स्वराज्य के उद्घोषक: बाल गंंगाधर तिलक

जिस प्रकार

जिस प्रकार दीपक स्वयं जलता है, उसकी आकांक्षा केवल अंधकार को दूर करने तक ही सीमित नहीं होती, वरन् वह प्रकाश देकर दूसरों को जीवन और गति प्रदान करता है। इतिहास के महापुरुष भी दीपक के समान जलकर अन्धकार को मिटाते हैं तथा प्रकाश पुंज बनकर जीते हैं, ऐसे ही महपुरुषों में सिंह के समान गर्जना करने वाले, स्वराज्य के उद्घोषक बालगंगाधर तिलक थे, महात्मा गांधी ने उनके सम्बंध में कहा था|‘हमारे समय के किसी भी व्यक्ति का जनता पर इतना व्यापक प्रभाव नहीं पड़ा जितना तिलक का, स्वराज्य के संदेश का किसी ने इतने आग्रह से प्रचार नहीं किया जितना लोकमान्य ने’ उन्होंने द्दढ़तापूर्वक शंखनाद किया- ‘स्वशासन मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं उसे लेकर रहूँगा।’ वे भारतीय जनता के प्रिय नायक थे, लोग उन्हें स्नेह और सम्मान से ‘लोकमान्य’ कहकर सम्बोधित करते थे। आचार्य विनोबाभावे ने उन्हें सात्विक कत्र्ता, आसक्तिहीन महापुरूष, साहसी, द्दढ़ता और उत्साह के अमर पुंज के रूप में अपनी श्रद्धांजली अर्पित की थी। गीता-दर्शन पर उनकी टिप्पणी तथा ‘आर्कटिक होम इन दि वेदाज’ नामक ग्रन्थ उनकी अमर कृतियां हैं जो उनके विस्तृत अध्ययन तथा अनुसंधान के प्रति उनकी गहरी रुचि का ज्वलन्त प्रमाण है।

तिलक का जन्म एक ऐसे महाराष्ट्रीय ब्राह्मण परिवार में हुआ था जिसका सम्बन्ध इतिहास के गौरवशाली पेशवाओं से था, वे बाल्यावस्था से ही बड़े मेघावी और प्रखर बुद्धि के थे। कॉलेज में अध्ययन के दौरान ही उनकी रुचि सार्वजनिक कार्यों की ओर बढ़ती गई, एक बार जब उनसे पूछा गया कि उन्होंने गणित में एम.ए.न करके (गणित में उनकी अत्यधिक रुचि थी) एल.एल.बी परीक्षा क्यों उत्तीर्ण की? उन्होंने प्रत्युत्तर में कहा कि- ‘‘मैं अपना जीवन देश के जन-जागरण में लगाना चाहता हूूँ और मेरा विचार है कि इस काम के लिए साहित्य अथवा विज्ञान की किसी उपाधि की अपेक्षा कानून का ज्ञान अधिक उपयोगी होगा, मैं एक ऐसे जीवन की कल्पना नहीं कर सकता जिसमें मुझे ब्रिटिश शासकों से संघर्ष न करना पड़े।’’ तिलक ने लगभग चार दशक तक अपनी शक्तियों को सार्वजनिक जीवन के विभिन्न क्षेत्रों एवं कार्यों में लगाया, एक शिक्षाशास्त्री के रूप में उन्होंने पूना न्यू इंगलिश स्कूल , दक्षिण शिक्षा समाज तथा फग्र्यूसन कॉलेज के व्यवस्थापक के रूप में ख्याति अर्जित की, उन्होंने अनथक प्रयत्न करके महाराष्ट्र में एक शैक्षणिक क्रांति उत्पन्न कर दी, उन्होंने अंग्रेजों के आर्थिक अन्याय के विरूद्ध संघर्ष किया। १८९६ ई. के अकाल में लोगों को अपने अधिकारों के प्रति जागरूक बनाने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया। स्वदेशी आन्दोलन का जबरदस्त समर्थन किया। तिलक ने कांग्रेस के रंगमंच से आर्थिक मामलों में वित्तीय विकेन्द्रीकरण, स्थायी बन्दोबस्त जैसे महत्त्वपूर्ण प्रस्ताव रखे। सन् १८८९ ई़ में कांग्रेस में प्रवेश के बाद एक राजनीतिक नेता के रूप में कांग्रेस के कार्यकलापों में तिलक ने उल्लेखनीय भूमिका का निर्वहन किया, उन्होंने महाराष्ट्र के राष्ट्रीय आन्दोलन को सुसंगठित करने में महती भूमिका निभायी तथा नवयुवकों में यह दृढ़ धारणा उत्पन्न करने की चेष्टा की, कि देश अपनी सामथ्र्य के बल पर स्वतंत्रता अर्जित करे। आपने ‘केसरी’ और ‘मराठा’ नामक दो समाचार पत्रों तथा शिवाजी और गणपति उत्सवों के द्वारा उन्होंने जनता में देशभक्ति की भावना फूँक दी तथा उसमें अपने-अपने राजनीतिक अधिकारों के लिए संघर्ष करने की प्रवृत्ति उत्पन्न की।१९१६ ई. में स्थापित उनकी होम रूल लीग ने देश को स्वराज्य के लिए तैयार किया। सन् १९१८-१९१९ ई. में अपनी इंगलैण्ड यात्रा के दौरान भारत के राष्ट्रवादी आन्दोलन तथा ब्रिटिश लेबर पार्टी के बीच मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया, उनके मन में देश की स्वतंत्रता की बलवती उत्कण्ठा थी, भय उन्हें छू तक नहीं गया था। विपदाएँ उन्हें आतंकित नहीं कर सकती थी, बल्कि विषम परिस्थितियों में उनका शूरत्व और भी अधिक देदीप्यमान होने लगता था।

भयंकर और विनाशकारी विपदाओं के मुकाबले में तिलक का दुर्दमनीय साहस और दुर्घर्ष आशावाद ने उनके चरित्र का सार था। तिलक ने ‘केसरी’ के माध्यम से लगभग चालीस वर्ष तक प्राकृतिक अधिकारों, राजनीतिक स्वतंत्रता और न्याय का संदेश घर-घर तक पहुँचाया, उन्होंने महाराष्ट्र की जनता को संगठित और सामूहिक स्वावलम्ब का मूल्य समझाया। महाराष्ट्र में भयंकर अकाल की स्थिति में ब्रिटिश सरकार की मूर्छा को भंग करने के लिए तिलक ने ‘केसरी’ और ‘सार्वजनिक सभा’ के माध्यम से जनता के दु:खों और कष्टों को मर्माहत पीड़ा की अनुभूति से अभिव्यक्त किया, उन्होेंने दुर्भिक्ष त्रस्त क्षेत्रों की वास्तविक स्थिति की सही-सही जानकारी प्राप्त की, जनता के कष्टों का सही विवरण सरकार तक पहुँचाया तथा सरकार के दृष्टिकोण, कार्यों और मन्तव्यों के विषय में जनता को सही जानकारी दी। सरकार ने दुर्भिक्ष के समय ‘फैमीन कोड’ लागू नहीं किया बल्कि लगान वसूली करने लगी। वायसराय ने अपनी उपेक्षावृत्ति का परिचय दिया। तिलक ने स्वयंसेवकों के दल अकाल-ग्रस्त क्षेत्रों में भेजे, सहायता कार्य प्रारम्भ किया। तिलक ने अकाल सम्बधी आन्दोलन को बड़े उत्साह और बल के साथ चलाया तथा अनेक प्रकार से उद्योग स्थापित करवा कर लोगों की प्रत्यक्ष रूप से सहायता की। सन् १८९७-९८ ई. में प्लेग ने महाराष्ट्र के जन-जीवन को त्रस्त कर दिया, इस रोग के कारण लाखों घर ऐसे तबाह हो गए जिनमें कोई दीया जलाने वाला भी न रहा। रोग से मरने वालों की संख्या करोड़ों तक पहुँच गई थी, इस महामारी के दौरान तिलक ने अपने जीवन को जोखिम में डालकर पूना में लोगों की सेवा की। प्लेग के समय जनता के कष्टों के प्रति सरकार के उपेक्षापूर्ण रवैये से क्षुब्ध होकर दो नवयुवकों ने पूना के प्लेग कमिश्नर रैंड तथा एक अन्य अंग्रेज अधिकारी की हत्या कर दी। तिलक का इस हत्याकांड से कोई सम्बन्ध नहीं था किन्तु ब्रिटिश सरकार ने उन पर हिंसा और राज द्रोह का आरोप लगाकर उन्हें गिरफ्तार कर लिया। १८८२ में तिलक को कोल्हापुर मानहानि के मुकदमे में तथा १८९७-९८ में उन पर लगाए गये राजद्रोह के आरोप में १९०८ से १९१४ तक छह वर्ष के लिए मांडले की जेल में रखा गया, इस सबने उन्हें जनता का प्रियपात्र बना दिया।

सतत शारीरिक तथा मानसिक परिश्रम, अनेक प्रकार के कष्टों और दीर्घकालीन कारावास के कारण उनका शरीर दुर्बल हो गया, किन्तु उस क्षीण शरीर में वङ्कावत् कठोर आत्मा विराजमान थी, उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन में उग्र राष्ट्रवादी विचारधारा का संचार कर एक विशाल जन आन्दोलन का रूप दे दिया, वे किसी भी सांसारिक शक्ति के आगे नहीं झुके, उन्हें आत्मा की अमरता में दृढ विश्वास था। इन्द्र विद्यावाचस्पति ने उनके सम्बन्ध में लिखा है- ‘‘यदि तिलक न होते तो भारत अब भी पेट के बल सरक रहा होता, सिर धूल में दबा होता और उसके हाथ में दर्खास्त होती, तिलक ने भारत की पीठ को बलिष्ठ बनाया वे स्वराज्य के प्रथम उद्घोषक थे’’ तिलक को भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन तथा महाराष्ट्र के इतिहास में श्रेष्ठतम अमर विभूति के रूप में स्मरण किया जाता रहेगा।

– प्रो. मिश्री लाल मांडोत

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