सोनिया की राजनैतिक प्रासंगिकता

सोनिया की राजनैतिक प्रासंगिकता

ब्रितानी सरकार के अवकाश प्राप्त अधिकारी मि. ह्यूम की तत्परता से भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना २८ दिसम्बर सन् १८८५ में मुम्बई के जमुनालाल बजाज महाविद्यालय में सर्वसम्मति से हुई थी, जिसके प्रथम अध्यक्ष पद की जिम्मेदारी उमेशचंद्र बनर्जी को सर्वसम्मति से दी गई थी।मि. बनर्जी ईसाई धर्म के कट्टर अनुयायी थे तब से आज तक कांग्रेस के नेतृत्व में हजारों नए-नए परिवर्तन हुए। स्वतंत्रता के पूर्व से ही महात्मा गांधी के आशीर्वाद स्वरूप पं. मोतीलाल नेहरू एवम् पं. जवाहर लाल नेहरू का भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के साथ अन्योनाश्रय सम्बन्ध हो गया। सन् १८८५ से आज तक भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का नेतृत्व नेहरू-गांधी परिवार के हाथों में कई वर्षों तक रहा है, इस कड़ी में पं. मोतीलाल नेहरू, पं. जवाहरलाल नेहरू, श्रीमती इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, श्रीमती सोनिया गांधी व वर्तमान में राहुल गांधी का नाम लिया जा सकता है।

१५ अगस्त १९४७ को भारत की स्वतंत्रता के पश्चात पं. जवाहर लाल नेहरू स्वतंत्र भारत के प्रथम तथा संस्थापक प्रधानमंत्री बनाए गए, जो मृत्युपर्यंत २८ मई १९६४ तक प्रधानमंत्री के पद पर बने रहे, उनके पश्चात लगभग डेढ़ वर्षों तक प्रधानमंत्री का दायित्व लाल बहादुर शास्त्री ने निभाया, उनके आकस्मिक निधन के पश्चात पं. जवाहर लाल नेहरू की एकमात्र पुत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने भारतीय प्रधानमंत्री का पदभार ग्रहण किया तथा सन् १९६६ से लेकर सन् १९७७ तक प्रधानमंत्री बनी रहीं, इस बीच पाकिस्तान का विभाजन हुआ एवम् बांग्लादेश की स्थापना हुई जिसमें श्रीमती इंदिरा गांधी विश्व की सबसे शक्तिशाली महिला प्रधानमंत्री के रूप में प्रतिष्ठित हुई। श्रीमती इंदिरा गांधी के द्वितीय गांधी के कतिपय गलत निर्णयों तथा लोकनायक जयप्रकाश नारायण द्वारा ‘सम्पूर्ण क्रांति’ नामक आंदोलन चलाए जाने के कारण सन् १९७७ के साधारण निर्वाचन में उत्तर भारत से भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का लगभग सफाया हो गया।

इंदिरा गांधी ने १ जनवरी सन् १९७८ को कांग्रेस का विभाजन कर, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (आई) की स्थापना की, जिसके नेतृत्व में सन् १९८० में श्रीमती इंदिरा गांधी पुन: भारतवर्ष की निर्वाचित प्रधानमंत्री बनीं। ३१ अक्टूबर सन् १९८४ को श्रीमती इंदिरा गांधी की निर्मम हत्या, उनके ही निजी अंगरक्षकों ने उनके सरकारी निवास स्थान पर कर दिया, याद रहे कि इंदिराजी के द्वितीय पुत्र संजय गांधी जिनकी बदौलत इंदिरा गांधी सन् १९८० में प्रधानमंत्री बनी थीं, उनकी आकस्मिक मृत्यु उनके निजी विमान दुर्घटना में हो गई। श्रीमती इंदिरा गांधी के प्रथम पुत्र राजीव गांधी को राजनीति में तनिक भी दिलचस्पी नहीं थी। संजय गांधी की मृत्यु के पश्चात उन्हें बाध्य होकर, श्रीमती इंदिरा गांधी को मानसिक सहयोग करने के उद्देश्य से राजनीति में प्रवेश करना पड़ा एवम् ३१अक्टूबर सन् १९८८ को श्रीमती इंदिरा गांधी की रक्त-रंजित आकस्मिक हत्या के पश्चात भारतीय प्रधानमंत्री का पदभार ग्रहण करना पड़ा।

३१ अक्टूबर सन् १९८४ को प्रधानमंत्री बनने के पश्चात, राजीव गांधी ने साधारण निर्वाचन की घोषणा करवाई, जिसमें अभूतपूर्व विजय के साथ राजीव गांधी देश के निर्वाचित प्रधानमंत्री बने. उनके मंत्रिमंडल के अन्यतम वित्तमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने राजीव गांधी के ऊपर रक्षा सौदों में वित्तीय अनियमितता का आरोप लगाया, मुख्यत: बोफोर्स तोप सौदों में कमीशन लेने का आरोप लगाया, फलस्वरुप निर्धारित समय से एक वर्ष पूर्व ही लोकसभा का निर्वाचन कराया गया, जिसमें ५४३ सदस्यीय लोकसभा में मात्र १३६ स्थानों पर विजय प्राप्त कर, विश्वनाथ प्रताप सिंह अवास्तविक मिलीजुली सरकार के प्रधानमंत्री बनाए गए और १९५ संसद सदस्यों का नेता होते हुए भी राजीव गांधी ने विपक्ष में बैठने का निर्णय लिया। विश्वनाथ प्रताप के नेतृत्व वाली सरकार सिर्फ ११ महीनों तक चल सकी और संसद में अपना बहुमत साबित करने में बुरी तरह पराजित हो गई। चंद्रशेखर के नेतृत्व में मात्र ४४ संसदीय सदस्यों के बल पर एसजेपी पार्टी की सरकार बनी. जिसे राजीव गांधी के नेतृत्व वाली १९५ संसदीय सदस्यों का समर्थन दिया गया। चंद्रशेखर के नेतृत्ववाली सरकार भी चार महीनों के पश्चात ही धराशायी हो गई। सन् १९९१में पुन: लोकसभा के लिए साधारण निर्वाचन की घोषणा हुई जिसके दौरान राजीव गांधी की निर्मम हत्या, आतताइयों ने तमिलनाडु के श्रीपेंरुबुदूर नामक स्थान पर कर दी। सन् १९९१ के निर्वाचन में कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभर कर सामने आई, जिसे कुछ ही सांसदों के सहयोग की आवश्यकता थी।

पी.वी. नरिंसह राव जो अपनी राजनैतिक पराजय को स्वीकारते हुए दिल्ली से अपने पैतृक स्थान आंध्र प्रदेश जाने को पूर्णत: तैयार थे, परंतु विधि का विधान कुछ और ही था। राजीव गांधी की निर्मम हत्या के पश्चात उनकी पत्नी श्रीमती सोनिया गांधी को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अध्यक्ष बनाने के लिए कांग्रेस की केंद्रीय कार्यकारिणी समिति ने सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित कर निर्णय लिया, परंतु श्रीमती सोनिया गांधी ने उस समय राजनीति में प्रवेश करने से मना कर दिया। अपने पति की निर्मम हत्या के पश्चात सोनियाजी मानसिक रूप से नामांकन तथा अनाथ महसूस कर रही थीं जबकि समूची भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस उनके पीछे खड़ी थी। श्रीमती सोनिया गांधी द्वारा कांग्रेस अध्यक्ष पद को स्वीकार नहीं करने पर तत्कालीन वरिष्ठ नेता पीवी नरसिंह राव को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अध्यक्ष बना दिया गया जो निर्वाचन के पश्चात भारत के प्रधानमंत्री बनें और पांच वर्षों तक भारतीय प्रधानमंत्री के पद पर बने रहे। नरसिंह राव के प्रधान मंत्रित्वकाल में उनके ऊपर आर्थिक अनियमितताओं तथा भ्रष्टाचार के आरोपों के साथ कई मुकदमे चलाए गए। सन् १९९६ में पुन: कांग्रेस पराजित हुई। 

उस समय भी कांग्रेस के सभी वरिष्ठ नेताओं ने श्रीमती सोनिया गांधी को सम्पूर्ण सम्मान के साथ भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष पद को स्वीकार करने का आग्रह किया, परंतु उन्होंने इसे स्वीकार नहीं किया एवम् कांग्रेस के तत्कालीन कोषाध्यक्ष सीताराम केसरी को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अध्यक्ष बना दिया गया। कांग्रेस की स्थिति बद से बदतर होने लगी। अथक आग्रहों के पश्चात श्रीमती सोनिया गांधी सन् १९९८ में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष पद को स्वीकार करने के लिए सहमत हुई। उस समय में भी कांग्रेस की सांगठनिक स्थिति दयनीय हो गई थी। श्रीमती सोनिया गांधी के द्वारा पार्टी का नेतृत्व सम्भालने के पश्चात, कांग्रेस की स्थिति में धीरे-धीरे सुधार होने लगा।सन् १९६८ में सोनिया ‘माइनो’ ने पहली बार राजीव गांधी के साथ दिल्ली में प्रवेश किया। राजीव गांधी सोनिया माइनो के साथ पारम्परिक रूप से परिणय सूत्र में बंधना चाहते थे। राजीव गांधी की मां श्रीमती इंदिरा गांधी उस समय देश की प्रधानमंत्री थीं। उनके परिवार में विदेशी मूल की तथा दूसरे धर्म की महिला को अपनी बहू के रूप में स्वीकार करने की बात स्पष्ट नहीं थी।

श्रीमती इंदिरा गांधी ने भी अपने पिता पं. जवाहर लाल नेहरू की सहमति के बिना ही महात्मा गांधी के आशीर्वाद से ‘गांधी’ उपाधि के साथ विदेशी मूल के पारसी फिरोज गांधी से शादी रचा ली। सारी अटकलों को दरकिनार करते हुए सोनिया माइनो की शादी राजीव गांधी से हो गई। जिस प्रकार इंदिरा गांधी के सम्बन्ध में लोगों ने कभी नहीं सोचा था कि श्रीमती इंदिरा गांधी ‘गणतंत्र भारत’ की प्रधानमंत्री भी बनेंगी, उसी प्रकार सोनिया गांधी के सम्बन्ध में भी भारतीय नेताओं ने कभी नहीं सोचा था कि विदेशी मूल की महिला राजीव गांधी की पत्नी, सोनिया गांधी इस विशाल गणतंत्र भारत के लोगों का भरोसा अर्जित करेंगी और सत्ता के बाहर रहकर भी भारतीयों के भविष्य का निर्धारण करेंगी। सोनिया निजी तौर पर सियासी दांव-पेंचों में कभी उलझना नहीं चाहती थीं, अपने पति राजीव गांधी के साथ उनकी एयर इंडिया की नौकरी से संतुष्ट होकर, जीवनयापन कर रही थीं। राजीव की आकस्मिक हत्या के बाद सोनिया गांधी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की डूबती हुई साख को बचाने में सफलीभूत हुई। १२५ साल पुरानी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का नेतृत्व लगातार १२ वर्षों तक किसी के हाथ में नहीं रहा है। श्रीमती सोनिया गांध ने अपने संयम, त्याग और विवेक का परिचय देते हुए चौथी बार भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की निर्विरोध अध्यक्ष निर्वाचित हुई|

सन् २००४ में प्रधानमंत्री के पद का त्याग करते हुए डॉ. मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाकर भारतीय इतिहास में विशेषकर कांग्रेस के इतिहास में एक नया अध्याय जोड़ा है। १५ पार्टियों को मिलाकर केंद्र-सरकारका संचालन करना कितना कठिन काम है यह कल्पना की बात है, जिसे सोनिया गांधी आसानी से सम्पन्न करने में सफल रहीं। धैर्य और शालीनता की बात पर भी सोनिया गांधी की किसी से बराबरी नहीं की जा सकती है। 

शरद पवार और पी.ए. संगमा ने सोनिया गांधी पर व्यक्तिगत तौर पर सियासी हमले किए थे, आज शरद पवार और पी.ए. संगमा की पुत्री अगाधा संगमा केंद्रीय सरकार में माननीय मंत्री पद पर आसीन हैं और जिसका अप्रत्यक्ष नेतृत्व सोनिया गांधी कर रही है। सियासी शालीनता और राजनैतिक परिपक्वता के साथ-साथ, देश प्रेम के प्रति प्रतिबद्धता के मामले में श्रीमती सोनिया गांधी ने सभी कांग्रेसी नेताओं को भी पीछे छोड़ दिया है। इंदिराजी जब प्रधानमंत्री बनीं थी, उस समय इंदिराजी के साथ पं. नेहरू का आशीर्वाद और चुनौती रहित कांग्रेस पार्टी का सहयोग था फिर भी इंदिराजी के समय काँग्रेस पार्टी कई बार टूटी। श्रीमती सोनिया गांधी के राजनीति प्रवेश के समय कांग्रेस पार्टी बुरी तरह बिखरी हुई थी जिसे एकजुट रखना असम्भव काम था, जिसे सम्भव करके सोनिया गांधी ने अपनी कामयाबी की जबर्दस्त मिसाल प्रस्तुत की है। भारतीय माँ की भूमिका में श्रीमती सोनिया गांधी ने पार्टी को एक परिवार की तरह जोड़कर रखने में, कामयाबी हासिल की है। विपरीत परिस्थितियों में संयम, धैर्य एवम् मौनता का अवलम्बन करते हुए परिस्थितियों पर नियंत्रण पाना, उनकी सियासती कामयाबी का अद्भुत उदाहरण है।

सूचनाओं के आधार पर सन् १९६८ में सोनिया गांधी, राजीव गांधी के साथ प्रथम बार जब दिल्ली आई थीं, तब उनके पिता ने उन्हें स्वदेश वापसी का टिकट भी दे दिया था। उनके पिता की धारणा थी कि सोनिया भारतीय परिस्थितियों में अपने को समाहित नहीं कर पायेंगी और स्वदेश लौटना चाहेंगी, परंतु विगत ४२ वर्षों में सोनिया गांधी ने भारतीय भूमि को अपनी दूसरी जन्म भूमि मानकर इसके सुख-दु:ख के साथ समाहित हो गयीं, जो अपने आप में विलक्षण चरित्र का परिचायक है। सोनिया की सियासी सफलता का रहस्य भी कम रहस्यजनक नहीं है। उनका कहना है कुछ भी कहने से पहले गम्भीरता से गहन-चिंतन करना चाहिए और कहने के पश्चात उसे तप्तरता से निभाने का प्रयास करना चाहिए। गांधी परिवार का कोई भी सदस्य सरकार में नहीं है फिर भी सोनिया गांधी और राहुल गांधी आज भी देश के सभी नेताओं की तुलना में सबसे अधिक लोकप्रिय तथा अपने नाम पर सबसे अधिक भीड़ जुटाने में अद्वितीय हैं। इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, सोनिया गांधी या राहुल गांधी के द्वारा अध्यक्ष या प्रधानमंत्री का पद लेने पर, भारतीय विपक्षी पार्टियाँ परिवारवाद का नारा बुलंद करती हैं, परंतु भारत की और कई पार्टियाँ हैं, जो परिवारवाद के दलदल में बुरी तरह फंसी हुई हैं, जिसका जिक्र भी लोग नहीं करते, कारण स्पष्ट है कि उन पार्टियों से विपक्ष को खतरा नहीं है। उन्हें विश्वास है जब तक कांग्रेस का नेतृत्व ‘नेहरू-गांधी’ परिवार के हाथों में है कांग्रेस को सत्ता से अलग करना कभी सम्भव नहीं होगा, सोनिया गांधी ने इसे अक्षरश: प्रमाणित भी कर दिया है। ऐसी स्थिति में सोनिया गांधी पर आरोप-प्रत्यारोप न सिर्फ विवेकहीन तर्क है अपितु असंवैधानिक भी है जो गलत परम्परा को जन्म देता है। 

– डॉ. वाय.एल. कर्ण
(वरिष्ठ कांग्रेस नेता, असम)

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