भारत के विकास के लिए भारतीय भाषाएं जरूरी क्यों?

कुछ भ्रम​

अंग्रेज़ी ही ज्ञान-विज्ञान, तकनीक और उच्चतर ज्ञान की भाषा है;अंग्रेजी ही अंतरराष्ट्रीय आदान-प्रदान और कारोबार की भाषा है,भारतीय भाषाओं में उच्चतर ज्ञान की भाषाऐं बनने का सामथ्र्य नहीं है, पर निम्न तथ्य बताते हैं कि ये धारणाएं भ्रम मात्र हैं और इनके लिए कोई प्रमाण हासिल नहीं है|शिक्षा और मातृ भाषा बनाम अंग्रेजी माध्यम:

१. २०१२ में विज्ञानों के स्कूल स्तर की शिक्षा में पहले ५० स्थान हासिल करने वाले देशों में अंग्रेजी में शिक्षा देने वाले देशों के स्थान तीसरा (सिंगापुर), दसवां (कनाडा), चौहदवां (आयरलैंड) सोहलवां (ऑस्ट्रेलिया) अठहरावां (न्यूजीलैंड) और अठाईसवां (अमेरिका) था, इन अंग्रेजी भाषी देशों में भी शिक्षा अंग्रेजी के साथ-साथ दूसरी मातृ भाषाओं में भी दी जाती रही है। २००३,२००६ और २००९ में भी यही रुझान था।

२. एशिया के प्रथम पचास सर्वोत्तम विशवविद्यालयों में एकाध ही ऐसा है जहां शिक्षा अंग्रेजी माध्यम में दी जाती है और भारत का एक भी विश्वविद्यालय इन पचास में नहीं आता।

३. दुनिया भर की भाषा और शिक्षा विशेषज्ञों की राय और तजुर्बा भी यही दर्शाता है कि शिक्षा सफलतापूर्वक केवल और केवल मातृभाषा में ही दी जा सकती है।

४. भारतीय संविधान व शिक्षा पर अभी तक बने सभी आयोगों व समितियों के भी यही आदेश हैं।

अंतर्राष्ट्रीय व्यापार/कारोबार और मातृभाषा बनाम अंग्रेजी माध्यम:
१. सत्तरवीं सदी में (जब एकाध भारतीय ही अंग्रेजी जानता होगा) दुनिया के सफल उत्पाद में भारत का हिस्सा २२(बाईस) प्रतिशत था जो अब मात्र २.५० प्रतिशत है।
२. १९५० में दुनिया के व्यापार में भारत का हिस्सा १.७८ प्रतिशत था और अब केवल १.५० प्रतिशत है, प्रति व्यक्ति निर्यात में दुनिया में भारत का स्थान १५०वां है।
. पिछले दिनों इंग्लैंड में रिपोर्ट छपी है कि यूरोपीय बैंक इंग्लैंड वालों को इसलिए नौकरी नहीं दे रहे क्योेंकि उन्हें अंग्रेजी के इलावा कोई भाषा नहीं आती और कोई और भाषा न आने के कारण इंग्लैंड को व्यापार में चार लाख करोड़ रूपए सालाना का घाटा हो रहा है।

भारतीय भाषाओं का विज्ञान आदि के शिक्षण के लिए सामथ्र्य: चिकित्सा विज्ञान के कुछ अंगे्रजी शब्द और इनके हिंदी समतुल्य यह स्पष्ट कर देंगे कि ज्ञान-विज्ञान के किसी भी क्षेत्र के लिए हमारी भाषाओं में शब्द हासिल हैं या आसानी से प्राप्त हो सकते हैं।

मातृ भाषा माध्यम में शिक्षा और विदेशी भाषा सीखना: यही सही है कि वर्तमान समय में विदेशी भाषाओं का ज्ञान महत्वपूर्ण है। विदेशी भाषा सीखने के संदर्भ में यूनेस्को की २००८ में छपी पुस्तक (इम्प्रूवमेंट इन द क्वालटी आफ मदर टंग – बेस्ड लिटरेसी ऐंड लर्निंग, पन्ना १२) से यह टूक बहुत महत्वपूर्ण है |‘‘हमारे रास्ते में बड़ी रुकावट भाषा एवं शिक्षा के बारे में कुछ अंधविश्वास हैं, जिन्हें खोलने के लिए इन अंधविश्वासों का भंडा फोड़ना चाहिए, ऐसा ही एक अन्धविश्वास यह है कि विदेशी भाषा सीखने का अच्छा तरीका शिक्षा के माध्यम के रूप में प्रयोग है (दरअसल, अन्य भाषा को एक विषय के रूप में पढ़ना ज्यादा कारगर होता है) दूसरा अंधविश्वास यह है कि विदेशी भाषा सीखना जितनी जल्दी शुरू किया जाए उतना बेहतर है (जल्दी शुरू करने से बेहतर हो सकता है, लाभ की स्थिति में सीखने वाला, जो मातृ-भाषा में अच्छी मुहारत हासिल कर चूका हो)। तीसरा अंधविश्वास यह है कि मातृभाषा विदेशी भाषा सीखने के राह में रुकावट है (मातृ-भाषा में मजबूत नींव से विदेशी भाषा बेहतर सीखी जा सकती है) स्पष्ट है कि ये अंधविश्वास है सत्य नहीं, फिर भी यह नीतिकारों की इस प्रश्न पर अगुवाई करते हैं कि प्रभुत्वशाली (हमारे संदर्भ में अंग्रेजी – ज.स.) भाषा कैसे सीखी जाए।’’

 

यह कथन दुनिया भर में हुए अध्ययन का नतीजा था, लगभग हर देश में विदेशी भाषा बच्चे की १० साल की उम्र के बाद पढ़ाई जाती है और इन बच्चों के विदेशी भाषा की मुहारत भारतीय बच्चों से कम नहीं है, इन देशों को अंग्रेजी की जरूरत भारत जितनी है और ये देश शिक्षा के मामले में भारत से समझदार हैं और विकास में आगे हैं।

भाषा कब मरती है: आज के युग में किसी भाषा के जिंदा रहने और विकास के लिए उस भाषा का शिक्षा के माध्यम के रूप में प्रयोग आवश्यक है, वही भाषा जिंदा रह सकती है जिसका जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में प्रयोग होता रहे।आज के युग में किसी भाषा के जिंदा रहने और विकास के लिए उस भाषा का शिक्षा के माध्यम के रूप में प्रयोग आवश्यक है, वही भाषा जिंदा रह सकती है जिसका जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में प्रयोग होता रहे।

अंग्रेजी माध्यम के कुछ और बड़े नुक्सान: अंग्रेजी माध्यम की वजह से एक ऐसी पीढ़ी तैयार हो रही है जिसका न अपनी भाषा और न अंग्रेजी में कोई अच्छा सामथ्र्य है और न ही यह अपनी संस्कृति, परम्परा, इतिहास और अपने लोगों के साथ कोई गहन आत्मीयता बना सकती है और नारी प्राप्त ज्ञान को ९५ प्रतिशत भारतीयों के साथ साझा कर सकती है।

निष्कर्ष: भारतीय शिक्षा संस्थाओं का दयनीय दर्जा, विश्व व्यापार में लगातार कम हो रहा हिस्सा, भाषा के मामलों में विशेषज्ञों की राय और वर्तमान अन्तरराष्ट्रीय भाषा व्यवहार और स्थिति इस बात के पक्के सबूत हैं कि मातृ-भाषाओं के क्षेत्र अंग्रेजी के हवाले कर देने से अभी तक हमें बहुत भारी नुकसान हुए हैं और इससे न तो हमें अभी तक कोई लाभ हुआ है और न ही होने वाला है। भारत का दक्षिण कोरिया, जापान, चीन जैसे देशों से पीछे रह जाने का एक बड़ा कारण भारतीय शिक्षा और दूसरे क्षेत्रों में अंग्रेजी भाषा का दखल है।

विनती: उपरोक्त तथ्यों की रोशनी भाषागत स्थिति के बारे में गहन सोचविचार, ताकि सही भाषा नीति व्यवहार में लाई जा सके, इसमें पहले बहुत देर हो चुकी हो, भारी नुकसान भुगतना ना पड़े, यदि वर्तमान व्यवहार ऐसे ही चलता रहा तो भारत को और भी बड़ी तबाही निश्चित है।

You may also like...

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *