक्ष्य भारत में अंगरेजी शिक्षा के प्रचार ओर रहा, फिर भी ‘ओरिएण्टलिस्ट’ और ‘ऑक्सिडेण्टलिस्ट’ दलों का थोड़ा बहुत विरोध इसके बीस साल बाद तक जारी रहा, कुछ अंगरेज शासक भारतवासियों को किसी तरह की भी शिक्षा देने में बराबर संकोच करते रहे, यहाँ तक कि लॉर्ड मैकॉले की सन् १८३५ की रिपोर्ट २९ साल बाद सन् १८६४ में पहली बार प्रकाशित की गई, पर अन्त में पल्ला अंग्रेजी शिक्षा के पक्ष वालों का ही भारी रहा। भारत में अंगरेज शासकों की शिक्षा नीति और बाद की अंगरेजी शिक्षा के उद्देश्य को साफ कर देने के लिए, हम अंगरेजी शिक्षा के प्रबल पक्षपाती लॉर्ड मैकले के बहनोई, सर चाल्र्स ट्रेवेलियन के उन विचारों को प्रस्तुत कर रहे हैं जो ट्रेवेलियन ने सन् १८५३ की पार्लियोण्टरी कमेटी के सामने प्रकट किए
अंग्रेजी शिक्षा का उद्देश : सर चाल्र्स ट्रेवेलियन ने सन् १८५३ की पार्लियोण्टरी कमेटी के सामने ‘‘भारत की अलग-अलग शिक्षा प्रणालियों के अलग अलग राजनैतिक नतीजे’’ शीर्षक एक लेख लिख कर पेश किया, यह लेख इतने महत्व का था कि अंग्रेजी सरकार की शिक्षा नीति का इतना अच्छा द्योतक बना। भारतवासियों को अरबी और संस्कृत पढ़ाने और उनके प्राचीन विचारों और प्राचीन राष्ट्रीय साहित्य को जीवित रखने के बारे में सर चाल्र्स ट्रेवेलियन लिखता है कि ऐसा करने से- ‘‘मुसलमानों को सदा यह बात याद आती रहेगी कि हम विधर्मी ईसाइयों ने मुसलमानों के अनेक सुन्दर से सुन्दर प्रदेश उनसे छीन कर अपने अधीन कर लिए हैं, हिन्दुओं को सदा याद रहेगा कि अंगरेज लोग इस तरह के नापक दरिन्दे हैं, जिनके साथ किसी तरह का भी मेलजोल रखना लज्जाजनक और पाप होगा, हमारे बड़े शत्रु भी इच्छा नहीं कर सकते कि हम इस तरह की
विद्याओं का प्रचार करें जिनसे मानव स्वभाव के उग्र से उग्र भाव हमारे विरुद्ध भड़क उठें। ‘‘इसके विपरीत अंग्रेजी साहित्य का प्रभाव अंग्रेजी राज के लिए हितकर हुए बिना नहीं रह सकता, जो भारतीय युवक हमारे साहित्य द्वारा हमसे भली-भाँति परिचित हो जाते हैं, वे हमें विदेशी समझना प्राय: बन्द कर देते हैं, वे हमारे महापुरुषों का जिक्र उसी उत्साह के साथ करते हैं जिस उत्साह के साथ हम करते हैं, हमारी ही जैसी शिक्षा, हमारी ही जैसी रुचि और हमारे ही जैसे रहन-सहन के कारण इन लोगों में हिन्दोस्तानियत कम हो जाती है और अंगरेजियत अधिक
आ जाती है, फिर बजाय इसके कि वे हमारे तीव्र विरोधी हों, या हमारे अनुयायी हों, उनके ह्य्दय में हमारी ओर से क्रोध भरा रहे, वे हमारे जोशीले और चतुर मददगार बन जाते हैं, फिर वे हमें अपने देश से बाहर निकालने के प्रचण्ड उपाय सोचना बन्द कर देते हैं। ‘‘ जब तक हिन्दोस्तानियों को अपनी पहली स्वाधीनता के बारे में सोचने का मौका मिलता रहेगा, तब तक उनके सामने अपनी दशा सुधारने का एकमात्र उपाय यह रहेगा कि वे अंग्रेजी को तुरन्त देश से निकाल कर बाहर कर दें, पुराने तर्ज के भारतीय राष्ट्र के विचारों को दूसरी ओर मोड़ने का केवल एक ही उपाय है, वह यह है कि उनके अन्दर पाश्चात्य विचार पैदा कर दिए जायें, जो युवक हमारे स्कूलों और कॉलेजों में पढ़ते हैं वे फिर उस जंगली तानाशाही को, जिसके आधीन उनके पूर्वज रहा करते थे, घृणा की दृष्टि से देखने लगते हैं और राष्ट्रीय संस्थाओं को अंग्रेजी ढंग पर ढालने की आशा करने लगते हैं, बजाय इसके कि उनके दिलों में यही विचार सबसे ऊपर हो कि
हम अंगरेजों को निकाल कर समुद्र में फेंक दें, वे इसके विपरीत अब उन्नति का कोई ऐसा विचार तक नहीं कर सकते जो उनके ऊपर अंगरेजी राज को अधिक पक्का न कर दे, जिसके द्वारा वे अंगरेजों की शिक्षा और अंगरेजों की रक्षा पर सर्वथा निर्भर न हो जाये। ‘‘हमारे पास उपाय केवल यह है कि हम भारतवासियों को यूरोपियन ढंग की उन्नति में लगा दें,… पुराने ढंग पर भारत को स्वाधीन करने की इच्छा ही उनमें से जाती रहेगी और उनका लक्ष्य ही यह न रह जायगा, देश में अचानक राजक्रान्ति फिर असम्भव हो जायेगी और हमारे लिए भारत पर अपना साम्राज्य कायम रखना बहुत काल के लिए असन्दिग्ध हो जायेगा। यूरोपियन शिक्षा प्राप्त करने और उसे और अपने यहाँ यूरोपियन संस्थाएँ कायम करने में ही पूरी तरह लगे रहेंगे, जिससे हमें कोई हानि न हो पाएगी। शिक्षित भारतवासी स्वभावत: हमसे चिपटे रहेंगे। हमारी सारी प्रजा में किसी भी श्रेणी के लोगों के लिए हमारा रहना इतना अनिवार्य नहीं है जितना उन लोगों के लिए, जिनके विचार अंगरेजी साँचे में ढाले गए हैं, ये लोग शुद्ध भारतीय राज के काम के ही नहीं रह जाते, यदि जल्दी से देश में स्वदेशी राज फिर कायम हो जाये तो उन्हें उससे हर तरह का भय रहता है। ‘‘मुझे आशा है कि थोड़े ही दिनों में भारतवासियों का सम्बन्ध हमारे साथ वैसा ही हो जायगा जैसा किसी समय हमारा रोमन लोगों के साथ था। रोमन विद्वान टैसीटस लिखता है कि जूलियस ऐग्रीकोला (जो ईसा से ७८ साल बाद इंगलिस्तान का रोमन गवरनर नियुक्त हुआ था, जिसने उस देश में रोमन साम्राज्य की नींवों को पक्का किया) की यह नीति थी कि बड़े-बड़े अंगरेजों के लड़कों रोमन साहित्य और रोमन विज्ञान की शिक्षा दी जाये और उनमें रोमन सभ्यता की रुचि पैदा कर दी जाये, हम सब जानते हैं कि ज्यूलियस ऐग्रीकोला की यह नीति इंगलिस्तान में कितनी सफल साबित हुई, यहाँ तक कि जो अंगरेज पहले रोमन लोगों के कट्टर शत्रु थे वे शीघ्र ही उनके विश्वासपात्र और उनके वफादार मित्र बन जाए, उन अंगरेजों के पूर्वजों ने जितने प्रयत्न अपने देश पर रोमन लोगों के हमले को रोकने के लिए किए थे उससे कहीं अधिक जोरदार प्रयत्न अब उनके वंशज रोमन लोगों को अपने यहाँ बनाए रखने के लिए करने लगे, हमारे पास रोमन लोगों से कही अधिक बढ़ कर उपाय मौजूद हैं, इसलिए हमारे लिए यह शर्म की बात होगी यदि हम भी रोमन लोगों की तरह भारतवासियों के मन में यह भय उत्पन्न न कर दें कि यदि हम जल्दी से देश से निकल गए तो लोगों पर भयंकर विपत्ति आ जायेगी। ‘‘ये विचार मैंने केवल अपने दिमाग से सोच कर ही नहीं निकाले, वरन् स्वयं अनुभव करके और देखभाल कर मुझे इन नतीजों पर पहुँचना पड़ा है। मैंने कई साल हिन्दोस्तान के ऐसे हिस्सों में बिताए जहाँ हमारा राज अभी नया नया जमा था, जहाँ पर हमने लोगों के भावों को दूसरी ओर मोड़ने की कोशिश भी नहीं की थी, जहाँ पर कि उनके राष्ट्रीय विचारों में अभी कोई परिवर्तन नहीं हुआ था, उन प्रान्तों में छोटे और बड़े, धनी और दरिद्र, सब लोगों के सामने केवल अपनी राजनैतिक दशा सुधारने की ही एकमात्र चिन्ता थी। उच्च श्रेणी के लोगों के दिलों में यह आशा बनी हुई थी कि वे फिर से अपने प्राचीन प्रभुत्व को प्राप्त कर लें और निचे की श्रेणी के लोगों में यह आशा बनी हुई थी कि यदि देशी राज फिर से कायम हो गया तो धन और वैभव प्राप्त करने के मार्ग…..भारतवासी फिर हमारे विरुद्ध विद्रोह न करेंगे… फिर उनके राष्ट्र भर के प्रयन् यूरोपियन शिक्षा प्राप्त करने और उसे और अपने यहाँ यूरोपियन संस्थाएँ कायम करने में ही पूरी तरह लगे रहेंगे, जिससे हमें कोई हानि न हो पाएगी। शिक्षित भारतवासी स्वभावत: हमसे चिपटे रहेंगे। हमारी सारी प्रजा में किसी भी श्रेणी के लोगों के लिए हमारा रहना इतना अनिवार्य नहीं है जितना उन लोगों के लिए, जिनके विचार अंगरेजी साँचे में ढाले गए हैं, ये लोग शुद्ध भारतीय राज के काम के ही नहीं रह जाते, यदि जल्दी से देश में स्वदेशी राज फिर कायम हो जाये तो उन्हें उससे हर तरह का भय रहता है। ‘‘मुझे आशा है कि थोड़े ही दिनों में भारतवासियों का सम्बन्ध हमारे साथ वैसा ही हो जायगा जैसा किसी समय हमारा रोमन लोगों के साथ था। रोमन विद्वान टैसीटस लिखता है कि जूलियस ऐग्रीकोला (जो ईसा से ७८ साल बाद इंगलिस्तान का रोमन गवरनर नियुक्त हुआ था, जिसने उस देश में रोमन साम्राज्य की नींवों को पक्का किया) की यह नीति थी कि बड़े-बड़े अंगरेजों के लड़कों रोमन साहित्य और रोमन विज्ञान की शिक्षा दी जाये और उनमें रोमन सभ्यता की रुचि पैदा कर दी जाये, हम सब जानते हैं कि ज्यूलियस ऐग्रीकोला की यह नीति इंगलिस्तान में कितनी सफल साबित हुई, यहाँ तक कि जो अंगरेज पहले रोमन लोगों के कट्टर शत्रु थे वे शीघ्र ही उनके विश्वासपात्र और उनके वफादार मित्र बन जाए, उन अंगरेजों के पूर्वजों ने जितने प्रयत्न अपने देश पर रोमन लोगों के हमले को रोकने के लिए किए थे उससे कहीं अधिक जोरदार प्रयत्न अब उनके वंशज रोमन लोगों को अपने यहाँ बनाए रखने के लिए करने लगे, हमारे पास रोमन लोगों से कही अधिक बढ़ कर उपाय मौजूद हैं, इसलिए हमारे लिए यह शर्म की बात होगी यदि हम भी रोमन लोगों की तरह भारतवासियों के मन में यह भय उत्पन्न न कर दें कि यदि हम जल्दी से देश से निकल गए तो लोगों पर भयंकर विपत्ति आ जायेगी। ‘‘ये विचार मैंने केवल अपने दिमाग से सोच कर ही नहीं निकाले, वरन् स्वयं
अनुभव करके और देखभाल कर मुझे इन नतीजों पर पहुँचना पड़ा है। मैंने कई साल हिन्दोस्तान के ऐसे हिस्सों में बिताए जहाँ हमारा राज अभी नया नया जमा था, जहाँ पर हमने लोगों के भावों को दूसरी ओर मोड़ने की कोशिश भी नहीं की थी, जहाँ पर कि उनके राष्ट्रीय विचारों में अभी कोई परिवर्तन नहीं हुआ था, उन प्रान्तों में छोटे और बड़े, धनी और दरिद्र, सब लोगों के सामने केवल अपनी राजनैतिक दशा सुधारने की ही एकमात्र चिन्ता थी। उच्च श्रेणी के लोगों के दिलों में यह आशा बनी हुई थी कि वे फिर से अपने प्राचीन प्रभुत्व को प्राप्त कर लें और निचे की श्रेणी के लोगों में यह आशा बनी हुई थी कि यदि देशी राज फिर से कायम हो गया तो धन और वैभव प्राप्त करने के मार्ग भारतवासियों को औरों की अपेक्षा हमसे अधिक प्रेम था उन्हें भी अपनी कौम की पतित अवस्था को सुधारने का इसके सिवा और कोई उपाय न सूझता था कि अंगरेजों को तुरन्त देश से निकाल कर बाहर कर दिया जाये, इसके बाद मैं कुछ साल बंगाल में रहा, वहाँ मैंने शिक्षित भारतवासियों में बिलकुल दूसरी ही तरह के विचार देखे, अंगरेजों के गले काटने का विचार करने के स्थान पर, वे लोग अंगरेजों के साथ जूरी बन कर अदालतों में बैठने या बेञ्च मैजिस्ट्रेट बनने की आकांक्षाएँ कर रहे थे।’’

ट्रेवेलियन के और अधिक स्पष्ट विचार : सर चाल्र्स ट्रेवेलियन के इस लेख के बारे में पार्लियामेण्ट की कमेटी के सदस्यों और टै्रवेलियन में कई दिन तक प्रश्नोत्तर होता रहा, जिसमें ट्रेवेलियन ने और अधिक स्पष्टता के साथ अपने विचारों को दोहराया और उनका समर्थन किया, इस प्रश्नोत्तर में २३ जून, १८५३ को टे्रवेलियन ने कमेटी के सामने बयान किया कि: ‘‘यहाँ की नीति के अनुसार मुसलमान लोग हमें ‘काफिर’ समझते हैं, जिन्होंने इसलाम की कई सर्वोत्तम बादशाहतें मुसलमानों से छीन ली हैं …उसी प्राचीन स्वदेशी विचार के अनुसार हिन्दू हमें ‘म्लेच्छ’ समझते हैं, अर्थात् इस तरह के अपवित्र विधर्मी जिनके साथ किसी तरह का भी सामाजिक सम्बन्ध नहीं रखा जा सकता, और वे सबके सब मिल कर अर्थात् हिन्दू और मुसलमान दोनों, हमें इस तरह के आक्रामक विदेशी समझते हैं जिन्होंने उनका देश उनसे छीन लिया है और उनके लिए धन और मान प्राप्त करने के सब रास्ते बन्द कर दिए हैं। यूरोपियन शिक्षा देने का नतीजा यह होता है कि भारतवासियों के विचार दूसरी ही दिशा में मुड़ जाते हैं। पाश्चात्य शिक्षा पाए युवक स्वाधीनता के लिए प्रयत्न करना बन्द कर देते हैं….वे फिर हमें अपना शत्रु नहीं समझते, बल्कि हमें अपना मित्र, अपना मददगार और बलवान और उपकारी व्यक्ति समझने लगते हैं… वे यह भी समझने लगते हैं कि भारतवासी अपने देश के पुनरुज्जीवन के लिए जो कुछ इच्छा भी कर सकते हैं वह धीरे-धीरे अंगरेजों के संरक्षण में सम्भव हो सकती है, यदि राजक्रान्ति के पुराने देशी विचार कायम रहे तो सम्भव है, कभी न कभी एक दिन के अन्दर हमारा अस्तित्व भारत से मिट
जाये। वास्तव में जो लोग इस ढंग से भारत की उन्नति की आशा कर रहे हैं, वे इस लक्ष्य को सामने रख कर हमारे विरुद्ध लगातार षड़यन्त्र ओर योजनाएँ रचते रहते हैं, इसके विपरीत नयी और उन्नत पद्धति के अनुसार विचार करने वाले भारतवासी यह समझते हैं कि उनका उद्देश्य बहुत धीरे-धीरे पूरा होगा और उन्हें अन्तिम लक्ष्य तक पहुँचते-पहुँचते सम्भव है युग बीत जाये।’’ जाँच कमेटी के अध्यक्ष ने टे्रवेलियन से और अधिक स्पष्ट शब्दों में पूछा कि आपकी तजवीज का अन्तिम लक्ष्य भारत और इंगलिस्तान के राजनैतिक सम्बन्ध को तोड़ना है या उसे सदा के लिए कायम रखना है, इस पर टे्रवेलियन ने फिर उत्तर दिया ‘‘मुझे विश्वास है कि भारतवासियों का शिक्षा देने का अन्तिम परिणाम यह होगा कि भारत और इंगलिस्तान का पृथक हो सकना दीर्घ और अनिश्चित काल के लिए टल जायेगा…यदि इसके विरुद्ध नीति का अनुसरण किया गया…. तो नतीजा यह होगा कि किसी भी समय हम भारत से निकाले जा सकते हैं, निस्सन्देह बहुत जल्दी और जिल्लत के साथ निकाल दिए जायेंगे।‘‘मैं एक ऐसा रास्ता बता रहा हूँ जो हमारे राज के बने रहने के लिए सबसे अधिक हितकर होगा, अनेक बरसों तक खूब अच्छी तरह सोच समझ कर मैंने ये विचार कायम किए हैं, मुझे विश्वास है कि मैं इस विषय को पूरी तरह समझता हूँ, मैं एक परिचित उदाहरण आपके सामने पेश करता हूँ, मैं बारह वर्ष भारत में रहा, इनमें से पहले ६ वर्ष मैंने उत्तर भारत में गुजारे, मेरा मुख्य स्थान दिल्ली था, शेष छ वर्ष मैंने कलकत्ते में बिताए, जहाँ पर मैंने पहले छ वर्ष गुजारे वहाँ पर पुराने शुद्ध देशी विचारों का राज था, वहाँ पर लगातार युद्ध और युद्धों की अफवाहें सुनने में आती थी। उत्तर भारत में भारतवासियों की देशभक्ति केवल एक ही रूप धारण करती थी, वे हमारे विरुद्ध साजिशें करते रहते थे, हमारे विरुद्ध विविध शक्तियों को मिलाने की तजवीजें सोचते रहते थे, उसके बाद मैं कलकत्ते आया, वहाँ मैंने बिलकुल दूसरी हालत देखी, वहाँ पर लोगों का लक्ष्य था–स्वतन्त्र अखबार निकालना, म्युनिसिपैल्टियाँ कायम करना, अंगरेजी शिक्षा फैलाना , अधिकाधिक हिन्दोस्तानियों को सरकारी नौकरियाँ दिलवाना, इसी तरह की और अनेक बातें।’’इस पर फिर लॉर्ड मॉण्टीगल ने ट्रेवलियन से पूछा- ‘‘निस्सन्देह शिक्षा बढ़ाने और भारतवासियों को अधिकाधिक नौकरियाँ देने से, मुझे इस बात में किसी तरह का जरा-सा भी शक नहीं हैं।

सर चाल्र्स ट्रेवलियन या उस विचार के दूसरे अंगरेजों के बयानों से अधिक वाक्य नकल करने की आवश्यकता नहीं है, निस्सन्देह ठीक यही विचार बेण्टिंक और मैकॉले के थे, भारत के अन्दर अंगरेजी शिक्षा के प्रचार का एकमात्र उद्देश्य राजनैतिक प्रभुत्व को अनन्त काल तक के लिए कायम रखा जाये।
एज्यूकेशन डिसपैच : सन् १८५३ की तहकीकात के बाद कम्पनी के डाइरेक्टरों ने १९ जुलाई, सन् १८५४ को गवरनर-जनरल लॉर्ड डलहौजी के नाम वह प्रसिद्ध खरीता भेजा, जो सन् १८५४ के ‘एजूकेशन डिसपैच’ के नाम से प्रसिद्ध है और जिसे ‘वुड्स डिसपैच’ भी कहते हैं, क्योंकि सर चाल्र्स वुड उस समय कम्पनी के ‘बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल’ का अध्यक्ष था। बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल के प्रेसीडेण्ट का पद बाद के (१९२९) भारत मन्त्री के पद के समान था।
भारत को इंगलिस्तान की मण्डी बनाना : इस पात्र में डाइरेक्टरों ने अपनी भारत हितैषिता की काफी डींग हाँकी है, किन्तु पत्र में यह भी लिखा है कि इस नयी योजना का उद्देश्य ‘‘शासन के हर महकमें के लिए आपको विश्वसनीय और होशियार नौकर दिलवाना है’’ और इस बात को ‘पक्का कर लेना है कि इंगलिस्तान के उद्योग धन्धों के लिए जिन अनेक पदार्थों की आवश्यकता होती है और जिनकी इंगलिस्तान की हर श्रेणी के लोगों में खूब खपत होती है, वे सब पदार्थ अधिक परिणाम में और अधिक निश्चिन्तता के साथ सदा इंगलिस्तान पहुँचते रहें और इसके साथ ही इंगलिस्तान के बने हुए माल लिए भारत में अनन्त माँग बनी रहे।’’
सौ साल का अनुभव : सन् १७५७ से लेकर १८५४ तक करीब १०० साल के अनुभव और सलाह मशवरे के बाद इंगलिस्तान के नितिज्ञों को इस बात का विश्वास हुआ कि थोड़े-से भारतवासियों को अंगरेजी शिक्षा देना, इस देश में अंगरेजी साम्राज्य को कायम रखने के लिए आवश्यक है किन्तु इस पर भी ये लोग इतने बड़े प्रयोग के लिए एकाएक साहस न कर सके। टे्रवेलियन ने अपने लेख और बयान, दोनों में उन्हें साफ आगाह कर दिया था कि अशिक्षित या अंगरेजी शिक्षा से वंचित भारतवासियों के दिलों में अपनी पराधीनता के विरुद्ध गहरा असन्तोष भीतर ही भीतर भड़काता रहता था, जिसका विदेशी शासको को पता तक नहीं चल सका था, यह स्थिति अंगरेजों के लिए बेहद खतरनाक थी। टे्रवेलियन के बयान में दिल्ली और उत्तर भारत के अन्दर
सन् १८५७ के दस साल पहले से क्रान्ति की गुप्त तैयारियों और सम्भावनाओं की ओर संकेत मिलता है, ट्रेवेलियन की आशंकाएँ बहुत शीघ्र सच्ची साबित हुई। सन् १८५७ की क्रान्ति ने एक बार इस देश के अन्दर ब्रिटिश साम्राज्य की जड़ों को बुरी तरह हिला दिया।
सरकारी विश्वविद्यालय : अंगरेज शासकों को अब ट्रेवेलियन, मैकॉले जैसों की नीतिज्ञता और दूरदर्शिता में कोई सन्देह न रहा, उनका बताया हुआ उपाय ही इस देश में अंगरेजी राज को चिरस्थायी करने का एकमात्र उपाय था। लॉर्ड वैâनिंग उस समय भारत का गवरनर-जनरल था। सन् १८५७ में कलकत्ते, बम्बई और मदरास के अन्दर सरकारी विश्वविद्यालय कायम करने के लिए एक कानून पास किया गया। सन् १८५९ में इंगलिस्तान के प्रधान ने सन् १८५४ के खरीते को फिर से दोहरा कर पक्का किया।
सन् १८५४ का यह मशहूर खरीता ही भारत की आजकल (१९२९) की अंगरेजी शिक्षा प्रणाली और अंगरेज शासकों की शिक्षा नीति, दोनों का मूल ध्Eाोत है। ब्रिटिश सरकार का शिक्षा विभाग इसी का नतीजा है।
शिक्षित भारतवासियों का चरित्र : दिल्ली कॉलेज के शुरू के विद्यार्थी, सर चाल्र्स ट्रेवेलियन के पटु शिष्य और पहले अफगान युद्ध में अंगरेजों के परम सहायक, पण्डित मोहनलाल से लेकर आज (१९२९) तक के अधिकांश अंगरेजी शिक्षा पाए हुए भारतवासियों के जीवन, उनके रहन-सहन और उनके चरित्र से जाहिर है कि लॉर्ड मैकॉले और सर चाल्र्स ट्रेवेलियन जैसों की नीति कितनी दूरदर्शिता की थी। नतीजा यह कि करीब डेढ़ सौ साल पहले तक जो देश संसार के शिक्षित के बाद अब (१९२९) संसार के सभ्य कहलाने वाले देशों में, शिक्षा की दृष्टि से, सबसे अधिक पिछड़ा हुआ है, जिस देश में प्राय: प्रत्येक मनुष्य लिखना पढ़ना और हिसाब करना जानता था, वहाँ अब (१९२९) करीब ९४ प्रतिशत अशिक्षित हैं और थोड़े-से अंगरेजी शिक्षा पाए हुए लोग अधिकतर अपने बाकी देशवासियों के सुख-दुख की ओर से उदासीन, सच्ची राष्ट्रीयता के भावों से कोसों दूर, विदेशी सत्ता के पृष्ठपोषक बने हुए हैं। नया लॉ मेम्बर, लॉर्ड मैकॉले मुल पुस्तक से (भारत में अंगरेजी राज) सन् १८३३ के कानून के अनुसार भारत के गवरनर जनरल की कौन्सिल में एक नया सदस्य बढ़ाया गया, जिसे ‘लॉ मेम्बर’ का नाम ब्रिटिश भारत की जनता के लिए कानून बतलाया गया। प्रसिद्ध अंगरेज विद्वान् लॉर्ड मैकॉले को पहला ‘लॉ मेम्बर’ नियुक्त करके सन् १८३३ में भारत भेजा गया। हिन्दोस्तान की ‘ताजी रता हिन्द’ (भारतीय दण्ड विधान) यानी इण्डियन पीनल कोड की रचना और हिंदूस्तानियों में अंगरेजी शिक्षा के प्रचार, इन दोनों बातों का श्रेय मैकॉले ही को जाता है। मैकॉले एक विद्वान्, किन्तु निर्धन अंगरेज था, उस समय के दूसरे अंगरेजों की तरह भारत आने में उसका उद्देश्य भारत से धन कमाना था, उसने स्वयं अपने एक पत्र में लिखा है कि इंगलिस्तान के अन्दर अपनी लेखनी द्वारा वह मुशकिल से दो सौ पाउण्ड सालाना कमा सकता था, सन् १८३४ में वह गवरनर जनरल की कौन्सिल का लॉ मेम्बर नियुक्त होकर भारत आया, इस नये पद के बारे में उसने १७ अगस्त, सन् १८३३ को इंगलिस्तान में रहते हुए अपनी बहिन के नाम एक पत्र में लिखा कि लॉ मेम्बर का पद- ‘‘बड़े मान और आमदनी का पद है, वेतन दस हजार पाउण्ड सालाना है। जो लोग कलकत्ते से अच्छी तरह परिचित हैं, वहाँ उच्च से उच्च लोगों की श्रेणी के लोग मिलते रहे हैं जो उच्च से उच्च सरकारी पदों पर नियुक्त रह चुके हैं, वे मुझे विश्वास दिलाते हैं कि वहाँ पर पाँच हजार पाउण्ड सालाना में शान के साथ कमा सकता हूँ, और वेतन सूद के बचा सकता हँ, इसलिए मुझे आशा है कि केवल ३९ साल की उम्र में, जब कि मेरे जीवन की शक्तियाँ अपने शिखर पर होंगी, तीस हजार पाउण्ड की रकम लेकर, मैं इंगलिस्तान वापस आ सवूँâगा, इससे अधिक धन की मुझे इच्छा भी नहीं है।’’ इस दस हजार पाउण्ड सालाना के अलावा भारत के खजाने से लॉर्ड मैकॉले को लॉ कमिश्नर की हैसीयत से पाँच हजार पाउण्ड सलाना और दिए जाते थे। इतिहास लेखक विलसन ने साफ लिखा है कि कोई खास काम इस पद के लिए था, जिसके लिए एक नये आदमी को लाकर इतनी बड़ी तनखाह दी जाती।

लॉर्ड मैकाले का काम भारतवासियों के लिए कानून बनाना था, किन्तु वह न भारतवर्ष की कोई भाषा जानता था और न भारतवासियों के इतिहास, ना ही उनके रस्मो-रिवाज इत्यादि से परिचित था। भारतवासियों से, भारत की धार्मिक और सामाजिक संस्थाओं से और सब भारतीय चीजों से उसे घृणा की थी।
मैकॉले भारतवासियों को अंगरेजी शिक्षा देने और अंगरेजी के माध्यम से शिक्षा देने का पक्षपाती था किन्तु इसमें उसका उद्देश्य भारतवासियों का उपकार करना न था, उसका खुला उद्देश्य था, भारतवासियों में से राष्ट्रीयता के भावों को मिटा कर अंगरेजी शासन को चिरस्थायी करना। सन् १८३६ में अपने बाप के नाम एक पत्र में उसने लिखा कि- ‘‘मुझे पूरा विश्वास है कि यदि हमारी शिक्षा की योजनाओं के अनुसार काम होता रहा, तो आज से तीस साल के बाद बंगाल के लोगों में एक भी मूर्तिपूजक (हिन्दू) न रह जाएगा’’
‘दि इण्डियन डेली न्यूज’ का अंगरेज सम्पादक लिखता है- ‘‘लॉर्ड मैकॉले की जीत वास्तव में भारतवासियों के धार्मिक और सामाजिक जीवन को नाश करने के खुले संकल्प की जीत थी।’’
ब्रिटिश भारतीय सरकार को उस समय अपने विशाल साम्राज्य के लिए अनेक वफादार और कुछ हिन्दोस्तानी बाबुओं की भी जरूरत थी।
ताजीरात हिन्द : लॉर्ड मैकॉले के बनाए हुए कानून ‘ताजीरात हिन्द’ का जिक्र ऊपर किया जा चुका है। हिन्दोस्तान के अन्दर अंगरेजों का शासन और आयरलैण्ड के अन्दर अंगरेजों का शासन इन दोनों में बड़ी समानता है, इसी तरह के आयरलैण्ड के ताजीरात के कानून (आयरिश पीनल कोड) के बारे में बर्क ने लिखा है- ‘‘आयरिश पीनल कोड एक सुसम्पादित और अपने सब हिस्सों की निगाह से होशियारी से लिखा हुआ ग्रन्थ है, यह एक चतुर और पेचीदा यन्त्र है और कभी किसी भी कुशाग्रधी किन्तु सदाचार रहित मनुष्य ने किसी कौम पर अत्याचार करने, उसे दरिद्र बनाने और उसे आचारभ्रष्ट करने और उसके अन्दर से मनुष्यत्व तक का नाश कर देने के लिए इससे अधिक उपयुक्त यन्त्र न रचा होगा।’’ करीब-करीब यही बात लॉर्ड मैकॉले के इण्डियन पीनल कोड के बारे में कही जा सकती है, इस कानून का उद्देश्य ही भारतवासियों को निर्धन बनाना, उन्हें चरित्रभ्रष्ट करना, उनमें बेईमानी और मुकदमेबाजी की आदत डालना और उन्हें सर्वथा बरबाद करना था। माक्र्चिस ऑफ हेस्टिंग्स ने सन् १८१९ में डाइरेक्टरों के नाम एक पत्र लिखा था, जिसमें उसने विस्तार के साथ यह दिखलाया कि किस तरह सन् १७८० से लेकर उस समय तक नयी अंगरेजी अदालतों ने बंगाल की जायदादों को बरबाद कर दिया, देश के सुखी और समृद्ध किसानों को निर्धनता और दरिद्रता की बुरी से बुरी हालत तक पहुँचा दिया, उनके सदाचार का सत्यानाश कर दिया, पुरानी सामाजिक संस्थाओं को तोड़-फोड़ डाला और भारतवासियों की परवशता को और भी बढ़ा दिया, लॉर्ड मैकॉले के पीनल कोड ने इस स्थिति को सुधारने के स्थान पर उसे और भी अधिक खराब कर दिया, इस कानून के अनेक दोषों को दरशाना यहाँ पर हमारे लिए अप्रासंगिक होगा, अनेक विद्वान् अंगरेजों की स्पष्ट सम्मतियाँ इस विषय में देखी जा सकती हैं। मुजरिमों को रिहाई का रास्ता दिखाना और निर्दोषों को फैसला, सरकार के हाथ मजबूत करना और प्रजा को असहाय बना देना, इस अनोखे कानून के मुख्य लक्षण हैं। संसार के किसी सभ्य देश में इतनी कड़ी सजाएँ नहीं दी जाती, जितनी ब्रिटिश भारत में। वास्तव में लॉर्ड मैकॉले भारतवासियों को इंगलिस्तान की सम्पत्ति समझता था, उसने एक स्थान पर लिखा है- ‘‘हम जानते हैं कि भारतवर्ष को स्वतन्त्र हुकूमत नहीं दी जा सकती, किन्तु इससे उतर कर एक चीज, यानी एक मजबूत और निष्पक्ष स्वेच्छा-शासन (तानाशाही), उसे मिल सकती है।’’ नये लॉ मेम्बर का काम था, भारतवासियों को कानून की सुनहरी जंजीरों में जकड़ डालना और यही मैकॉले ने किया। करीब बीस साल तक जितने अंगरेज भारत की कौन्सिल के लॉ मेम्बर रहे, उन्हें कुल मिला कर ३५ लाख ६८ हजार ७०५ रूपये भारत के निर्धन किसानों की टेंट से निकाल कर दिए गए और

  इसके बदले में उन्होंने काम किया- अक्षरश: भारतवासियों में नैतिक प्लेग फैला कर उनके रहे सहे चरित्र का नाश करना। लॉर्ड मैकाले ने अपने पिताजी को लिखे हुये खत में से-‘इन कॉन्वेंट स्कूलोंसे ऐसे बच्चे निकलेंगे जो देखने में तो भारतीय होंगे लेकिन दिमाग से अंग्रेज होंगे और इन्हें अपने देश के बारे में, अपनी संस्कृति के बारे में अपनी परम्पराओं के बारे में कुछ भी पता नहीं होगा, इनको अपने मुहावरे मालूम नहीं होंगे, इस देश से भले ही अंग्रेज चले जाएँ, पर अंग्रेजियत नहीं जाएगी।’

सन् १८३५ का दैदीप्यमान भारत : मैने भारत की चतुर्दिक यात्रा की है और मुझे इस देश में एक भी याचक अथवा चोर नहीं दिखा, मैंने इस देश में सांस्कृतिक संपदा से युक्त, उच्च नैतिक मूल्यों तथा असीम क्षमता वाले व्यक्तियों के दर्शन किए हैं, मेरी दृष्टि में आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक विरासत जो कि इस देश का मेरूदंड रीढ़ है, उसको खंडित किए बिना हम इस देश पर विजय प्राप्त नहीं कर सकते, मैं प्रस्ताव करता हूँ कि इस देश की प्राचीन शिक्षण पद्धति उनकी संस्कृति को इस प्रकार परिवर्तित कर दें कि परिणाम स्वरूप हर भारतीय यह सोचने लगे कि जो कुछ भी विदेशी एवं आंग्ल है वही श्रेष्ठ एवं महान हैं इस तरह वे अपना आत्म सम्मान, आत्म गौरव तथा उनकी अपनी मूल संस्कृति को खो देगें और वे वही बन जाएंगे जो कि हम चाहते हैं- पूर्ण रूप से हमारे नेतृत्व के अधीन एक देश।

(लॉर्ड मैकाले द्वारा २ फरवरी १८३५ को
हाउस ऑफ कॉमन्स ब्रिटिश संसद में दिए गए भाषण का अंश)

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